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नारद गुरु in varanasi

मनोज कुमार सिँह 'मयंक'
मनोज कुमार सिँह 'मयंक'
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यहाँ मैँ यह बताना ही भूल गया कि युवक का नाम मटरु है और नाम के ही अनुरुप काशी के घाटोँ पर मटरगश्ती करते रहना उसकी आदत मेँ शुमार हो चुका है।हाँलाकि वह काशी छोड़ कर कहीँ नहीँ जाता और पूछने पर उसका उत्तर होता है,’चना,चबेना,गंगजल जो पुरवै करतार,काशी कबहुँ न छोड़िये,विश्वनाथ दरबार’. जबकि वास्तविकता यह है कि उसके पास अपने घुमक्कड़पन को पूरा करने के लिए आवश्यक संसाधन ही नही है।खैर,कहा भी गया है ‘जेहि पर जाकर सत्य सनेहु।अवसि मिलै नहि कोउ संदेहु॥’अर्थात जिसको जो भी वस्तु चाहिये,वह उसको प्राप्त होकर ही रहता है,बशर्ते उस दिशा मेँ सार्थक प्रयत्न किये जाएँ।सो,नारद को मिले फक्कड़ और घुमक्कड़ मटरु गुरु और मटरु को मिले यायावर नारद गुरु। वैसे भी नीतिशास्त्रोँ के अनुसार प्रीति और मित्रता समान गुणधर्म वालोँ मेँ प्रगाढ़ रहती है।
काशी नगरी जिस मामले मेँ अन्य सभी स्थानोँ से अलग है,वह है इसका संवाद स्थापित करने का विशिष्ट और विचित्र तरीका।यदि यहाँ कोई किसी से पूछता है,का गुरु तो दूसरी ओर से आवाज आती है हाँ गुरु। तात्पर्य यह है कि यहाँ कि सँस्कृति किसी को शिष्य नही मानती।आप ‘शिष्यस्तेऽहं साधि मां त्वां प्रपन्नं’ कह कर इसके शरण मेँ आकर तो देखिये,फिर देखिये यह ‘स्वं-स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्या सर्व मानवाः’की तर्ज पर आपके व्यक्तित्व का कैसा परिष्कार करती है। किन्तु अब स्थितियाँ बदलने लगी है,अनियंत्रित दानवीय नगरीकरण ने भस्मासुर की तरह फक्कड़ बनारसीपन को निगलना प्रारंभ कर दिया है और बनारसी संस्कृति के पैरोकार अल्पसंख्यक हो गये हैँ,फिर भी आपको घाटोँ के किनारे मटरगश्ती करते मटरु जैसे बनारसी यदा-कदा मिल ही जाएंगे।
मटरु को नारद गुरु जैसा पुच्छक्कड़ आदमी और कोइ मिला ही नहीँ था।जब भी नारद गुरु आवाज देते ‘मटरु गुरु, मटरु गुरु की घिग्घी बँध जाती थी और वे बगली झाँकने लगते थे।आजकल खाली समय मेँ मटरु गुरु अपना जनरल नालेज तेज करने मेँ लगे हुये हैँ।
एक दिन मटरु गुरु गश खाकर गिर पड़े नारद गुरु ने सवाल ही कुछ ऐसा पूछ लिया था।नारद गुरु के कुछ प्रश्नोँ की बानगी देखिये – मटरु गुरु! ई जो लाल नीली बत्ती वाली गड़िया फुर्र-फुर्र दौड़ती है,ओम्मे का राजा-महराजा होत है? जब उ जात है त उ सफेद अउर खाकी वर्दी वाला सलामी करत है अउर ओन्हन से पइसो नाही लेत है,अउर गुरु एक दिना ई पुलिस वाले एक्खै अदमी कऽ चलान कइ देहलेन काहे के ओकरे लग्गे मोहतोपवा नाही रहा।नारायण,नारायण अउरो मिला त बिना मोहतोपवा के घूमलेन, ई त उहै भइल समरथ के नहि दोष गुसाईँ।अब नारद गुरु उत्तर से पहले प्रतिक्रिया भी देने लगे हैँ।
नारद गुरु भारतीय राजनीतिक व्यवस्था,प्रशासन,अर्थ,वित्त,वाणिज्य,प्रबंधन,स्वास्थ्य,लोक-हित और समसामयिक घटनाक्रम से संबंधित प्रश्न पूछ-पूछ कर मटरु गुरु को भन्ना दे रहे है। भइया गोस्वामी तुलसीदास ने लिखा भी है’उत्तर प्रतिउत्तर के कीये,उपज क्रोध ज्ञानी के हिये’ लेकिन नारद अपनी नारद लीला से बाज नही आने वाले।
नारद गुरु अपने मुख रुपी ए के 47 से दनादन दनादन प्रश्नोँ की बौछार जारी रखे हुए हैँ।आज का उनका प्रश्न है – गुरु! अच्छा इ बतावऽ कि इ मकबूल फिदा हुसैन कतर मेँ दोहा गावै गयल हौ,कि पेँटिँग बनावै गयल हौ? जहाँ तक तू बतउले रहला कि कतर तऽ इस्लामिक देश हौ, फिर त न उ ऊहाँ पर दोहा गाइ सकेला न त पेँटिँग बनाइ सकेला?फिर गुरु उ उहाँ पर का करि?अउर अगर उ यह देश मेँ नाहि आयल तब हमरे धर्मनिरपेक्ष नेतवन क का होइ? आउर गुरु अबहिँ त तैँतीस करोड़ देवतन क तैतीस करोड़ मेहरारु मे से दुइयै चार नंगी कइले बाऽ,कुल मिलि त अबहैँ बकियै हइन। अउर गुरु ई त अभिव्यक्ति क स्वतंत्रता हौ,बतउले नाहीँ रहला? कपड़ै उतारै के त कला कहलेन,देखतऽ नाहीँ जब रैम्प पर कैट वाँक करत मडलवन के देहियाँ से कपड़वा सरक जालऽ त ओन्हने केतना पापुलर होइ जालिन?
और नारद गुरु के अंतहीन प्रश्नोँ का सामना करते हुए मटरु बेहोश होचुका था।

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