- 29 Posts
- 12 Comments
सात दिन और केवल दो स्वर्ण पदक. वहीं राष्ट्रमंडल खेलों में सात दिनों में यह आंकड़ा 30 पार कर गया था. ध्यान देने वाली बात तो यह है कि हमने जो दो स्वर्ण पदक जीते वह स्नूकर और रोविंग में जीते और यह दोनों प्रतियोगिताएं राष्ट्रमंडल खेलों का हिस्सा नहीं थीं. बात केवल यही नहीं है हमने जिन खेलों में पदक जीतने का दावा किया था उसमें भी हमें खाली हाथ रहना पड़ा. केवल खाली हाथ नहीं बल्कि हमारा प्रदर्शन फिसड्डी रहा. आलम यह था कि हमने अपने औसत प्रदर्शन से भी खराब प्रदर्शन किया.
राष्ट्रमंडल खेलों में हमने देखा था कि हमारे खिलाड़ियों ने रिकॉर्डों की झड़ी लगा दी थी. चाहे वह महिलाओं की 4×400 मीटर की रिले दौड़ थी या फिर डिस्कस थ्रो में कृष्णा पुनिया का लाजवाब प्रदर्शन, सबने अपने जीवन का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन किया. अधिकांश खिलाड़ियों ने अपने रिकार्ड भी तोड़े और यही कारण था कि हमने राष्ट्रमंडल खेलों का अब तक का सबसे अच्छा प्रदर्शन किया और दूसरा पायदान हासिल किया.
लेकिन अब सभी वार विफल हो रहे हैं. खिलाड़ियों का परफॉरमेंस निरंतर गिर रहा है. शूटिंग में वर्ल्ड रिकार्ड धारी समरेश जंग जैसे खिलाड़ी तो फाइनल के लिए क्वालीफाई भी नहीं कर सके और यही हाल सायना नेहवाल का भी हुआ जो बीच में ही पदक की दौड़ से बाहर हो गईं. यह बात अलग है कि एशियन गेम्स में हमारा मुकाबला चीन, जापान, दक्षिण कोरिया, उत्तर कोरिया, ईरान, कजाकिस्तान जैसे शक्तिशाली देशों से हो रहा है. लेकिन फिर भी खिलाड़ियों को औसत प्रदर्शन तो करना ही था.
प्रश्न यह है कि ऐसा क्यों हों रहा है? कहीं इसके पीछे हमारा मनोबल, हौसला या आत्मविश्वास तो जिम्मेदार नहीं. देखा यह गया है कि हम भारतीय जब भी अपने देश में खेलते हैं तो हमारा प्रदर्शन सर्वश्रेष्ठ रहता है. 1951 और 1982 के एशियन गेम्स में भी हमने अच्छा प्रदर्शन किया, वह भी इसलिए क्योंकि यह खेल भारत में हुए थे. तब हमारे खिलाड़ियों की हौसला आफजाई के लिए लाखों का सैलाब उमड़ पड़ा था. लोगों का प्रोत्साहन पा खिलाड़ियों ने भी अपना पूरा ज़ोर लगाया था और फतह हासिल की थी. परन्तु विदेशी धरती पर हमारे खिलाड़ियों को सांप सूंघ जाता है. अगर किसी दूसरे देश में भाग लेने जाते हैं तो स्टेडियम में मौजूद जनता हमारा हौसला नहीं बढ़ाती है शायद इसे देख हमारा मनोबल कमज़ोर होने लगता है और फल यह होता है कि हम फिसड्डी रहते हैं.
यह बात केवल एशियन गेम्स में ही नहीं लागू होती है. क्रिकेट में भी यह देखने को मिला था कि हमें घर का शेर कहा जाता था. हम घर में अच्छा प्रदर्शन करते थे लेकिन जब बाहर जाते थे तो हम भीगी बिल्ली बन जाते थे. लेकिन कुछ समय से क्रिकेट में हम विदेशी धरती पर भी अच्छा प्रदर्शन कर रहे हैं. जिसकी वजह यह है कि अब टीम इंडिया के पास हैं मनोचिकित्सक जो खिलाड़ियों के मनोबल को बढाने का कार्य करते हैं और विपरीत स्थितियों में खिलाड़ियों को संयम रखना सिखाते हैं और इसका फल यह है कि हम आज टेस्ट क्रिकेट की नम्बर एक टीम हैं. अगर ऐसा क्रिकेट में हो सकता है तो अन्य खेल इससे दूर क्यों हैं? शायद इसलिए क्योंकि दूसरे खिलाड़ियों के पास क्रिकेटरों जैसा पैसा नहीं है.
Read Comments