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पत्रकारिता को लोकतंत्र का चोथा स्तम्भ माना गया है I भारत को आजाद कराने में यहां की पत्रकारिता की अहम भूमिका रही है। पर समय के साथ प्राथमिकताएं बदल गईं और पत्रकारिता के क्षेत्र में गिरावट आई है । आजकल खबर को मसाले के रूप में सनसनी फ़ैलाने के लिए प्रस्तुत किया जाता है I आजकल पत्रकार खबरों की बजाय उसमे धर्म और जाति ढूंढने में लग जाते है I पत्रकारिता जनता के हितों का पोषण करने के बजाए कहीं न कहीं जनहित को नुकसान पहुँचा रही है। सनसनी के लिए सामान्य अपराधिक घटना को दंगे का नाम देना एक आम बात हो गयी है I
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अभी फरीदाबाद की घटना को लीजिये I सभी प्रमुख समाचारों में लिखा गया “सर्वणों द्वारा दलित बच्चो की जलाकर हत्या” I हत्या तो हत्या है और इसकी निंदा की जानी चाहिए और अपराधी को कड़े से कड़ा दंड देना चाहिए I लेकिन ये तो आज की पत्रकारिता है जो इन अपराधों मे भी या यूँ कहें कि लाशों पर भी टीआरपी का गेम खेलती है I आजाद भारत में जबकि जातिगत भेदभाव नहीं होना चाहिए यह और बढ़ता ही जा रहा है I हिन्दू, मुस्लिम, अगली, पिछड़ी, दलित, महादलित का खेल जब राजनितिक पार्टियाँ खुद खेल रही हैं तो पत्रकार कैसे पीछे रह सकते है I
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हरियाणा का रहने वाला होने की वजह से इस मामले में सच्चाई जानने की कौशिश की I भूतकाल में भी हरियाणा वासियों पर तालिबानी मानसिकता का आरोप लगाया जाता है I इसका प्रमुख कारण है इसकी दिल्ली के पास होना I क्योंकि ज्यादातर प्रमुख मीडिया ऑफिस दिल्ली में है तो पत्रकारों को समाचार के लिए ज्यादा दूर नहीं जाना पड़ता तो हरियाणा और पश्चिम उत्तरप्रदेश की ख़बरों को मसाला लगाकर दिखाया जाता है I वैसे भी कहा जाता है “जो दिखता है वोही बिकता है”I
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असल में ये मामला दो परिवारों के बीच आपसी रंजिश का मामला है जो वर्षो से चल रहा है, इसमें भला जाति-पाति और ऊँच-नीच की बात कहाँ से आ गयी ? इस मामले में कुछ विरोधावासी प्रतिकिर्याएँ मिली है वो इस प्रकार है I
1. जिस दलित परिवार की बात चल रही है उसी परिवार का एक सदस्य गाँव का मुखिया (सरपंच) है I क्योंकि मुखिया की पहचान सभी सरकारी अफसरों एवं नेताओ से होती है तो उससे बड़ा दबंग गाँव में कोई नहीं होता I
2. ये वहीँ दलित परिवार है जिसने पिछले साल तथाकथित दबंगों के परिवार के तीन आदमियों की हत्या की थी I
3. अगर व्यक्तिविशेष को मारने की साजिश हो और वो ही बच जाएँ और वो भी तथाकथित दबंगों से, ये बात कुछ सोचने पर मजबूर करती है I
4. जब चारो लोग एक ही जगह पर सोये थे तो परिवार के मुखियां का सिर्फ हाथ जला और किसी अंग मे मरहम पट्टी तक नही दिख रही I कहीं ये पारिवारिक झगडा तो नहीं जिसमे अपराधी को बचाने के लिए इसका ठीकरा पुरानी दुश्मनी पर फोड़ा जा रहा है I
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सच्चाई कुछ भी हो जांच पूर्ण होने के बाद सबके सामने आ जाएगी जिसको मीडिया में शायद ही जगह मिले I लेकिन एक बात तो स्पष्ट ये है कि ये जातिगत लड़ाई न होकर व्यक्तिगत लड़ाई है I जिस प्रकार मीडिया ने सनसनी फ़ैलाने के लिए व्यक्तिगत रंजिश को जातिगत दिखाने में कोई कमी नहीं छोड़ी उसे देखकर बहुत दुःख होता है I पूरी सच्चाई को जाने बिना एक पक्ष को दोषी होने का निर्णय सुना देना कहाँ तक उचित है I
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अब तो शौक बन गया हर झगड़े को ऊंची जाति पर थोपने का। हिंदु का झगड़ा तो ऊंची जाति जिम्मेदार। हिंदु मुस्लिम मे तो खैर हिंदु को बदनाम होना ही है। ये सब तुष्टिकरण है और शायद इसी तुष्टिकरण की वजह से आजादी के इतने सालों बाद भी देश जाति धर्म की समस्या से जूझ रहा है । हम कहाँ जा रहे है ………………. हर गुंडागर्दी के मामले में केवल तथाकथित दबंगो को दोषी ठहराना कहाँ तक उचित है अधिक भावनात्मक होने से बचाना चाहिए I
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घटना को मसाले के रूप में प्रस्तुत किया जाना भी इस बात को प्रमाणित करता है कि केवल TRP के लिए सत्य को सामने लाने की प्राथमिकता से मुंह मोड़ा जा रहा है। लगता है कि घटना से जुड़े तथ्यों की प्रस्तुति में निजी हितों को ध्यान में रखा जाता है ।
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पत्रकार को सबसे पहले जनता के प्रति निष्ठावान होना चाहिए। इस कसौटी पर देखा जाए तो अपने यहां की पत्रकारिता में भी जनता के प्रति निष्ठा का घोर अभाव दिखता है। अभी के दौर में एक पत्रकार को किसी मीडिया संस्थान में कदम रखते हुए यह समझाया जाता है कि आप किसी मिशन भावना के साथ काम नहीं कर सकते हैं और आप एक नौकरी कर रहे हैं । वास्तविकता यही है कि नौकर को मालिक के लाभ को ध्यान में रखकर ही काम करना पड़ता है इसीलिए देश और समाज हित पीछे छुट जाता है I
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अवधेश राणा
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