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हिंदुस्तान में सरकार की लड़ाई मतदाता की इच्छा पर निर्भर करती है और यहाँ चुनाव बड़े रोचक होते हैं ।पर अगर सही आंकलन किया जाये तो भारत में चुनाव एक औपचारिकता मात्र होते है और चुनाव से पहले यह लगभग तय होता है कि सरकार किसकी बननी है।
लगभग 5 दशक से भारतीय वोटर को बेबकूफ बनाने का सिलसिला जारी है पर 5 दशक बाद भी चुनाव में वोटर उतना ही खुश होता है जितना आजादी मिलने के समय हुआ होगा। इस देश में चुनाव लड़े जरूर विकास के नाम पर जाते हैं पर जीते जाते है जाति के नाम पर।
वास्तव में अगर आप किसी पार्टी की विचारधारा पर जातीय नजरिये से गौर करें तो आपको स्तिथि कुछ ज्यादा अच्छे से समझ में आएगी। मुलायम सिंह यादव और लालू यादव पिछड़ों के बड़े नेता हैं इसलिए पिछडो के वोट के हक़दार हैं वही भाजपा पर अगड़ो की पार्टी होने का थप्पा लगा है इसलिए अगड़ी जातियों के वोट उन्हें बिना मांगे मिल जाते हैं। अगर आप उत्तर प्रदेश में 2014 के लोकसभा के परिणाम पर नजर डालें तो पूरे उत्तर प्रदेश में मोदी लहर के चलते सभी सीट भाजपा जीत गयी ऐसे प्रत्याशी भी जीते जिन्हें जनता जानती तक नहीं थी। अब आप इसे मोदी मैजिक और अमित शाह का प्रबंधन मानेंगे पर वास्तव में ना तो यह मोदी मैजिक था और ना ही अमित शाह प्रबंधन। यह तो उत्तर प्रदेश में पिछड़ों का असंतोष था जो उन्होंने वोट के रूप में दर्ज़ कराया।
लोकसभा चुनाव 2014 से पहले उत्तर प्रदेश में केवल 2 पार्टियां ही अस्तित्व में थीं। समाजवादी पार्टी को पिछड़ों का वोट मिलता था और मायावती जी को दलितों का। दोनों पार्टियों का यह वोट उनका कैडर वोट माना जाता है और इसमें जुड़ने बाले मुस्लिम और सवर्ण वोट एक दूसरे का विपरीत वोट है पर जब भी यह वोट किसी पार्टी पर मेहरवान होता है तो वह पार्टी सत्ता में आ जाती है। मुलायम सिंह जी के यादव मुस्लिम फैक्टर और प्रेम के कारण शेष पिछड़ा वर्ग असंतुष्ट था पर 2014 से पहले भाजपा और कांग्रेस की कमजोर स्तिथि के कारण यह वोट समाजवादी पार्टी और बसपा में ही बटना तय था। अगड़ा और मुस्लिम वोट हमेशा चुनाव रुझान के साथ ही जाता रहा। मोदी जी को प्रधानमंत्री पद का दावेदार घोषित करते ही भाजपा से अगड़ो की पार्टी होने का कलंक हट गया और उत्तर प्रदेश में यादव को छोड़कर अन्य असंतुष्ट पिछड़ा वोट भाजपा में चला गया और भाजपा ने उत्तर प्रदेश में सभी पार्टियों का सफाया कर दिया।
दिल्ली में भाजपा का रथ रोकने में केजरीवाल की ईमानदार छवि की आड़ में कांग्रेस ने चुनाव लड़ा यहाँ अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ती कांग्रेस ने अपना पूरा वोट गुपचुप तरीके से आम आदमी पार्टी को शिफ्ट कर दिया जिससे भाजपा अपना वोट बढ़ाने के बाबजूद 1 सीट पर ही सिमट गयी। कुछ यही हाल विहार में देखने को मिला भाजपा के साथ लंबे समय तक सत्ता सुख भोगने बाले नितीश कुमार असंतुष्ट होकर घुर विरोधी लालू के साथ चले गए। यहाँ भी आंकड़े चौकाने बाले हैं सबसे ज्यादा 24.4 प्रतिशत वोट हासिल करने बाली भाजपा 53 सीट पर सिमट गयी वही मात्र 6.7 प्रतिशत वोट हांसिल करने वाली कांग्रेस 27 सीट जीत गयी यहाँ भी सारा मामला जाति पर आकर टिक गया था और लालू जी, नितीश कुमार और कांग्रेस का परंपरागत वोट अपनी जाति पर ही गया जिससे गठबंधन सत्ता में आ गया।
उत्तर प्रदेश में मायावती की सोशल इंजीनियरिंग जाति गत राजनीति का सबसे शसक्त उदाहरण है मायावती जी का वोटर चुनाव के समय केवल पार्टी देखता है उसे प्रत्याशी और विकास से कोई मतलब नहीं होता है इसलिये यह वोट समूह में गिना जाता है जहाँ यह वोट चुनाव जीतने की स्तिथि में नहीं होता है वहाँ दूसरी विरादरी को टिकट देकर जीत सुनिश्चित की जाती है माया जी का यह फार्मूला लंबे समय तक उत्तर प्रदेश की राजनीति में सत्ता पाने का सबसे सफल फ़ॉर्मूला रहा है। 2014 में मोदी जी का पिछड़ा वनाम मायावती जी का दलित फैक्टर में अगड़ा वोट मायावती जी की बजाय मोदी के साथ हो गया।
उत्तर प्रदेश और विहार जैसे राज्यों में कोई भी चुनाव कभी भी विकास के नाम पर नहीं जीता गया। अगर आप देश में कुछ शिक्षित राज्यों को छोड़ दें तो अधिकांश राज्यों में चुनाव जाति पर ही निर्भर रहते हैं। राजनैतिक पार्टिया मुख्यमंत्री पद के चेहरे से लेकर बूथ लेवल की कमेटी तक जाति समीकरण का ध्यान रखती हैं और जब अगड़ा -पिछड़ा , पिछड़ा -मुस्लिम , दलित- अगड़ा , दलित- मुस्लिम -अगड़ा आदि समीकरण मजबूत हो जाते है तो पार्टी सत्ता पर काविज हो जाती है।
भारत में ही नहीं ,जाति पूरी दुनियाँ में अटल सत्य है भारत में आर्य और द्रविड़ दोनों को अलग अलग देखने का नजरिया वर्तमान जाति व्यवस्था से मिलता जुलता उदाहरण है इसी तरह दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद को भी जातिगत रूप में देखा जा सकता है अमेरिका में श्वेत और अश्वेत की लड़ाई को भी तत्कालीन जाति व्यवस्था का उदाहरण मान सकते हैं जो अभी तक वहां की राजनीति को प्रभावित करती है । धीरे धीरे यह रूप और अधिक विकृत होने लगा और बड़े समुदाय छोटी जातियों में बटने लगे जिसमे भारत में हिन्दू ज्यादा प्रभावित हुआ हालाँकि मुस्लिम में भी जाति व्यवस्था बुरी तरह हावी है पर राजनैतिक रूप से वह मुस्लिम के नाम से ही जाने जाते है। जातियों में राजनेताओं के बढ़ते प्रभाव ने हिंदुओं को कई छोटे छोटे वर्गों में विभाजित कर दिया और प्रत्येक वर्ग के कद्दावर प्रतिनिधि ने उन्हें अन्य जातियों से अलग रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। वर्तमान में दशा यह है कि कई जातियां अपनी उपजातियों में बटकर एक दूसरे से अलग खड़ी नजर आती हैं।
जाति की विचारधारा को सरलतम रूप में हम परिवार की व्यवस्था से समझ सकते है कोई परिवार जब बड़ा होता है तो उसमे सभी पुरुष सदस्य आर्थिक और सामाजिक रूप से एक जैसी प्रगति नहीं कर पाते है परिवार का मुखिया यथा संभव उनके सामान भरण पोषण की कोशिश करता है पर ज्यादा सक्षम पुत्र कम सक्षम भाई के साथ अपनी उपलब्धि और आय को नहीं बाँटना चाहता हैं और परिवार में विद्रोह हो जाता है जिसकी अंत परिवार के बटबारे पर होता है है। लगभग यही प्रक्रिया प्रत्येक धर्म में होती है कमजोर वर्ग के साथ मजबूत वर्ग नहीं रहना चाहता है जिससे धर्म में जाति धारणा को जन्म और मजबूती मिलती है और इन जातियों के अगुआ समाज में हक़ की लड़ाई के नाम पर खाई बढ़ाने में सहायता करते हैं। यह एक प्राकृतिक प्रक्रिया है जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है।
जातियों की प्रतिस्पर्धा में विकास एक प्रमुख घटक है कमजोर वर्ग मजबूत वर्ग के बराबर आने के लिए अलग से अधिकार और प्रतिनिधित्व चाहते हैं वह अपना अलग बजूद रखना पसंद करते है इसलिए सरकार में अपनी हिस्सेदारी चाहते है । वही मजबूत वर्ग सदैव सत्ता में रहकर कमजोर वर्ग को बंचित करना चाहते हैं। इन वर्गों के प्रतिनधि भी अपने वर्ग और जाति को सरकार में आने पर विशेष सुविधा का बादा करते है यही से देश की राजनीति विकास वनाम जाति में परिवर्तित हो जाति है और प्रत्येक चुनाव में मतदाता समग्र विकास को नजरअंदाज कर व्यक्तिगत और जाति विकास को अपने एजेंडे में सर्वोपरि कर लेता है और हर बार चुनाव अंततः जातिगत समीकरण पर ही अपने निर्णय प्रस्तुत करते हैं।
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