मंजिल की ओर
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लाख दिल अपना खोल के दिखाते रहे
हरदम उनको ही अपना बताते रहे
मगर दो लब्ज भी हमसे वो कह न पाए
वे हमें जान न पाए
हर ख्वाब में उन्हें ही सजाते रहे
रात – रात भर खुद को जगाते रहे
कभी वे अपनी आँखे नम कर न पाए
वे हमें जान न पाए
उनकी चाहत में आँखे बरसती रहीं
दिल ये रोता रहा सांस अटकती रही
पर फिर भी सहारा हमें दे न पाए
वे हमें जान न पाए
खुद को जलाकर, रोशन उन्हें हम करते रहे
कभी भीगते रहे कभी तपते रहे
जालीम जमाने से वो लड़ न पाए
वे हमें जान न पाए
आवाज दे – दे कर उनको बुलाते रहे
हम रोते रहे वे मुस्कुराते रहे
चाहत का उनको एहसास करा न पाए
वे हमें जान न पाए
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