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“रॉ” की पूर्व निदेशक महिला “न्यायालय” में “अर्ध-नग्न” क्यों ?

Achche Din Aane Wale Hain
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“न्याय-पालिका” ही वास्तविक लोकतंत्र की रक्षक,और आम जनता को संवैधानिक अधिकारों की रक्षक है,निश्चय ही भारतीय गणतंत्र में “न्याय-पालिका” ही अपने उत्तरदायित्वों और कर्तव्यों का पूर्ण,पारदर्शी,समतामूलक सन्दर्भों में निर्वहन कर रही है.


“दीर्घ कालिक न्यायायिक प्रक्रिया और न्याय मिलने में विलम्ब” पर खीजकर बोले गए संवाद (डायलाग) इस प्रकरण में सहसा स्मृति पटल पर आ गया,अभिनेता द्वारा बोले गए संवाद (डायलाग) कुछ इस तरह थे……….तारीख पर तारीख….तारीख पर तारीख……..तारीख पर तारीख …………………………. तारीख पर तारीख……………….और फिर तारीख………………..आखिय कब होगा फैसला ?

आखिर क्यों देश की एकअति-विशिष्ट महत्वपूर्ण अंतर-राष्ट्रीय स्तर की खुफिया संस्था रॉ की वर्ष 1987 बैच की क्लास वन एग्जिक्यूटिव कैडर महिला ने माननीय उच्चतम न्यायालय के समक्ष सुनवाई के दौरान“खुद को अर्धनग्न” किया ?……………… एक गरिमामयी और संवेदनशील महत्वपूर्ण पद पर कार्यरत रह चुकी क्लास वन अधिकारी के सामने ऐसी कौन सी विकट परिस्थितियाँ उत्पन्न हो गयी,कि उसे बार-बार“अपनी अंतरात्मा और भावनाओं की अभिव्यक्ति के लिए——- खुद को सार्वजनिक रूप से “अर्ध-नग्न” हो जाना पड़ता है,या प्रधान मंत्री सचिवालय के समक्ष “न्याय की गुहार” के लिए आत्म-हत्या का प्रयास भी करना पड़ जाता है?

“विछिप्तों” के सामान है,तब भी ये प्रश्न जस-का-तस है कि……..उसको इन परिस्थितियों तक पहुंचाने के “वास्तविक कारण “ क्या रहे? और उसको इस स्थिति में पहुंचाने के लिए“पूर्ण रूप से उत्तरदायी” कौन है ?

” उच्चाधिकारी के महिला सहकर्मियों के साथ यौन-उत्पीडन करने के प्रयास के विरुद्ध आवाज़ उठाने ” के दंड स्वरुपआज ये महिला अधिकारी इस “त्रासद- जीवन दंश” सहने को मजबूर है ……… इससे देश की एक प्रतिष्ठित और महत्वपूर्ण अन्तराष्ट्रीय स्तर कीख़ुफ़िया संस्था “रॉ” की कार्य शैली,और भीतरी सत्य उजागरहुआ है,की जो संस्था अपने सहकर्मियों को ही“सुरक्षित और सम्मान जनकजीवन जीने का अवसर नहीं देती,और जहां ” सहकर्मियों का यौन-उत्पीड़न करने “जैसी शर्मनाक स्थितियां हों…….वो संस्था देश के आम नागरिक और राष्ट्र की गरिमा और मर्यादा के लिए कितनी सजग होगी ?


“रॉ”की इस सन्दर्भ में कार्य-शैली ,इसकी “प्रासंगिकता को प्रश्नचिन्हित”तो करती ही है,साथ ही “रॉ” अपने उत्तरदायित्वों और कार्यों में कितनी पारदर्शिता,सदभाव,और प्रमाणिकता के साथ निर्वहन करती है,ये भविष्य में “जांच और शोध के साथ-साथ राष्ट्रीय बहस” का विषय भी है.


घटनाएं तो कुछ ऐसा ही चित्र प्रस्तुत करती हैं,और देश में लम्बी न्यायायिक प्रक्रिया भी,इस घटना के सामान आम लोगों में भी “न्याय में देरी और उपेक्षा” का भाव अनुभव करती है.


सिक्के का दूसरा पहलु ये भी हो सकता है,कि महिला अधिकारी ने पूर्व में “अपने नियोजित वांछित लाभ” के उद्देश्य से,अथवा अन्य प्रयोजन लाभ के लिए “अनर्गल छदम आरोप मड़कर” उच्चाधिकारी को ब्लैकमेल करने की असफल कोशिश की हो,और इस प्रयास में “एक प्रतिष्ठित पड़ और नौकरी” चले जाने,से वो मानसिक अवसाद की स्थिति में पहुँच गयी हो.

“सद्भावना पूर्वक” विवेचन उपरान्त सटीक न्याय देने की आम जनता उपेक्षा करती है.

उसकी दिलशाद गार्डन स्थित इहबास अस्पताल में मानसिक जांच कराई जाए और अगर उसकी मानसिक स्थिति ठीक पाई जाए तो उसे घर जाने दिया जाए।
19 अगस्त 2008 को पीएमओ के सामने आत्महत्या का प्रयास किया था। इसी संबंध में पार्लियामेंट थाने में उसके खिलाफ मामला दर्ज किया गया था। उसने अदालत को बताया कि वह ऐसी हरकत केंद्रीय प्रशासनिक न्यायाधिकरण व सुप्रीम कोर्ट के सामने भी कर चुकी है। 

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