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आओ शिक्षामित्र, शिक्षामित्र खेलते हैं

मनोज कुमार सिँह 'मयंक'
मनोज कुमार सिँह 'मयंक'
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हाल ही में देश की सर्वोच्च अदालत ने उत्तर प्रदेश में शिक्षामित्रों के अवैध समायोजन पर चिंता व्यक्त करते हुए, उनकी अवैध नियुक्तियों पर अंतरिम रोक लगा दी| न्यायालय ने आगामी २७ जुलाई को बेसिक शिक्षा सचिव श्री हीरालाल गुप्ता को व्यक्तिगत रूप से अदालत में उपस्थित होने को कहा है और साथ ही यह भी आदेश दिया है की यदि बेसिक शिक्षा सचिव उक्त तिथि को उपस्थित नहीं होते हैं तो सरकार के विरुद्ध अवमानना की कार्यवाही की जायेगी| सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्णय के साथ ही सन २००० से अब तक प्रदेश के शैक्षिक वातावरण पर घहराने वाले संकट के बादल छँटने के आसार दिखाई पड़ने लगे हैं| ध्यातव्य है की यह वही सत्र है जब प्रथम बार शिक्षामित्रों को राज्य के बेसिक विद्यालयों में सम्मिलित करते हुए उन्हें प्राथमिक शिक्षा का एक अंग बनाया गया था| प्रारम्भ में उनके पद को तथाकथित शैक्षिक रिक्तता की पूर्ति हेतु एवं पाठ्य सहगामी क्रियाकलापों में सहायक अध्यापकों की सहायता करने के लिए सृजित किया गया था, जिन्हें आज चरणबद्ध ढंग से समायोजित किया जा रहा है|

यूनिसेफ का रिपोर्ट बताता है की हमारे देश के प्राथमिक विद्यालयों में नामांकन में तो वृद्धि हुई है किन्तु आज भी हम उन्हें कक्षाओं में रोक सकने में असमर्थ हैं| स्कूल छोड़ने वाले छात्रों की संख्या दिनों दिन बढती जा रही है और उसका एक बड़ा कारण विद्यालयों में अप्रशिक्षित, शिक्षण अभिरुचि विहीन, कम योग्यताधारी अध्यापक भी हैं| उत्तर प्रदेश में प्राथमिक शिक्षा राजनैतिक पक्षाघात का शिकार हो चुकी है| जहाँ गुणवत्ता से अधिक वोट बैंक महत्व रखता हो, वहाँ शैक्षिक उन्नयन की बात करना भी एक मूर्खता होगी| आखिर क्या कारण है की मध्य वर्ग का एक साधारण सा व्यक्ति जो थोड़ी सी भी हैसियत रखता है, अपने बच्चों को सरकारी प्राथमिक विद्यालय में कभी नहीं भेजना चाहता| वास्तव में, शिक्षामित्रों का अवैध समायोजन राजनैतिक हठवाद की पराकाष्ठा है, जिसके पीछे न तो कोई तर्क है, न कोई तथ्य और न ही कोई कानूनी आधार| डायस (D.I.S.E.> District Information System of Education अर्थात जिला शिक्षा सूचना व्यवस्था) की रिपोर्ट के अनुसार पूरे देश में कक्षा ५ तक के २३ लाख बच्चे घट गएँ, इनमे से ७ लाख अथवा लगभग एक तिहाई बच्चे अकेले उत्तर प्रदेश से घटे हैं| यह तब है जब उत्तर प्रदेश में शिक्षा का अधिकार अधिनियम लागू हुए लगभग चार साल हो चुके हैं| राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद ने प्राथमिक शिक्षा के गिरते स्तर में सुधार लाने के लिए और प्राथमिक तथा उच्च प्राथमिक स्तर पर शिक्षण को गुणवत्तापरक बनाने के उद्देश्य से २०१० से राष्ट्रीय अध्यापक पात्रता परीक्षा आयोजित करवाने का निर्णय लिया और २०१० के बाद देश के प्रत्येक राज्यों में शिक्षक चयन हेतु इसे एक अनिवार्य विकल्प के रूप में प्रस्तुत किया| देश भर के शिक्षाविदों ने इसकी मुक्त कंठ से प्रशंसा की| दुर्भाग्यवश परीक्षा में सम्मिलित ७ लाख भावी शिक्षकों में से मात्र ९७ हजार लोग ही इसे उत्तीर्ण कर सके| राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद ने देश के समस्त राज्यों को पृथक पृथक राज्य स्तरीय अध्यापक पात्रता परीक्षा आयोजित करने और उसके आधार पर शिक्षकों का चयन करने हेतु निर्देशित किया|

अयोग्यता को आधार बनाकर अपनी राजनैतिक रोटियाँ सेंकने वाले कतिपय राजनैतिक दलों के लिए यह एक खतरे की घंटी थी| इससे उनका वोट बैंक दरकने का पूरा अंदेशा था| नकल को उत्सव की तरह आयोजित करने वाले, खुलेआम पैसे लेकर फर्जी डिग्रियां बांटने वाले, क्षेत्र, धर्म और जाति विशेष के लोगों को राजकीय सेवाओं में नियुक्त कर उनके द्वारा अपने हित साधन करने की चेष्टा करने वाले लोगों के लिए यह एक वज्रपात से कम नहीं था| वर्तमान युवा मुख्यमंत्री जब एक प्रशिक्षु युवानेता थे, तो उन्होंने एक जनसभा में दोनों हाँथ उठाकर यूपीटीईटी को निरस्त करने की भीष्मप्रतिज्ञा ली थी| मुख्यधारा की मीडिया का एक वर्ग तभी से उनके साथ हो लिया|

सूबे में शिक्षा का अधिकार अधिनियम लागू होने से लेकर आज तक मुख्यधारा की मीडिया का व्यवहार टेट अभ्यर्थियों के प्रति विद्वेषपूर्ण, पक्षपातपूर्ण तथा दुराग्रहपूर्ण रहा है| लेख पर लेख लिखे जाते रहे हैं| आश्चर्य की बात तो यह है की जिसने कभी सरकारी स्कूलों का भ्रमण नहीं किया, जो अपने लड़कों को पढने के लिए सरकारी स्कूल में कभी नहीं भेजता, जिसने कभी भी प्राथमिक शिक्षा की स्थिति का विश्लेषण नहीं किया, जिसे बेसिक शिक्षा अधिनियम का क,ख,ग भी नहीं पता| वह भी टेट अभ्यर्थियों के विरोध में लेख लिख रहा है| जब मुख्यधारा की मीडिया शिक्षामित्रों की शान में कसीदे पढने में व्यस्त था, तब निरीह टेट अभ्यर्थी वैकल्पिक मीडिया तथा सामाजिक संजाल के माध्यमों का प्रयोग कर गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर के शब्दों में ‘एकला चलो रे’ की नीति का अवलम्बन कर अपनी लड़ाई खुद लड़ रहा था| जब शिक्षामित्रों द्वारा तेरह साल तक प्राथमिक विद्यालयों में उनकी तथाकथित निःस्वार्थ सेवा, उनके द्वारा बहाए गए आसुंओं और पसीने की इबारत गढ़ी जा रही थी| तब जेठ की तपती दुपहरी में हम चार बेरोजगार युवक अपने द्वारा अर्जित जीवन भर की फ़ालतू डिग्रियों और टेट अंकपत्र की छायाप्रति को पीठ पर लादे हुए, पारिवारिक विरोध को दरकिनार कर बनारस से दिल्ली तक की पदयात्रा करने में व्यस्त थे| जब शिक्षामित्रों की बेबसी और बेरोजगारी का हवाला दिया जा रहा था तो हजारों की भीड़ कभी जंतर मनतर में सभा कर रही थी तो कभी लखनऊ में पुलिसिया बर्बरता सहन करने के लिए बाध्य थी| हमने कभी ट्रेन नहीं रोका, कभी पटरी नहीं उखाड़ी, कभी बस नहीं फूँके, कभी कोई अभद्रता नहीं की किन्तु शंकर का गरल हमारे ही हिस्से में आया|

दुर्भाग्य से प्रदेश की जनता ‘बिजली,पानी सस्ती होगी, दवा, पढ़ाई मुफ़्ती होगी’ के लोमहर्षक नारों के सामने बिछ गयी और अप्रत्याशित रूप से समाजवादी पार्टी ने उत्तर प्रदेश की विधान सभा में प्रचंड बहुमत प्राप्त किया| ‘Power tends to corrupt and absolute power corrupts absolutely’ अर्थात सत्ता भ्रष्ट बनाती है और पूर्ण सत्ता पूर्ण रूप से भ्रष्ट बना देती है| किसी विद्वान का यह कथन पूर्ण रूप से सार्थक हो उठा| माननीय मुख्यमंत्री जी ने सत्ता सँभालते ही सबसे पहला काम टेट को निरस्त करने के उपाय ढूँढने का किया| चुनाव के समय तत्कालीन बेसिक शिक्षा सचिव संजय मोहन रहस्यमय स्थितियों में (रहस्यमय स्थितियाँ इसलिए क्योंकि हमारे देश की मीडिया को घोटाला सूंघने की एक लाईलाज बिमारी है और तथ्य न होने पर भी घोटाला साबित कर देना इसकी पुरानी आदत है) गिरफ्तार कर लिए गए| मामला अभी भी विचाराधीन है| यह स्थिति मुख्यमंत्री महोदय को अपने अनुकूल लगी और कुख्यात आई.ए.एस. जावेद उस्मानी को यूपीटीईटी परीक्षा में मीन मेख निकालने तथा उसे निरस्त करने के हर संभव साधन तलाशने के लिए नियुक्त कर दिया गया| उच्च न्यायालय तथा उच्चतम न्यायालय दोनों ही जगह उस्मानी कमेटी की रिपोर्ट का भलीभांति परिक्षण किया गया और प्रत्येक जगह इसे रद्दी की टोकरी में फेंक देने लायक बताया गया| उस्मानी कमिटी ने अपने दिए गए दायित्व को कुशलतापूर्वक निभाया था और हर उस बिंदु को प्रमुखता दी थी जिसके आधार पर टेट को निरस्त किये जाने की संभावना बनती थी किन्तु न्याय के मन्दिर में झूठ नहीं चलता अतः अदालत को यह साफ़ पता चल गया की उक्त रिपोर्ट मात्र दुर्भावना से प्रेरित है और यह सब कवायद सिर्फ इसलिए की जा रही है क्योंकि यूपीटीईटी में प्राप्त अंकों को ही अध्यापक चयन का आधार बना दिया गया है वह भी एक ऐसी सरकार द्वारा जो उसकी धुर विरोधी है और अपने द्वारा शासित क्षेत्र में विधि के शासन को सर्वोच्च प्राथमिकता देती है|

मरता क्या न करता, माननीय को मजबूरन टेट परीक्षा भी आयोजित करवानी पड़ी किन्तु यहाँ भी एन सी टी ई द्वारा स्थापित मानकों का जम कर उल्लंघन किया गया| पियाजे का मानना है की बालक के संज्ञानात्मक विकास के चार पडावों में उसे भाषात्मक योग्यता, आंकिक योग्यता, आगमनात्मक, निगमनात्मक योग्यता आदि सीखना पड़ता है| इस प्रकार शिक्षक को भी बालक की संज्ञानात्मक योग्यता और पडावों के आधार पर ही शिक्षा देनी चाहिए और उसे खुद भी उक्त तथ्यों का ज्ञान होना चाहिए किन्तु तर्क और तथ्य की बात राजनीती हित साधन में बाधक है अतः एक नए प्रकार की उर्दू टीईटी का विचार प्रस्तुत किया गया और उसमे भी अलिफ़, बे के ही ज्ञान को पर्याप्त माना गया| यह आज भी विवादित है|

अततः सरकार ने अदालत को धता बताते हुए बेसिक शिक्षा नियमावली में १५वाँ संशोधन किया और मायावती जी द्वारा किये विज्ञापन को निरस्त कर दिया| चयन का मानक बदल दिया गया| प्रत्येक अभ्यर्थी से एक एक जिले में आवेदन करने के लिए प्रति अभ्यर्थी ५०० रूपये लिए गए| इस प्रकार प्राप्त आवेदनों द्वारा हजारों करोड़ की रूपये की धनराशि गटक ली गयी| शिक्षामित्रों ने टीईटी का बहिष्कार किया था क्योंकि वे जानते थे की सरकार उनके साथ है और यदि कभी परीक्षा की नौबत आई भी तो वे केवल परीक्षा भवन में प्रवेश करने मात्र से ही उत्तीर्ण घोषित कर दिए जायेंगे| शिक्षामित्रों ने सरकार के साथ मिलकर न सिर्फ टेट का विरोध करना प्रारम्भ किया बल्कि वे टेट उत्तीर्ण अभ्यर्थियों के भी विरुद्ध हो गए| कारण स्पष्ट है, एक म्यान में दो तलवारें नहीं रह सकती| प्रतियोगी परीक्षा उत्तीर्ण करने बाद अध्यापकों का चयनित होना उनके अस्तित्व में बाधक है और जब सरकार अपने पक्ष की हो फिर तो कहना ही क्या? कहावत भी है, जब पिया भये कोतवाल फिर डर काहे का|

टेट अभ्यर्थियों के लिए तो यह एक जीवन मरण का प्रश्न था| असंतुष्ट टेट अभ्यर्थियों ने उच्च न्यायालय की डबल बेंच में मामले को विचारार्थ प्रेषित किया| डबल बेंच से फैसला टेट अभ्यर्थियों के पक्ष में आने से सरकार तिलमिला उठी| उसने एक नया पासा फेंका| हर आन्दोलन में विभीषण और चाटुकार प्रवृत्ति के लोग होते ही हैं| सरकार ने इन चाटुकारधर्मियों के द्वारा सामान्य टेट अभ्यर्थी को अपने पक्ष में करने के लिए सर्वोच्च अदालत में अपील न करने की बात कही| भोलेभाले टेट अभ्यर्थी इनके झांसे में आ गए और प्राइमरी का मास्टर बनने का सुखद स्वप्न देखने लगे| मनोविज्ञान में शक्ति की आवश्यकता की व्याख्या करते हुए उसे मैकियावेलिज्म से जोड़ा गया है| मेरे विचार में इसके लिए धूर्तता से बढ़कर और कोई शब्द नहीं हो सकता| यूपीटीईटी आन्दोलन का स्वघोषित शीर्ष नेतृत्व भले ही इस तथ्य को पहले से ही जानता हो किन्तु सामान्य टेट अभ्यर्थी अपने आपको ठगा सा महसूस करने लगा, क्योंकि सरकार उच्च न्यायालय के फैसले के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय में अपील कर चुकी थी| सौभाग्य से, न्यायालय ने एक बार फिर सरकारी झूठ को आसानी से भांप लिया और फ़ैसला टेट अभ्यर्थियों के पक्ष में आया| माननीय एच. एल. दत्तू की खंडपीठ ने सात सप्ताह के अन्दर टेट अभ्यर्थियों को उत्तर प्रदेश के प्राथमिक विद्यालयों में नियुक्त करने का अंतरिम आदेश दिया|

सरकार का दाँव इस बार भी उल्टा पड़ा| अब सरकार के सामने टेट अभ्यर्थियों की नियुक्ति के अलावा और कोई विकल्प नहीं बचा था| इसी बीच सरकार ने एक और दाँव चला| उसने एक साथ तीन तीर छोड़े १)शिक्षामित्रों का बगैर टीईटी समायोजन २) जूनियर हाईस्कूल में विज्ञान और गणित के पद पर अकादमिक प्राप्तांक के आधार पर सहायक अध्यापकों की नियुक्ति (१५वाँ संशोधन) ३) यूपीटीईटी पास अभ्यर्थियों का फिर से आवेदन (नियुक्ति नहीं सिर्फ प्रत्यावेदन)| अर्थात एक ही पद के लिए तीन प्रकार के मानक, शायद ऐसा एक ही समय दो मुख्यमंत्री वाले उत्तर प्रदेश में ही हो सकता है| प्रत्यावेदन की आड़ में सरकार का उद्देश्य पूर्व में आवेदन करने से वंचित अपने लोगों का हित साधन रहा है| अब यह तथ्य धीरे धीरे लोगों के संज्ञान में आने लगा है| सरकार को प्रत्यावेदन के माध्यम से ३३ लाख नए आवेदन प्राप्त हुए| संयोग से माननीय दत्तू साहब मुख्य न्यायाधीश के पद पर नियुक्त हो गए और मामला माननीय न्यायाधीश द्वय दीपक मिश्रा और यू एस ललित की खंडपीठ में आ गया| सरकार के लिए यह एक अंतिम मौका था| अबकी बार न्यायाधीश द्वय ने यूपीटीईटी में ७५ प्रतिशत अंक अर्जित करने वाले अनारक्षित और ७० प्रतिशत अंक अर्जित करने वाले आरक्षित वर्ग को तीन सप्ताह के भीतर सहायक अध्यापक नियुक्त करने का अंतरिम आदेश दिया| सरकार एक बार फिर धराशायी हो गयी| न्यायालय का हालिया आदेश सरकार को बेसुध करने वाला है किन्तु भय यही है की हर बार की तरह इस बार भी इसका खामियाजा निरीह टेट अभ्यर्थियों को ही न भुगतना पड़े| फिलहाल प्राथमिक विद्यालयों का वातावरण इस कदर विषाक्त हो गया है की न तो शिक्षामित्रों को टेट अभ्यर्थियों पर विश्वास रहा और न ही टेट अभ्यर्थियों को शिक्षामित्रों पर विश्वास रहा| बेसिक शिक्षा अधिकारी से लेकर बेसिक शिक्षा सचिव, बेसिक शिक्षा मंत्री सहित मुख्यमंत्री जी तक टेट अभ्यर्थियों से  व्यक्तिगत शत्रुता रखते हैं और टेट अभ्यर्थी यह जानते हैं की प्रशिक्षण के पूर्व से लेकर बाद तक प्रत्येक जगह उनका राह काँटों भरा है| टेट अभ्यर्थियों के सहायक अध्यापक पद पर मौलिक नियुक्ति से पूर्व विज्ञापन के विपरीत उनकी परीक्षा ली जायेगी और उस परीक्षा में विद्वेषवश कतिपय चाटुकारों को छोड़कर अन्य सभी टेट अभ्यर्थियों को सामूहिक रूप से अनुत्तीर्ण घोषित किया जाएगा| यही नहीं परीक्षा आयोजन से लेकर परीक्षाफल की घोषणा तक एक लम्बे समय तक इंतज़ार करना होगा|

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