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क्या कहते हैँ वेद मानवता के बारे मेँ? (पद्यात्मक भावानुवाद)

मनोज कुमार सिँह 'मयंक'
मनोज कुमार सिँह 'मयंक'
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ज्योँहि मैने इस मंच पर मानव मन की निकृष्टतम अभिव्यक्तियों के बारे मेँ कुछ तथ्य रखे,तभी से जयचन्द परम्परानुयायियोँ को यह बात खलने लगी और उन्होँने हमारे पवित्रतम मान्यताओँ का मखौल उड़ाना शुरु कर दिया।एकाएक ही हिमालय मेँ विराजित आत्मसाक्षात्कार प्राप्त महापुरुष मंच पर प्रकट हुए और समुद्र मंथन प्रारंभ हो गया।किन्हीँ स्वनामधन्य महर्षियोँ ने शैतान और भगवान दोनोँ को एक साथ पूजना प्रारंभ कर दिया तो कईयोँ ने नपुसंकता ही धर्म है,कायरता ही मानवता है,भ्रष्टाचार ही आदर्श है,सामने बलात्कार होते हुए देखना भी एक बहादुरी है,जैसे मिथ्या मान्यताओँ को रखना प्रारंभ कर दिया।

मैँ नहीँ जानता कि उनका कौन सा धर्म है अथवा वे किस माबूद की उपासना करते है?मैँ तो बस इतना जानता हूँ कि ‘जो तटस्थ हैँ,समय लिखेगा उनका भी इतिहास’ वेदोँ की चर्चा चल पड़ी है,तो मुझे किस बात का डर? हमारे ऋषि-मुनियोँ ने कायरता को सबसे बड़ा पाप कह कर पुकारा है।हिँसा को चुपचाप सहन करने को सबसे बड़ा अधर्म माना है।वैचारिक हिँसा को बेरहमी से कुचलने का निर्देश दिया है।कर्तव्योँ को पूजा है और अधिकारोँ के साथ छेड़छाड़ करने वालोँ के लिये कठोरतम दंड की भी व्यवस्था की है।मैँ वेदोँ को बिना छेड़छाड़ किये,उन्हेँ उनके वास्तविक रुप मेँ इस मंच पर रखना चाहता हूँ।ईश्वर मेरी सहायता करे।प्रारंभ विलोम क्रम अर्थात् अथर्ववेद से करता हूँ।यहाँ यह बात ध्यान मेँ रखना होगा कि वेदोँ कि बहुत सी बातेँ सामान्य बुद्धि वालोँ के लिये नहीँ है।इसलिये,उनके लिये आवश्यक होगा कि वे पहले भारतीय दर्शन पद्धति और आधुनिक विज्ञान के बारे मेँ प्राथमिक अवधारणाओँ से अवश्य परिचित हो ले।अथर्ववेद के पद्यानुवाद का यह दुष्कर कार्य मैँ अपनी माँ स्वर्गीया श्रीमती विद्या देवी सिँह के श्री चरणोँ मेँ समर्पित करता हूँ।

अथर्ववेदः।ॐ श्री हरिः

काण्ड ॐ सूक्त ॐ अनुवाक् ॐ

(ऋषि-अथर्वा,देवता-वाचस्पति,छन्द-अनुष्टुप,बृहती)

सत्व,रज और तम के कारणभूत इक्कीस देवता।

ब्रम्ह उनके तेज को कर मुझमेँ स्थित हे पिता॥

वाणीपति हे ब्रम्ह! द्युतियुत मन को लेकर आईये।

जो पढ़ूँ भूलूँ नहीँ वह धारणा दे जाईये॥

ज्योँ धनुष के दो सिरे सम हो गये होँ,डोर चढ़।

वेद धारण बुद्धि,कायिक सुख से भी संपन्न कर॥

आह्वान करते हैँ तेरा हम हे पिता! अब आईये।

ज्ञान से हम दूर ना हो, ज्ञानमय अपनाईये॥

सूक्त-2

(ऋषि-अथर्वा,देवता-पर्जन्य,छन्द-अनुष्टुप,गायत्री)

पर्जन्य जड़-चेतन को धारे,बाण का यह है पिता।

सब कलायुत धरती माता तीक्ष्ण शर पैदा हुआ॥

देवपति प्रस्तर बना यह देह, प्रत्यंचा झुके

शत्रुओँ की ओर उनका बल सदा बाधित करे॥

वट शरण मेँ ग्रीष्म पीड़ित धेनु ज्योँ आती सहज।

उस भाँति अरि पोषित भटोँ के बाण से हम हो न हत॥

जिस भाँति धरती और द्यु के बीच स्थित तेज है।

शर दबाये रक्खे उनको,शत्रु सब निस्तेज हो॥

सूक्त-3

(ऋषि-अथर्वा,देवता-पर्जन्य आदि,छन्द-पंक्ति,अनुष्टुप)

हम जानते हैँ शर पिता को मेघ शतबल युक्त हैँ।

उस बाण से मैँ रोग हरता, मूत्र तुझसे मुक्त हो॥

हम सूर्य को भी जानते हैँ, जो तुम्हारा मित्र है।

उस बाण से मैँ रोग हरता, मूत्र तुझसे मुक्त हो॥

वरुण को भी जानते है, जो तुम्हारा है पिता।

उस बाण से मैँ रोग हरता, मूत्र तुझसे मुक्त हो॥

चन्द्रमा आनन्द दाता, जानते तेरा पिता।

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उस बाण से मैँ रोग हरता, मूत्र तुझसे मुक्त हो

अत्यंत तेजस्वी तरणि, हम जानते तेरा पिता।

उस बाण से मैँ रोग हरता, मूत्र तुझसे मुक्त हो॥

जो मूत्र,मूत्राशय मे है और नाड़ियोँ है ढँका।

शीघ्र ही वह शब्द करता, देह से अवमुक्त हो॥

खोदता हूँ मूत्रपथ ज्योँ खोदते सर वारिपथ।

शीघ्र ही वह शब्द करता, देह से अवमुक्त हो॥

मूत्रपथ मैँ खोलता, ज्योँ खोलते हैँ वारिपथ।

शीघ्र ही वह शब्द करता, देह से अवमुक्त हो॥

ज्योँ हुआ संधान शर,सर्पः पहुँचता लक्ष्य पर।

शीघ्र ही सारा रुका वह मूत्र तुझसे मुक्त हो॥

सूक्त-4

(ऋषि-सिन्धुद्वीप,कृतिर्वा,देवता-आपः,छन्द-गायत्री,बृहती)

यज्ञकर्त्तागण जननी,भगिनी के सम निज मार्ग से।

यज्ञ मेँ लाते सलिल,पय,सोम,घृत हवि के लिये॥

जिस वारि के संग रवि विराजित, सूर्य-मण्डल नीर वह-

शक्ति दे अध्वर हमारा पूर्ण करने के लिये॥

वारि के जो देव हैँ,आह्वान करता हूँ,वहाँ

हो प्रतिष्ठित सर्वदा,जल गाय पीती हो जहाँ॥

औषधी से और सुधा से नीर यह परिपूर्ण है।

दिव्य इनका गुण करे हय पुष्ट,धेनु बलयुता

सूक्त-5

(ऋषि-सिन्धुद्वीप,कृतिर्वा,देवता-आपः,छन्द-गायत्री)

सकल सुखदायक सलिल सुखभोग करने के लिए।

पुष्ट करिये सर्वदा,शुभ ब्रम्ह दर्शन के लिए॥

जननी ज्योँ निज पय पिला कर पुष्ट निज शिशु को करेँ।

उस भाँति सबसे शुभ रसोँ को आप हमको दीजिए॥

अन्नवर्धन हेतु ज्योँ तुम तृप्त करते हो हमेँ।

अन्न हो पर्याप्त वह,इस हेतु उत्तम दीजिए॥

सकल वन,सुख,प्राणी स्वामी औषधी के हे पिता!

नमन करते हैँ तुम्हारा, व्याधि सारे लीजिए॥

सूक्त-6

(ऋषि-सिन्धुद्वीप,देवता-आपः,छन्द-गायत्री,पंक्ति)

दिव्यता युत जल हमेँ सुख दे तथा सुख शान्ति दे।

ब्रम्ह दर्शन मेँ सहायक और पीने के लिये॥

सोम ने मुझको बताया जल मे सारी औषधी

और दाहक अग्नि भी कल्याण करने के लिये॥

हे जलो!दो व्याधिनाशक औषधी,काया खिले।

ताकि मैँ रवि को निहारुँ सर्वदा चिरकाल तक॥

मरुवारि हमको सुखप्रदा हो,नीरयुत भी सुखप्रदा

कूप,घट,वर्षा सलिल भी सुखप्रदा चिरकाल तक॥

(क्रमशः)

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