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आज अकस्मात् एक कटाक्ष्य एक साधारण से आदमी द्वारा किया गया,जिसे सुनकर मस्तिष्क गहन विचार और विश्लेषण करने को आंदोलित हो उठा………सोचा आप सब को भी उद्देलित कर दूँ.
आज दोपहर क़स्बा नबाबगंज,जनपद बरेली के छोटे से थ्री व्हीलर स्टैंड (लोकल) पर कई ड्राइवर आपस में हंसी मज़ाक कर रहे थे.
सड़क के पार एक पाकड़ के पेड़ के नीचे दो महिलायें अपने ९-१० छोटे-छोटे बच्चों के साथ धूप और गर्मी से वचाव का प्रयास कर रही थी.साडी पहने माथे पे बिंदी और मांग में सिंदूर भरे,सम्भवता देवरानी-जिठानी रही होंगी.
बच्चों को देख कर एक ड्राइवर दूसरे ड्राइवर से बोला………हमारे तो खुदा की देन होते हैं ? ………………ये किसका प्रसाद है?
सम्भवता उसका संकेत मुसलमानों पर अधिकतर किये जाने वाले उस कटाक्ष्य पर था……जिसमें कहा जाता है,कि मुसलमान ज़्यादा बच्चे पैदा करते है…………अक्सर किसी मुस्लिम महिला के साथ दो से अधिक बच्चे देख लोग आपस में उपहास करते हैं……कि खुद का करम है………….या मौला की देन है………….क्योंकि मुस्लिम लोग बच्चों को खुद का दिया बहुमूल्य उपहार मानते हैं………………और अक्सर गर्भ निरोधन अथवा नसवंदी की सलाह दिए जाने पर,उसका विरोध करते है,और कहते हैं बच्चे पैदा करना न करना खुदा की देन है,वो किसको क्या दे और कितना दे उसकी मर्ज़ी ………….उसे रोकने वाले हम कौन होते हैं……. हांलाकि आज परिस्थितियां पहले जैसी नहीं हैं,आज अधिकतर मुस्लिम भी सीमित परिवार की परम्परा को अपना रहे हैं…………..और दो बच्चों की परम्परा का पालन करने का प्रयास करते हैं…………..दरअसल जनसँख्या का सीधा सम्बन्ध शिक्षा और जीवन स्तर से है ……न कि किसी धर्म अथवा जाति विशेष से है…………….आज मुस्लिम समाज में साक्षरता और जीवन स्तर ऊँचा उठने पर वे भी सीमित परिवार अपना रहे हैं.
फिर भी एक आम ड्राइवर के ये विचार अनावश्यक टीका-टिप्पड़ी या कटाक्ष्य करने वालों के लिए करारा तमाचा है.
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