मनोज कुमार सिँह 'मयंक'
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ये हिन्दू लहू है, कणोँ मेँ है ज्वाला,
मचलती हुई बिजलियाँ खेलती हैँ।
जरा रौब से इसको छूकर तो देखो
कि इसमेँ प्रलय की शमाँ झूमती है।
गरम है ये इतना कि सूरज की गर्मी
और तारोँ की भी रोशनी कुछ नहीँ है।
प्रबल है ये इतना कि तेजाब पानी,
हलाहल जहर का भी सानी नहीँ है।
मगर आज रुख इसका कैसा हुआ है
कि इसमेँ नहीँ अज्म की रोशनाई।
लगातार,हरबार बहता ही रहता
मगर,वेदना ने नहीँ आँख पाई।
ये चीत्कार भी क्योँ नहीँ कर रहा है?
ये हुंकार भी क्योँ नहीँ कर रहा है?
ये पापोँ के साये जगे क्योँ हुये हैँ?
ये अधरोँ पे ताले लगे क्योँ हुये है?
ये काशी की मस्ती को काबे ने लूटा,
नहीँ क्योँ लड़ी अश्क की बह रही है?
ये नजरे इनायत है किसके हवस की?
कि गंगा भी उल्टे तरफ बह रही है।
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