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दिल्ली का अधुरा जनमत : अग्नि परीक्षा के संकेत

Oral Bites & Moral Heights
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अभिजीत सिन्हा

कहते है सबसे धूर्त होता है -नेता, जो मीठी-मीठी बातों में मुस्कुराकर, हाँथ-पांव जोड़ कर वोट तो ले लेता है। लेकिन उसके बाद ऐसा गायब होता है जैसे- गधे के सर से सिंग। मिलने जाओ तो अति-व्यस्त, यहाँ-वहां दौड़ता दिखाई देता है अपने चमचों और अंगरक्षकों के साथ, कभी-कभी तो दिखाई भी नहीं देता। दुबारा दिखाई देता है तो अगले चुनाव में। हाल फ़िलहाल की बात है जब ऐसे ही कुछ नेता जो पिछले 12-15 सालो से गायब थें। दिल्ली चुनावों में वोट मांगते दिखें। तो उन्हें पकड़ लिया एक आदमी ने सवालों और आरोपों की झड़ी लगा दी। नेता पहले मुस्कुराते रहे फिर एक खीजकर बोला गली मुहल्लों में नेतागिरी कर के क्या होगा हमसे मुकाबला करना है तो चुनाव लड़ के दिखाओ। आदमी ने चुनौती स्वीकार कर ली और खड़ा हो गया चुनाव में लेकिन वहां तो कई गंभीर रूप से राजनैतिक लोग पहले से ही प्रतिद्वंदी थें। हो भी क्यों ना सवा सौ करोड़ लोगो की राजधानी जो ठहरी दिल्ली और उसका विधानसभा चुनाव।

      लेकिन दिल्ली की जनता ने चाल चल दी। विधानसभा चुनावों में वोट का ऐसा चौरस बिछाया की सरकार बनाना पार्टियों के लिए अग्नि-परीक्षा बन गई। भाजपा को सबसे ज्यादा सीटें दी लेकिन किसी भी पार्टी को स्पष्ट बहुमत नहीं दिया। सत्ताधारी दल कांग्रेस को हाशिये पर खड़ा कर दिया और नूतन नेताओं को प्रियतम और निकृष्टतम के केंद्र में रख दिया। सबसे बड़े दल हो कर भी भाजपा के पास सरकार बनाने के लिए दो रास्ते थें -नकारे हुए और लगभग हारे हुए विरोधी (कांग्रेस) से हाथ मिलाये। या चुनावी कहा सुनी भुला कर नवीन राजनीति के नव-निर्माताओं से। नकारो को तो भाजपा की पुश्तैनी कटुता ने नकार दिया लेकिन अपेक्षाकृत सुन्दर और साफ़ छवि के नेताओ ने शर्त रख दी की वो समर्थन देंगे नहीं। बल्कि मुद्दों पर समर्थन ले कर सरकार बनायेंगे। जिसको जनता की पड़ी हो बहार से समर्थन दे – सरकार हम बना लेंगे और चला लेंगे।

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      भाजपा ने दूरदर्शिता दिखाई सोचा काम उतना ही करो जितने वोट मिलें हो. जनता ने अल्प-बहुमत पर ला-कर लटका दिया है तो ठीक है। जिसको ज्यादा पड़ी है – बनाये सरकार। जनता को मनाने, समझाने के मौके और मिलेंगे। फ़िलहाल विपक्ष में बैठ कर एक नौसिखिये को पुरस्कार और एक पुराने खिलाडी की हार में ऊँगली करते है। कांग्रेस ने अति संदिघ्ध संकेत दिए और नया –खिलाडी फंस गया। क्योकि वो अकेला था जिसने उसे समझा या यूँ कहें की उसे लगा की शायद समझा है। अरविन्द चले बिना बहुमत के सरकार बनाने जिसका गिरना पहले से तय था। इसलिए चुनाव में एक दुसरे पर कीचड उछालने वाले नेताओं ने 2 हफ्ते तक जिम्मेदारियों को उछालने का कार्यक्रम चलाया। फिर जैसे ही सरकार बनाने के संकेत दिए भाजपा फिर उछल पड़ी। ये तो न समझ सकी की अरविन्द ने कांग्रेस का या जनता का कौन सा गुप्त संकेत समझ लिया है लेकिन सरकार बनने के आसार पे जब उसे दो विरोधी मिलते दिखे तो पुराना चुनावी हथियार याद आया- ‘आप’ कांग्रेस की B-Team; जिसके ठोस सबुत मिले न मिले ये ठोस कदम देख कर जनता जरुर मान जाती क्योकि नवीन राजनीति के नव-निर्माता चुनाव में गला फाड़ कर चिल्लाये थे की परिवर्तन लायेंगे अल्पमत में पुनः चुनाव कराएँगे लेकिन राजनीति नहीं दुहराएंगे।

      अबतक मेरे जैसे राजनैतिक मूर्खों को भी ये अटपटा लगने लगा था की बिना स्पष्ट बहुमत के सरकार बने। तठस्थ विद्वानों से राय ली तो पता चला की ‘आप’ कि बड़ी धुम है- बड़ा नाम है, बड़ी इज्जत है। अगर सरकार बनी तो ये तीनो चली जायेगी और सरकार भी चले ना चले? लेकिन दोबारा चुनाव उए तो बहुमत में आएगी क्योकि आम आदमी के भोलेपन का बोझ उठा सकने वाली ये पहली पार्टी थी। जिसे हर दबंग राजनेता सडक पर चलती अकेली लड़की समझ कर छेड़ तो देता था। लेकिन उसके बाद वो जो उठा-पटक मचाती थी देख कर जनता भी साथ हो लेती थी। मोहल्ले के लगभग हर मनचले की लगभग एक आध बार धुलाई करा चुकी थी। आज कल मनचले दुआ मांगने लगे थे की कब इसकी शादी होगी और कब बला टलेगी?

      ऐसे में बिना स्पष्ट बहुमत के ‘आप’ का सरकार बनाने का फैसला ऐसा था जैसे लड़की ने खुद ऐलान कर दिया हो की जो लड़के उसे देखने आये थे दिल ही दिल में पसंद तो करते है लेकिन अबतक उसे पत्नी के रूप में स्वीकार करने की हिम्मत नहीं कर पाए। इसलिए वो अगले हफ्ते दुल्हन का लिबास पहनेगी और मंदिर जा कर अपने अघोषित दुल्हे का इंतजार करेगी। ऐसे में पार्टी के अंदर बहार कई मनचलों ने अफवाहे उड़ाई की वो मेरी दुल्हन है। बीजेपी ने अघोषित सांठ-गांठ पर निशाना साधा और इसे खुद को दिल्ली की सत्ता से दूर रखने का अजेंडा बताने लगी। आप ने दोबारा चुनाव तक इंतजार का धीरज खोया और लडको के सामने पारम्परिक परेड करने की जगह अघोषित दुल्हे की आस पर मुझ जैसों के सुझावों और चेतावनियों को ठुकराते हुए राजनीति में आधुनिकता का परिचय दिया। कई मूर्खो के साथ मैंने भी अपना व्यावसायिक दायित्व निभा कर लेखन की ओर किनारा कर लिया। दिल्ली में सरकार तो बनी लेकिन गले में हड्डी और विधानसभा में कबड्डी जारी रही साथ ही केंद्र की ललिता पवार और नई बहु केजरीवाल में संघर्ष भी जारी रहा।

        लेकिन जल्द ही अघोषित दुल्हे की स्वघोषित दुल्हन को लगने लगा की वो अपने छोटे से घर को कुरीतियों और कुसंस्कारों से निज़ात नहीं दिला पा रही है। क्योकि उसके अघोषित दुल्हे जो कभी मनचले थे ठीक से अपनी जिम्मेदारियां नहीं निभा रहे है। और मन ही मन फैसला कर लिया की पहले वो अपने ससुराल के पुरे खानदान और समाज की आदर्श बहु बनकर दिखाएगी, तभी अपने घर वापस आएगी। ऐसे हालत में ‘आप’ का लोकसभा चुनावों के लिए जाना कुछ ऐसा ही था। हालाँकि स्वम् को जिम्मेदारी से मुह मोड़ने के कलंक से बचाने के लिए उस से बड़ी जिम्मेदारी निभाने का जो तर्क उसने दिया वो यही था की पुरखों से ले कर पुर्जों तक जबतक पूरा खानदान नहीं सुधरेगा एक परिवार को सुधार कर वो क्या करेगी? और जब सब बदलेगा तो ये भी बदलेगा क्योकि परिवर्तन ही उसका लक्ष्य है।

        अब आप और आपकी पत्नी दोनों अलग-अलग इस तर्क का मूल्यांकन करें और कल जो मिश्रित फल प्राप्त होता है उसे कमेन्ट के रूप में नीचे लिख दे। क्योकि आम आदमी के साथ आम औरत की राय भी बराबर महत्व की रखती है दिल्ली में।

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        इस रचना का किसी भी जीवित अथवा मृत व्यक्ति से कोई सम्बन्ध नहीं है। नाम, स्थान, भाव-भंगिमा अथवा चारित्रिक समानताये एक संयोग भर है। राजनैतिक और हास्य व्ययंग का उद्देश्य मनोरंजन और विनोद है। किसी भी राजनैतिक दल, समूह, जाति, व्यक्ति अथवा वर्ग का उपहास करना नहीं। यदि इस लेख से किसी की धार्मिक, सामाजिक, राजनैतिक या व्यक्तिगत भावनाओ को ठेस पहुँचती है तो लेखक को इस गैर-इरादतन नुकसान का अफ़सोस है।
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