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कौन विरादरी हो भाई

सामाजिक मुद्दे
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उत्तर प्रदेश चुनाव में 4 चरण हो चुके हैं। पार्टियों का प्रचार विकास की राजनीति वादों से निकलकर जातिगत और धर्म आधारित हो चला है। चुनावी अखाड़े में हर दल जाति आधारित प्रचार कर अपना दावा मजबूत करता दिख रहा है। 21 वीं सदी के भारत में किसी ने कल्पना भी नहीं की होगी कि आजादी के 70 वर्ष बाद भी जब जनप्रतिनिधि चुनने की बारी आयेगी तो पुनः हम पर विकास जी जगह जातियां हावी होती दिखेगी। चुनाव विश्लेषक और टीवी एंकर खुले आम यह प्रश्न उछाल रहें हैं कि 18 प्रतिशत मुश्लिम किसके साथ जा रहा है ,पिछड़े वोट कहाँ जा रहे हैं दलित किसके साथ हैं। समाजवादी पार्टी के विकास के दावे जातियों के समीकरण के आगे गैर प्रासंगिक होते दिख रहे हैं। नोट वंदी अतीत का हिस्सा नजर आ रही है लोग निर्माण कार्यों और जनसुविधाओं के मुद्दों को किनारे करते हुए अंततः विरादरी पर आकार टिक गए हैं।
    उत्तर प्रदेश के चुनाव में जाति समीकरण चुनाव का महत्वपूर्ण घटक है जिस मुस्लिम यादव फैक्टर को आगे कर मुलायम सिंह जी सत्ता पर काबिज हुए उसी फैक्टर को अब मायावती जी अपनाना चाहती हैं इसलिए इस बार उन्होंने दलित मुस्लिम समीकरण से सत्ता तक पहुँचने का रास्ता चुना है। हालाँकि 2007 में मायावती जी और 2012 में अखिलेश जी की जीत में सभी जातियों के वोट उन्हें प्राप्त हुए थे पर सरकार आने के बाद हमेशा यह ही प्रचारित किया गया कि हम कुछ विशेष जातियों के समर्थन से ही सत्ता में आये हैं और अभी भी चुनाव प्रचार विशेष लोगों को आकर्षित करने तक ही नजर आता है। बीजेपी अंततः हिंदुत्व के सहारे ही उत्तरप्रदेश को फतह करने की कोशिश करती नजर आ रही है। ताज्जुब है कि देश में धर्म निरपेक्ष राजनीति की वकालत करने बाले राजनेता अंततः चुनाव में किसी विशेष धर्म या विशेष जातियों के समर्थक बने नजर आते हैं। विकास के मुद्दे पर चुनाव लड़ने का दावा करने बाले नेता प्रत्येक विधानसभा में प्रत्याशी चयन में विरादरी के वोटों के आधार पर ही चयन को मजबूर दिखते हैं। यहाँ यह बात भी गौर काबिल है कि जिन क्षेत्रों में भरपूर विकास हुआ है वहां भी पार्टियों को अंततः विरादरी ही साधनी पढ़ रही है और उस क्षेत्र के मतदाता भी अंततः विकास की बात भूलकर अलग अलग पार्टियों में ही बटे नजर आते हैं जबकि उन्हें विकास को ध्यान में रखकर विकास करने बाली पार्टियों का ही चयन करना चाहिए था।
    उत्तर प्रदेश के चुनाव में प्रत्याशी के चरित्र से ज्यादा महत्वपूर्ण उसकी विरादरी होती है मायावती जी द्वारा खोजे गए सोशल इंजीनियरिंग फार्मूला का मुख्य आधार ही विरादरी थी। अगर हम किसी मतदाता से उसके वोट की बात करें तो वह अपने वोट के साथ यह भी स्पष्ट बताता नजर आता है कि हमारी विरादरी के वोट फलानी पार्टी को जा रहे हैं और इसी आधार पर अनुमान लगा लिया जाता है कि इस विधानसभा से यह प्रत्याशी जीत सकता है। उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में विरादरी की पार्टियाँ भी होती हैं। आप किसी भी विधानसभा के मतदाताओं से बात करो तो वह स्पष्ट बता सकता है कि किस पार्टी में किस जाति विरादरी का वोट पक्का है।
    अगर कोइ मुस्लिम बीजेपी में अपना वोट डालता भी है तो अंत तक यह नहीं माना जाता है कि उसने बीजेपी को वोट किया होगा इसी तरह यादव वोट का अखिलेश से अलग होना समाज में स्वीकार्य नहीं है जाटव और दलित विरादरी के वोट को मायावती जी के हिस्से में गिना जाता है और सवर्ण वोटर को बिना कहे ही बीजेपी का वोटर मान लिया जाता है ऐसे में अगर कोई वोटर किसी प्रत्याशी या पार्टी से प्रभावित होकर अपने मूल पार्टी से अलग वोट करता भी है तो उसे यह बात सिद्ध करने में वर्षों निकल जाते हैं। इसी अवधारणा के कारण विशेष विरादरी विशेष पार्टी में ही वोट करने में सुविधा महसूस करती हैं।
  चुनाव 5 साल की सामाजिक समरसता को एक महीने में ही ख़त्म कर देते हैं चुनाव में पैदा हुयी कड़वाहट को ख़त्म करने में लम्बा समय लगता है। चुनाव के बाद किसी पार्टी के सत्ता में आने पर बदले की भावना अंततः उस वोटर को भी राजनीति करने पर मजबूर कर देती है जिसे नेताओं से कोई मतलब नहीं था। गाँव की पंचायत प्रत्येक चुनाव के बाद अलग अलग हिस्सों में नजर आती है विकास कार्य भी मिले वोटों के हिसाब से तय किये जाते हैं खुलकर समर्थन और विरोध करने बालों को फायदा या नुकसान पहुँचाया जाता है। लोकतंत्र के गठन की प्रक्रिया ही भारत में जाति व्यवस्था को मजबूत करने और जाति के आधार पर लोगों को अलग अलग करने में सबसे महत्वपूर्ण कारक है।

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