Posted On: 16 Sep, 2013 Others में
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जुबाने अरब में य’ था सब कलाम,
किया नज्म हिंदी में मैंने तमाम|
अगरचे था अफसः वो अरबी जुबाँ,
व लेकिन समझ उसकी थी बस गिराँ|
समझ उसकी हरइक को दुश्वार थी,
कि हिंदी जबाँ याँ तो दरकार थी|
इसी के सबब मैंने कर फिक्रोगौर,
लिखा नूरनामे को हिंदी के तौर|
आधिकारिक रूप से हिंदी चिट्ठाकारी अपने ईग्यारहवें वर्ष में है| आज से दश वर्ष ५ माह पूर्व दिनांक २१ अप्रैल २००३ को श्रीमान आलोक कुमार द्वारा लिखे गए चिट्ठे को हिंदी जगत का पहला चिटठा माना जाता है| इसी के ५ महीने बाद पद्मजा जी द्वारा लिखे गए चिट्ठे को किसी महिला द्वारा लिखा गया पहला चिट्ठा और उन्हें प्रथम महिला चिट्ठाकार माना गया| २५ अगस्त २००५ को हिंदी चिट्ठाकारी ने शतक लगाया| अब हिंदी भाषा के पास सौ बेमिसाल चिट्ठाकार हो चुके थे, किन्तु तब भी इसे सशक्त नहीं कहा जा सकता था| लोगों के अपने अपने ब्लॉग थे और स्तरीय लेखन यदा कदा ही देखने को मिलता था| पाठक वर्ग सीमित था और स्थापित साहित्यकारों ने तो बकायदा इसका मखौल भी उड़ाया| हिंदी गुटबाजी का शिकार रही है और चिट्ठाकारी जगत में यह गुटबाजी खुल कर सामने आई| प्रारम्भिक सामाजिक संचार माध्यम ऑरकुट ने जब हिंदी लेखन का विकल्प भी प्रस्तुत किया और लिप्यान्तरण के माध्यम से यूनिकोड में रोमन से देवनागरी के अक्षर गढे जाने लगे तब तकनीकि रूप से समृद्ध हिंदीभाषियों ने इसे हाँथोहाँथ लिया और यह आशंका व्यक्त की जाने लगी की अब परम्परागत लेखन के दिन लदने वाले हैं और शीघ्र ही समाचारपत्रों तथा पत्रिकाओं के अंतरजाल संस्करण मुख्यधारा वाले पत्र पत्रिकाओं को कालातीत कर देंगे| यह आशंका निर्मूल सिद्ध हुई क्योंकि मनुष्य का अवधानात्मक विस्तार सीमित होता है और ई माध्यमों की अपेक्षा मुद्रित सामग्री को दीर्घ काल तक संजोये रखना अधिक आसान होता है|
आननग्रन्थ (फेसबुक) ने हिंदीभाषियों को वैचारिक आदान प्रदान का एक श्रेष्ठ मंच प्रदान किया और सूक्ष्मचिट्ठाकारी (माइक्रोब्लोगिंग) साईट चहचह (ट्विटर) ने हिंदीभाषी विहगों को उनकी भाषा में भी चहचहाने के अवसर प्रदान किये| इसके बावजूद हिंदी लेखकों के उतने अनुकरणकर्ता नहीं बन पायें जितने की अपेक्षित थे| मीडिया घरानों ने भी चिट्ठाकारी की ताकत को पहचाना और प्रतिष्ठित समाचार पत्रों ने अपने समाचार पत्रों में लगभग नियमित रूप से ब्लॉग वार्ता स्तम्भ प्रकाशित करना प्रारम्भ कर दिया| इस संदर्भ में जागरण जंक्शन का प्रयास विशेष रूप से उल्लेखनीय है क्योंकि इसने छिटपुट चिट्ठाकारी को एक सांगठनिक रूप प्रदान किया| तकनिकी बदल रही है, लोग बदल रहे हैं, माध्यम बदल रहे हैं और लोगों की रूचियाँ और अभिरुचियाँ भी परिवर्तित हो रही है| परिवर्तन के इस दौर में वही जीवित रह पायेगा जिसमे नमनीयता और जिजीविषा दोनों के गुण होंगे, जो दूर्वा की भांति झुक भी जाय और सूखने के बावजूद अनुकूल अवसर पाने पर फिर से हरा भरा हो जाय| इसलिए चिट्ठाकारी को एक पृथक मुद्रित मंच मिलना ही चाहिए और परम्परागत लेखकों को भी तकनीकी ज्ञान अर्जित कर चिट्ठाकारों से प्रतिस्पर्धा करनी चाहिए| जब तक सागर मंथन नहीं होगा, कालकूट पीने के लिए कृतसंकल्पित रूद्रगण नहीं होंगे, तब तक रत्नों की सम्प्राप्ति कैसे संभव है| साथ ही, नवाचार अपनाने के लिए उद्यत लड़ाकुओं की एक पूरी बटालियन भी होनी चाहिए| कहा भी गया है –
क्षणे क्षणे यन्नवतामुपैती तदैव रूपं रमणीयताया:|
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