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मेरे सत्य के प्रयोग–महात्मा गांधी की आत्मकथा
से साभार संदर्भित प्रसंग
गांधी जी, कभी भी दुग्ध -उत्पाद का सेवन नही करते थे क्योंकि पहले उनका मानना था कि दूध मनुष्य का प्राकृतिक आहार नहीं होता और उन्हें गाय के चीत्कार से घृणा (cow blowing) थी और सबसे महत्वपूर्ण कारण था ,वो शपथ जो उन्होंने अपनी स्वर्गीय माँ से किया था.
परन्तु जव महात्मा जी बीमार हुए,और वैद्य ने उपचार में दूध अनिवार्य कर दिया…….तो समस्या उत्पन्न हो गयी,सो अपने करीवी लोगों से विचार आदान प्रदान किया……तय पाया कि शपथ तो गाय का दूध न पीने कि ली थी……सो बकरी या अन्य पशु का दूध पिया जा सकता है…….सो ये राय पसंद आई…..और बकरी का दूध पीना शुरू करने के साथ-साथ बकरी साथ रखना भी शुरू कर दी.
बकरी का दूध पीने और बकरी साथ रखने का दूसरा बड़ा कारण था,गांधी जी का अस्पृश्यता विरोधी अभियान एवं निति……क्योंकि जब बकरी साथ होगी और केवल अपनी ही बकरी का दूध पीने कि बात से,किसी अस्पृश्य के घर के खाने-पीने से बचाव आसानी से हो जाता था…………….पर थे छुआ—छुत के धुर विरोधी……..अर्थात दांत देखने के और,काम के और
गांधी जी ने अंग्रेजी रीति रिवाजों का अनुभव भी किया जैसे उदाहरण के तौर पर नृत्य कक्षाओं में जाना फिर भी वह अपनी मकान मालकिन द्वारा परोसे गए मांस एवं पत्ता गोभी को खा तो गए,परन्तु हजम.नहीं कर सके।…………..हजम न हो पाने पर,मॉस-सेवन से आत्मग्लानि अनुभव की,तदुपरांत अंतरात्मा की आवाज़ पर कभी मॉस न खाने का प्रण कर लिया.
एक बार बुरे दोस्तों की संगत में वैश्यालय भी पहुँच गए……परन्तु अंतरात्मा ने वापसी पर धिक्कारा,सो पश्चाताप हुआ,और कभी वैश्यालय न जाने का प्रण किया.
कुसंग का ज्वर सबसे भयानक होता है——–कुसंगति में पड़कर,एक बार मदिरा पान भी किया…….परन्तु बाद में आत्मग्लानि हुई———–कभी भविष्य में मदिरा-पान न करने का प्रण कर लिया.
वचपन में एक बार भाई की उधारी की समस्या के समाधानार्थ घर से माताजी के सोने के आभूषण से थोडा सोना निकाल कर बेच आये,और उधारी चुकाई………..बाद में फिर आत्मा की ग्लानी को देखते हुए……साड़ी बात पिताजी को बताई और पश्चाताप करते हुए—माफ़ी भी मांग ली.
दितीय विश्व युध्य के समय अंग्रेजों ने भारतीयों के सहयोग की कामना से लगभग मांगी गयी सभी मांगें मान ली—गांधी जी के कहने पर—जेलों में बंद कैदी आज़ाद किये गए,पर
१९३१- जब सुभाषबाबू जेल में थे, तब गाँधीजी ने अंग्रेज सरकार से समझोता किया और सब कैदीयों को रिहा किया गया। लेकिन अंग्रेज सरकार ने सरदार भगत सिंह जैसे क्रांतिकारकों को रिहा करने से इन्कार कर दिया। भगत सिंह की फॉंसी माफ कराने के लिए, गाँधीजी बात की। सुभाषबाबू चाहते थे कि इस विषय पर गाँधीजी अंग्रेज सरकार के साथ किया गया समझोता तोड दे। लेकिन गाँधीजी अपनी ओर से दिया गया वचन तोडने को राजी नहीं थे। अंग्रेज सरकार अपने स्थान पर अडी रही और भगत सिंह और उनके साथियों को फॉंसी दी गयी। भगत सिंह को न बचा पाने पर, सुभाषबाबू गाँधीजी और कांग्रेस के तरिकों से बहुत नाराज हो गए।
१९४६ में युद्ध के बाद दिए गए एक साक्षात्कार में उन्होंने इससे भी आगे एक विचार का प्रस्तुतीकरण किया।
यहूदियों को अपने लिए स्वयं कसाई का चाकू दे देना चाहिए था।उन्हें अपने आप को समुद्री चट्टानों से समुद्र के अंदर फैंक देना चाहिए था।
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१९३२- जब ब्रिटिशों ने अम्बेडकर के साथ सहमति व्यक्त करते हुये अछूतों को पृथक निर्वाचिका देने की घोषणा की,[४][५] तब गांधी ने इसके विरोध मे पुणे की यरवदा सेंट्रल जेल में आमरण अनशन शुरु कर दिया। गाँधी ने रूढ़िवादी हिंदू समाज से सामाजिक भेदभाव और अस्पृश्यता को खत्म करने तथा, हिंदुओं की राजनीतिक और सामाजिक एकता की बात की। गांधी के अनशन को देश भर की जनता से घोर समर्थन मिला और रूढ़िवादी हिंदू नेताओं, कांग्रेस के नेताओं और कार्यकर्ताओं जैसे पवलंकर बालू और मदन मोहन मालवीय ने अम्बेडकर और उनके समर्थकों के साथ यरवदा मे संयुक्त बैठकें कीं। अनशन के कारण गांधी की मृत्यु होने की स्थिति मे, होने वाले सामाजिक प्रतिशोध के कारण होने वाली अछूतों की हत्याओं के डर से और गाँधी जी के समर्थकों के भारी दवाब के चलते अंबेडकर ने अपनी पृथक निर्वाचिका की माँग वापस ले ली। इसके एवज मे अछूतों को सीटों के आरक्षण की बात स्वीकार कर ली जो अंततः अछूतों के अधिक प्रतिनिधित्व मे परिलक्षित
दत्ता और रॉबिन्सन की रवीन्द्रनाथ टैगोर: एक संकलन, के अनुसार रवीन्द्रनाथ टैगोर पहले व्यक्ति थे जिन्होने गांधी जो को पहले पहल यह उपाधि प्रदान की थी.”महात्मा” नाम से पुकारा था, जबकि कुछों के मुताबिक नौत्तमलाल भगवानजी मेहता ने जैतपुर के कमरीबाई विद्यालय मे पहली बार 21 जनवरी 1915 को गांधी को ” महात्मा ” शीर्षक प्रदान किया था.
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