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व्रत वैकल्य और पुरुष

अपनेराम की डायरी
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२८ अगस्त को भाद्रपद महीने के शुक्ल पक्ष की तृतीया है, और हर महाराष्ट्रियन घर में हरतालिका व्रत की धूम है| उपवास के तरह तरह के व्यंजनों का स्वाद लेने के लिए तैयार हो जाईये क्यूंकि स्त्री निर्जला व्रत रखेगी और पुरुष निर्लज्ज व्रत ले कर उसे आज भी नित नई फरमाईशों से त्रस्त कर छोड़ेगा| तू खाए या ना खाए, मेरी हर तरह की भूख का ख्याल रख नहीं तो अगले जन्म का वादा मैं नहीं करता|

हरतालिका व्रत महिलाओं के लिए विशेष महत्व रखता है, आज सभी विवाहित/अविवाहित महिलाएं और लडकियां अपने मनपसंद वर को पाने के लिए या पाए हुए वर को सात जन्मो तक पाते रहने के लिए ये व्रत रखती हैं| पार्वती ने पिता की आज्ञा की अवहेलना करते हुए,विष्णु से विवाह ना कर, शिव को पाने के लिए कठोर तपस्या की और अंततः उन्हें पाया, इसी घटना को महिमामंडित करने के लिए हरतालिका गौरी का व्रत रखने का चलन है| आज ये व्रत वैकल्य एक दिखावा ही रह गए हैं| जिस समाज में नारी को सिर्फ भोग्या ही माना जाता है, वहां नारी क्यूँ ये व्रत रखे? क्या इन पुरुषों में कोई शिव है जो इस समाज का सारा विष पी सके और नारी को इस अनंत यातना से छुटकारा दिला सके? यदि वो शिव ही नहीं तो फिर पार्वती बनने की क्या जरूरत?

हमारे समाज में कितनी पार्वतियों को उनका शिव मिला है, ये बड़ा यक्ष प्रश्न है, अधिकतर पार्वतियाँ, विष्णु के साथ ही निभाती दीखती हैं| साल के ३०० दिन विष्णु, पार्वती से और पार्वती विष्णु से खटपट करते हुए जीवन बिताते हैं और ऐसे किसी एक दिन, हरतालिका, करवा चौथ आदि के दिन, पार्वतियाँ मनोभाव से उसी अनचाहे विष्णु के साथ, सात जन्मों की गांठ बांधने को तत्पर दीखती हैं| आज की पीढ़ी में तो हर पार्वती अपने अपने शिव को ही वरती है| आज की नारी, उस पुरातन पार्वती की प्रतिमूर्ति ही है| एक ही अंतर दिखता है, उस पार्वती ने यदि शिव को वरा तो उसके सारे गुण दोषों सहित वरा, कभी उसके वैराग्य , उसके क्रोध या उसके मनमौजी स्वभाव से उकताई नहीं| कभी शिव की दरिद्रता की, अपने पिता या विष्णु की सम्पन्नता से तुलना नहीं की| वह पार्वती उस शिव के साथ किसी भी हाल में खुश थी| आज की पार्वतियों का कहना मुश्किल है पर फिर आज शिव भी तो नहीं हैं|

सवाल यह है की सिर्फ नारी ने ही पुरुष के लिए ये त्याग आदि करने की परम्परा क्यूँ है हमारे समाज में| ये आदि काल से नारी पर सारे बोझ डालने की आदत देवताओं से ही प्रारंभ हुई है| सीता की अग्नि परीक्षा हो, द्रौपदी का चीर हरण हो या, दमयंती का इंद्र के द्वारा छल हो, हमेशा नारी ही क्यूँ पिसती है कसौटी की चक्की में? मुझे याद नहीं की पुरुष को कभी इन परीक्षाओं से गुजरना पड़ा हो| ना पुरातन काल में ना आज ही, पुरुष हमेशा ही बंधनों से मुक्त रहा है| सारे बंधन, सारी मर्यादा नारी के ही हिस्से में आई है, फिर भी मर्यादा पुरुषोत्तम सिर्फ राम ही हैं, क्या विडम्बना है|

पिछले कुछ सालों से ये यक्ष प्रश्न मेरे मन मस्तिष्क में हलचल मचाये हुए था और इसका सीधा सरल उपाय मैंने खोज लिया| अब जब भी मेरी पत्नी मेरे लिए कोई व्रत वैकल्य आदि करेगी मैं उसके व्रत में सहभागी रहूँगा| आखिर मैंने प्रेमविवाह किया है, यदि मैं उसका शिव था, हूँ, रहूँगा तो वो भी मेरा शिव था, है और रहेगी| सही मायनों में तो वही शिव है क्यूंकि मेरे जीवन का गरल उसने पिया है, प्रेम की गंगा वो धारण करती है, चन्द्रमा की शीतलता से मेरे उष्ण और रूखे जीवन में ठंडक और स्निग्धता वो लाती है, मैं तो उसके गले में लिपटा नाग हूँ जो हमेशा फुंफकारता रहता है,विचलित होने पर काट भी लेता है| मेरी समझ से तो उसने नहीं, मैंने ही करने चाहिए ये व्रत वैकल्य उसको हर जन्म में पाने के लिए| ये कथा कई घरों के लिए सत्य हो सकती है और इसी लिए हम पुरुषों ने अपनी अपनी ही सही, पर नारियों को इन परीक्षाओं से मुक्ति देनी चाहिए, और यदि नहीं तो कम से कम इन परीक्षाओं में उनके साथ ही प्रतिभागी होना चाहिए| मैंने तो प्रारंभ कर दिया है अब आपकी बारी…….

हमारे महाराष्ट्र में ऐसे सभी मौकों पर पत्नियाँ पति का नाम कविता रूप में लेती हैं जिन्हें “उखाणा” कहते है| इस हरतालिका के मौके पर मैं “उखाणा” लेता हूँ अपनी पत्नी के नाम का …..

“पी कर मेरे जीवन का सब हलाहल, प्रेम की गंगा वो बहाती है छलछल,
वो शिव है मेरा मैं उसकी सारिका, नाम “वर्षा” का लेता हूँ, रख के व्रत हरतालिका||”

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