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मनुष्यता से पशुता की और बढ़ते कदम

सामाजिक मुद्दे
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मनुष्य के इतिहास का अध्ययन बताता है कि मनुष्य के पूर्वज खानावदोश थे।जंगल में रहना और शिकार कर कच्चा मांस खाना ही उनका जीवन था। समय के साथ मनुष्य ने वस्त्र का उपयोग प्रारम्भ किया , अग्नि का प्रयोग शुरू किया , समूह में रहना सीखा, घर बनाये , परिवार व्यस्था को अपनाया, सामाजिक ढांचा विकसित किया और एक जंगली प्राणी वर्तमान मनुष्य बन गया।
       मनुष्य सभी प्राणियों में श्रेष्ठ माना जाता है क्योंकि उसकी अभियक्ति और सृजन क्षमता सबसे श्रेष्ठ है मनुष्य ने अपने बुद्धि से प्रकृति पर विजय प्राप्त की है। एक सामाजिक और पारिवारिक व्यवस्था का निर्माण किया है। पर यह सब एक दिन में ही नहीं हो गया इसके लिए हजारों साल का सतत् प्रयास और चिंतन था। मनुष्य के प्रयासों में लगातार गतिरोध और विरोधाभास के बाद भी समाज के उपयोगी सिद्धान्त स्वतः अस्तित्व में आते चले जाते हैं और कालान्तर में यही एक व्यवस्था का रूप ले लेते है। मनुष्य की सृजन शक्ति और व्यवस्था के कारण मनुष्य अन्य प्राणियों से अलग है। प्रकृति में मनुष्य ही ऐसा प्राणी है जो अपने तन को ढक कर रखता है , परिवार व्यवस्था का पालन करता है और सामाजिक नियमों के आधार पर अपना जीवन जीने का प्रयास करता है।
   समाज में एक शताब्दी पहले तक जो भी व्यवस्था  थी वह एक चिंतन का परिणाम थी। इसमें अगर जाति व्यवस्था को अलग कर दें तो ज्यादातर नियम समाज के अनुभव और लोगों की राय पर आधारित थे। समाज में बनाये नियमों और मान्यताओं के कारण लोगों ने एक आपसी समझ , अपनत्व और स्नेह था। नियमों के कारण लोगों में गलत करने के लिए एक भय था। समय के साथ समाज में वैचारिक स्वतंत्रता के चलते और लोगों के ज्ञान का दायरा बढ़ने के साथ हम पुनः अपनी मूल अवस्था में आने को आतुर होते दिख रहे हैं। समाज अब परिवार और व्यवस्था के बंधन से मुक्त होने को आतुर है और पुनः आदि मानव के सामान एक बंधन हीन प्राणी की तरह जिंदगी जीने के लिए अपनी आवाज बुलंद कर रहा है।
        अगर आप किसी जानवर की जीवन शैली का अध्ययन करे तो पायेगे कि वह ना तो परिवार में बंधा है और ना ही समाज के नियमों में ,उसका दायित्व तो केवल बच्चे पैदा कर उनका भरण पोषण कर उन्हें स्वतंत्र छोड़ देना भर है। मनुष्य का जीवन कुछ अलग है वह बच्चे पैदा कर जीवन भर उनके साथ रहता है अपने माता पिता और बच्चों के बीच एक सेतु के रूप में खुद को स्थापित कर परिवार व्यवस्था को मजबूती प्रदान करता है और यह परिवार व्यवस्था सम्पूर्ण विश्व में भारत की अलग पहचान दिलाता है। मनुष्य समाज में नियम बनाता है और उन नियमों के आधार पर जीवन जीने के लिए एक दूसरे को बाध्य करता है।पर पिछले 3 दशक में भारत के व्यक्तियो में अन्य देशों के सामान ही पारिवारिक और सामाजिक बंधन से मुक्ति की अजीब सी बैचैनी देखने को मिली है जिसका परिणाम यह हुआ कि ज्यादातर परिवार एकल हो गए और बच्चे रिश्तों की छाया से बंचित होने लगे।
    लगभग 30-40 वर्ष पूर्व लोग सामाजिक रूप से काफी सशक्त थे। गांव के बुजुर्ग और उनकी बातों का सम्मान होता था। गांव में शादी विवाह और सामाजिक कार्यक्रम सब लोग मिल जुलकर करते थे लड़कों को भी संस्कार के दायरे में व्यवहार करना होता था और पूरे गांव की माताओं बहिनों और बेटियो के सम्मान और सुरक्षा की जिम्मेदारी गांव के लोग मिलकर उठाते थे। पर धीरे धीरे लोग अपने कर्तव्यों से विमुख होने लगे। गांव में बनायीं गयी व्यवस्थाएं उन्हें ख़राब लगने लगीं इसलिए लोगों ने कर्तव्य से बचने के लिए इन व्यवस्थाओं में कमी निकलना प्रारंभ कर दिया। समाज अब छोटे छोटे समूहों में बटने लगा और यह समूह एक संयुक्त परिवार तक सिमट गया। जब हम परिवार तक ही सीमित हो गए तो हमें संयुक्त परिवार के बंधन भी कस्टकारी लगने लगे और लोग एकल परिवार व्यवस्था में जाने को आतुर हो गए।
     एकल परिवार व्यवस्था का मुख्य कारण धन है यह कटु सत्य है।ज्यादातर परिवार अर्थ अर्जन के लिए शहर पलायन कर रहे थे पर इसमे स्वतंत्रता के सुख ने इसे लोगों की आदत में सुमार कर दिया। बंधन से मुक्ति की चाह में कई घटिया तर्क देकर लोग अपने संयुक्त परिवारों से अलग रहने लगे और दो दशक में ही इस आदत ने महामारी का रूप ले लिया। अपने माता पिता को दादी बाबा से अलग रहते देखने बाले बच्चे भविष्य में स्वयं भी अलग ही रहेगे यह तय है पर हजारों साल में विकसित हुयी भारत की समृद्धशाली पारिवारिक व्यवस्था को टूटने में 50 साल से भी कम वक्त लगा।
    अगले चरण में लोगो का रुझान कैरियर पर टिकने लगा और महिलाये घरों की दहलीज़ से बाहर निकल आई। महिला सशक्तिकरण का अर्थ केवल नौकरी हांसिल कर भौतिक सुबिधाओं में सहभागिता भर रह गया। शादी की औसत उम्र 20 वर्ष से बढ़कर 28-30 वर्ष हो गयी। बच्चों के जन्म लेने की औसत उम्र भी अब 30 से ऊपर हो गयी है।बच्चे पैदा करना एक औपचारिकता और तनाव भरा कार्य माना जाने लगा है ऐसे में पैदा किये गए बच्चे से ममता का कम होना स्वाभाविक ही है। लोगों में लिव इन रिलेशनशिप का नया फार्मूला विकसित हो रहा है।
  सामाजिक व्यवस्थाये अब बीते वक्त की बात होती जा रही है लगातार बनते कानून की आड़ में मनुष्य विद्रोही हो रहा है जाति बंधन अब केवल वोट पाने के लिए प्रयोग हो रहे हैं। शिक्षा का अर्थ केवल डिग्री हांसिल करना भर रह गया है। घर के अंदर और घर के बाहर लोग बंधन से मुक्त हो गए है साथ ही सम्मान आदर और प्रेम जैसे शब्द भी अब किताबी लगने लगे है। वासना से बचने के लिए पहने जाने बाले शालीन वस्त्र अब गायब हो गए हैं।कपडे इतने छोटे हो गए हैं कि उन्हें देखकर उस आदि मानव की याद आ जाती है जो अपने कमर के नीचे का हिस्सा केवल कुछ पत्तो से ढके रहता है।मानव अब एक दूसरे से वही व्यवहार करता है जो दो अपरिचितों के बीच होता है।
   उपरोक्त तथ्य को अगर आपको जानवरों से तुलना करके देखें तो आप पायेगे कि अन्य जानवरों की तरह अब मनुष्य संवेदनहीन हो रहा है जानवरों की तरह ही मनुष्य को अपने माता पिता और बच्चों की परवाह नहीं है और वह जानवरों की तरह ही किसी के साथ रहकर गुजर वसर के नियम को अपनाने में ख़ुशी महसूस कर रहा है। मनुष्य अब शादी ,परिवार, सम्बन्ध, और समाज के हर बंधन को तोड़कर एक स्वछन्द प्राणी की तरह जीना चाहता है । इसका अर्थ यह है कि हम पुनः वही पहुँच रहे हैं जहाँ से मानव सभ्यता का उत्थान प्रारम्भ हुआ था
बड़ी तेज़ी से बदलती सभ्यता चिंता का विषय है अगर सभ्यता में परिवर्तन की यही रफ़्तार रही तो कुछ दशकों में मनुष्य एक जानवर की तरह विचरण करता नजर आएगा ऐसे मनुष्य का ना कोई सगा होगा ना कोई संबंधी। उसके तन पर नाम मात्र के वस्त्र होंगे । शादियां बंद होकर लोग किसी के भी साथ रहने को स्वतंत्र होंगे। जीवन का एक मात्र उद्देश्य स्वसुख होगा

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