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हमारे बरेली शहर में सन ८० के दशक तक नाम मात्र लोगों के घर ही टेलीवीज़न उपलव्ध था,उनकी प्रतिष्ठा मोहल्ले के सबसे धनी और सभ्रांत लोगों में अचानक होने लगती थी.साथ ही मोहल्ले का हर व्यक्ति उनसे नजदीकियां बढाने की पुरजोर कोशिश में लग जाता.बच्चे तो बच्चे,बड़े लोग भी बढ चड़कर उनके आगे-पीछे मंडराने लगते…….बात केवल इतनी थी,क्योंकि इससे उनके घर इज्ज़त के साथ टी.वी. देखने का सौभाग्य प्राप्त हो जाता. तब हमारी उम्र लगभग ७-८ वर्ष या थोड़ी ज्यादा रही होगी,हम कस्वा बहेड़ी से १२ कि.मी. दूर गाँव गोठा से नए नए बरेली पहुंचे थे,पढाई के लिये.हमारे मामा का लड़का एक वर्ष पहले बरेली पहुँच चुका था,इसलिए वो हालात से ज्यादा वाकिफ हो चुका था. पहले ही दिन पहुँचने पर ,उसने शहर की कई दिलचस्प बातें बतायीं,तो कौतुहल और रोमांच चरम पर पहुँच गया,हांलाकि उसे भी अभी टी.वी. देखने का सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ था,फिर भी कुछ जानकारी थी,जो हमारे लिये विशेष और महत्वपूर्ण थी…….इस प्रकार छोटा होते हुए भी वो हमारा उस्ताद था,या यूँ कहें कि हमारा गाइड था. शाम के समय हम दोनों छत पर चढ़े,तो आकाश छूटे टी.वी. एंटीना से उसने हमें पहली वार रूबरू कराया,हमारे लिये तो वो अलौकिक था,झट-पट छत से दिखाई देने वाले सभी एंटीना की गिनती शुरू की गयी(जैसी भी गिनती जानते थे,अधकचरी) मुझे याद है,शायद ११ या १२ एंटीना थे,आस-पास के मुहल्लों सहित दिखाई देने वाले,और उस दिन से प्रतिदिन ये गिनती का क्रम चालू रहा…….एंटीना बड़ते रहे,गिनती भी ऊपर जाती रही,और अगले दो-तीन वर्षों में ये एक सौ से ऊपर पहुँच गयी थी.बड़ी ख़ुशी होती थी,और गर्व भी शहर में एंटीना की बढती रफ़्तार देखकर. कभी-कभी रोमांच ज्यादा बढ जाता,तो भरी दोपहर में ही छत पर पहुँच जाते,और एंटीना सिग्नल की चपटी वायर पर चमकती धूप में कुछ चमकीली आकृतियाँ सी दिखाई देती वायर पर…………..तब हम दोनों ने सोच समझकर इस गुत्थी को भी सुलझा लिया……कि टी.वी. पर कार्यक्रम के लिये कलाकार जा रहे हैं,सिग्नल के रूप में…….कुछ दिनों तक येही हमारी टी.वी. दर्शन था. खैर प्रगति हुई,पड़ोस के घर में टी.वी. सेट आ गया,शायद अच्छे भाई का घर था,जो छत पर रहते थे,जो हमारी छत से मिली हुई थी,दोनों के मध्य नीची सी एक दीवार थी,जिस पर किसी प्रकार चड़कर हम टी.वी. दर्शन कर पाते. ब्लैक एंड व्हाईट टी.वी.,स्क्रीन पर हरदम वारिश जैसा झिलमिलाता दृश्य,अपूर्व आनंद या यूँ कहें परमानंद की अनुभूति होती,कार्यक्रम मात्र दो-तीन घंटे ही आता था,वो भी सीधे दिल्ली केंद्र से प्रसारित किया जाता था……जिसके लिये गगनचुम्बी एंटीना जो लगभग ३०-४० फीट ऊँचा होता,गिरने से रोकने के लिये,लोहे के तारों की सपोर्ट लगाई जाती थी,पाइप पहले मोटा,फिर उससे कुछ पतला,और आखिर में टंकी में लगने वाला पाइप…………..इतना लम्बा और भारी एंटीना,जिसकी लागत शायद टी.वी. सेट की कीमत से ज्यादा होती होगी,जरा हवा चले,वस् सिग्नल दिशटर्ब…….चील-कुआ-कबूतर बैठ जाए,बस तस्वीरें गायव…………घर का एक आदमी तो बस ऊपर नीचे होता रहता था,और लगभग एंटीना स्पेशलिष्ट बन जाता था…….वो ऊपर घुमाता….अब….या….अब…..नीचे से आवाजें जाती…..और…..और घुमाओ…..अरे….अरे….रोको….रोको….यहीं…रोको…अरे….अब क्यों घुमा दिया……बहुत साफ़ आया था….पीछे घुमाओ……येही करते करते प्रसारण बंद……पर मजाल है,कोई उबकर उठ जाए,कार्यक्रम समाप्ति से पहले. शाम को प्रसारण शुरू होने से पूर्व स्टेशन की वीप सुनाई देने लगती,और सतरंगी रेखाएं स्क्रीन पर………इसी समय से एंटीना सेटिंग कार्यक्रम शुरू हो जाता था…कि शायद सही सेट हो जाए……और पूरा कार्य क्रम देख सकें……. जौली और स्टार ट्रेक ब्रांड बक्से जैसा शटरनुमा टी.वी. सेट जिसके आगे चटाइयां दर्शकों के लिये बिछी होती,लोग समय से अपना खाना-पकाने आदि कार्यक्रम निबटा लेते,ताकि कार्यक्रम के समय आराम से बैठ सकें.सप्ताह में दो घिसी पिटी कलात्मक फ़िल्में,और शायद दो बार चित्रहार आता था………………….सप्ताह के सबसे अच्छे कार्यक्रम येही होते थे………..शनिवार के दिन पुरे सप्ताह के कार्यक्रमों का विवरण साप्ताहिकी में बताया जाता……..जिसे देखना कभी कोई नहीं भूलता ………क्योंकि पुरे सप्ताह इस के आधार पर कार्यक्रमों का पता लगता था. कुछ तकनीक बड़ी,लखनऊ फिर बरेली सर्किट हॉउस में प्रसारण रिले केंद्र लगने से एंटीना कुछ छोटे हुए,कार्यक्रम भी कुछ साफ़ दिखाई देने लगे,पर एक घाटा भी हो गया,सप्ताह में मात्र एक फीचर फिल्म दिखाई जाने लगे…………..और वाशिंग पाउडर निरमा का आकर्षक एड भी देखने में मनोरंजन होता था,तब. कुछ और तकनीक सुधार के वाद,अच्छन भाई एक अजूबा और ले आये,टी.वी. स्क्रीन के आगे लगने वाली कई रंगों की फाइवर या प्लास्टिक शीट ………… इसके लगने से कमाल हो गया,तस्वीरें लगभग रंगीन दिखने लगी….अब तो और मौज थी. शायद १९८६ आते-आते क्रांतिकारी परिवर्तन आया,रंगीन टी.वी. और प्रसारण शुरू हो गया…….समाचार अत्यंत रोमांचकारी था,पर रंगीन प्रसारण पहले बरेली के स्थान पर पीलीभीत में शुरू हुआ…..बड़ी खीज हुई…..कुछ समय बाद बरेली में भी दूरदर्शन केंद्र नें रंगीन प्रसारण शुरू कर दिया . उस समय के चर्चित सीरियल थे,ये जो है ज़िन्दगी…..हम लोग….रजनी……..विक्रम और बेताल……..आदि धीरे धीरे प्रसारण २४ घंटे का शुरू हुआ,फिर लखनऊ और बरेली केंद्र के कार्यक्रम भी कुछ समय के लिये प्रसारित होने लगे…………..फिर युगांतकारी परिवर्तन आया,डिश अर्थात केविल कनेक्शन से….जिसने दुनिया ही पलट दी……..विरोध भी हुआ…..संस्कृति विकृति और विदेशी अश्लील चैनल को लेकर….धीरे-धीरे सब आदी हो गए………और फिर आज का दौर आया,डायरेक्ट डिश प्रसारण अर्थात डी२एच के प्रसारण और एच.डी. प्रसारण के साथ-साथ डिजिटल तकनीक,प्लाज्मा टी.वी. तक
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