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बच्चों के बस्ते में किताबें क्यों हैं!

सामाजिक मुद्दे
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एक अध्यापक के रूप में जब मैं बड़े बड़े बस्ते लादे, कमर झुकाये और चेहरे पर तनाव लिए स्कूल जाते बच्चों को देखता हूँ तो मन करता है कि दौड़कर जाऊं और उसमें से सारी किताबे निकालकर फेंक दूँ पर मेरे लिए ऐसा कर पाना नामुमकिन है। हालांकि राष्ट्रीय पाठ्यचर्या 2005 (एन सी एफ ) के प्राविधानों में बस्ते के बोझ को कम करने की कवायद के बाद एक उम्मीद जागी थी कि अब बच्चों को बस्ते के अनावश्यक बोझ से मुक्ति मिलेगी पर 13 साल में यह बोझ घटने की बजाय ही नजर आया।

 

 

कभी कभार मैं जब अपने खुद के बच्चों के बस्ते को देखता हूँ तो पाता हूँ कि कुल बजन में आधी से अधिक किताबें हैं जिन्हें स्कूल ले जाने का कोई औचित्य मुझे समझ मे नहीं आता है। जब मैं उन्हें किताबें घर छोड़कर जाने को बोलता हूँ तो उनके चेहरे पर एक अनजाना भय और तनाव दिखाई देता है जो अध्यापकों के द्वारा दिये निर्देशों की अवेहलना और दंड की संभावना की बजह से आता है इसलिए मजबूर होकर मुझे किताबों को बस्ते में ही दुबारा रखना पड़ता है। स्कूल के अध्यापक द्वारा विज्ञान, गणित, भूगोल, सामाजिक विषय आदि को कक्षा में पढ़ाने के बीच उस विषय की किताब का उपयोग कहाँ पर आता है यह मेरी समझ से परे है  क्योंकि मुझे सदैव लगता है कि आदर्श शिक्षण में छात्र अध्यापक के बीच अगर किसी की जरूरत है तो वह है कक्षा में लगा ब्लैकबोर्ड। एक अच्छा अध्यापक पूरे कालांश में सीधे आंख से आंख मिलाकर बच्चो से विषय के बारे में सम्प्रेषण करता है जिसमे कहीं भी पुस्तक खोलने देखने और पढ़ने का कोई औचित्य नही है तो फिर विषयों की पुस्तक बच्चों के बस्ते में क्यों है।

 

हालांकि आरंभिक कक्षाओं में कक्षा 3 तक हिंदी की किताब की जरूरत इसलिए समझ में आती है क्योंकि अभी बच्चे अपनी वाचन शक्ति को बढ़ा रहे होते हैं इसलिए कक्षा में उन्हें किताब को पढ़ने के प्रेरित करना आवश्यक होता है। आरंभिक कक्षाओं में कहानी की चित्र बाली किताबों और वर्क बुक की भी जरूरत समझ मे आती है पर क्या इन्हें स्कूल में ही प्रयोग कर वहीं जमा कराकर बच्चों को बस्ते के बोझ से मुक्ति नहीं दी जा सकती है? बड़ी कक्षाओं में किताबों का उपयोग बस्ते के बोझ को बढाने के सिवा और कुछ नही है। इतिहास के अध्यापक का दायित्व है कि वह किताब में लिखे समस्त पाठ्यक्रम को कक्षा में रोचक तरीके से बताये और छात्र को पाठ घर से दुहराकर लाने को प्रेरित करे। अगर इस बीच अध्यापक और छात्र के बीच किताब आती है तो यह छात्र और अध्यापक के बीच बनी तारतम्यता और एकाग्रता को भंग करने का काम करती है। विज्ञान और गणित में तो अध्यापक और छात्र के बीच किताब का होना निहायत गैरजरूरी है।

 

वास्तव में छात्र के बस्ते में किताब का होना अध्यापक के शिक्षण कौशल पर भी गंभीर प्रश्न खड़ा करता है। पुरानी पद्यति को अपनाने बाले ज़्यादातर शिक्षक कक्षा कक्ष में विषय को सीधे न पढ़ाकर छात्रों को किताब से पढ़ने को बाध्य करते हैं और कालांश के अंत मे 5 से 10 मिनट में उसका सार बताकर उसे समाप्त कर देते हैं। पठन पाठन की इस विधि को एन सी एफ 2005 में गैर जरूरी मानते हुए बाल केंद्रित शिक्षण पर जोर दिया गया था।अधिकांश विद्यालयों के छात्र इन पुस्तकों के साथ गाइड और अन्य सहायक पुस्तकें भी रखे मिल जाते हैं क्योंकि ऐसा उनके अध्यापक कहते हैं या विषय बस्तु न समझ पाने के कारण इनका उपयोग उनकी मजबूरी बन जाती है।

ताज्जुब यह भी है कि इतने भारी बस्ते को ले जाने वाले और मंहगे कान्वेंट में पढ़ने बाले छात्र को अंत मे निजी कोचिंग या टयूशन के द्वारा ही विषय को समझने को बाध्य होना पड़ता है। इसका साफ अर्थ है कि उनके बस्ते की किताबों ने उनके ज्ञान को बढ़ाने में कोई विशेष मदद नही की है। ताज्जुब यह भी है कि कक्षा 11 और 12 तथा उच्च शिक्षा में छात्रों को एक प्रकरण के लिए एक से अधिक पुस्तकों के अध्ययन की जरूरत होती है पर इंटर कॉलेज और महाविद्यालयों के छात्र एक पतली कॉपी, रजिस्टर या नोट पैड के साथ विद्यालय में जाते मिल जायेंगे क्यूंकि इस उम्र तक पँहुचते पँहुचते उन्हें पता चल जाता है कि विद्यालय में पुस्तकें ले जाना एक गैरजरूरी कवायद है।

 

 

बच्चों के बस्ते के बोझ के लिए स्कूल से ज्यादा अभिभावक भी जिम्मेदार हैं। अभिभावक स्वयं ही बच्चे के बस्ते में सभी पुस्तक रख कर स्कूल भेजने को बाध्य करते हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि इससे उनके बच्चे के अध्ययन में कोई बाधा नही आएगी। स्कूलों में टाइम टेबल होने के बाद भी छात्र के बस्ते में सभी विषय की किताबें बनीं रहना विद्यालय और अभिभावक दोनो की छात्र के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के प्रति उनकी उदासीनता दर्शाता है। सभी किताबें बस्ते में बनी रहने से अध्यापक, छात्र और अभिभावक के मन मे एक सुकून सा देता है। शायद ही आज तक 2 प्रतिशत अभिभावक भी कभी बस्ते के बोझ को लेकर स्कूल चर्चा करने गए हो। ताज्जुब तब होता है कि एन सी ई आर टी के नियमों को पूर्ण रूप से अपनाने बाले केन्द्रीय विद्यालयों के छात्रों के बस्ते भी कान्वेंट से कम भारी नजर नही आते। वास्तव में इन किताबों की बस्ते में उपस्थिति अध्यापकों को कक्षा शिक्षण में लापरवाही करने के लिए अवसर उपलब्ध कराती है इसलिए स्कूल कभी भी इस पर गंभीर नजर नही आये। अब सरकार और जागरूक अभिभावकों को अपनी तरफ से पहल करनी होगी ताकि बचपन को बस्ते के अनावश्यक बोझ से बचाते हुए स्कूल में गुणवत्तापरक रोचक शिक्षा के लिए एक रास्ता बनाया जा सके।

 

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