मनोज कुमार सिँह 'मयंक'
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यदि इंसा मानव बन जाते,
तो कुछ और बात ही होती|
धरा विहंसती नरता पाकर|
ऋत, शिवता, सुंदरता पाकर|
इधर हलाहल शिव की ग्रीवा,
उधर विहंसते नटवर नागर||
मुदित और प्रमुदित अवनी पर,
टिमटिम जलती, जगमग ज्योति||
यदि इंसा मानव बन जाते,
तो कुछ और बात ही होती|
जिसमे अभयदान था प्रभु का|
कनकमयी लंका को फूंका|
नर के मन की प्रबल तरंगें,
भाव सिंधु वह कैसे सूखा?
कहाँ गया वह? कैसे खोजूं?
मेरा सीपी, मेरी मोती||
यदि इंसा मानव बन जाते,
तो कुछ और बात ही होती||
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