- 180 Posts
- 877 Comments
. . अति का भला न बोलना, अति का भला न चुप. अति का भला न बरसना, अति का भला न धुप. अति को सभी जगह वर्जित किया गया है. ज्यादा अमृत भी खा लेने से जहर बन जाता है. समाज सुचारू रूप से चले इसके लिए समाज ने बनाया है, या समाज में जरुरत के अनुसार स्वत: ही कुछ नियम कायदे बन जाते हैं, जिसकी समाज को जरुरत होती है. समाज में जरुरत के अनुरूप बदलाव भी होता है.किसी कड़ी को कमजोर होने से समाज कमजोर होने लगता है. आज समाज में नशा खोरी, बलात्कार तथा अन्य अनैतिक कार्यों के पीछे का कारन है कि बड़े-छोटे में अंतर मिटाता जा रहा है. नौजवान, बुजुर्गों का महत्व नहीं दे रहे हैं और बुजुर्ग छोटों पर नियंत्रण नहीं रख रहे हैं.
. . सृष्टि के क्रम में वासना का कोई स्थान नहीं है. मानव जीवन का मूल उद्देश्य क्या है, इस पर गौर करना होगा. सीमा पर प्रहरी देश की रक्षा के मूल उदेश्य को याद नहीं रखेंगे तो देश को हानी हो जाएगी, भले ही उस प्रहरी का व्यक्तिगत जीवन चाहे जितना आनंदित हो जाय. संयुक्त परिवार भारत में लगभग ख़त्म हो चूका है, पर जब तक संयुक्त परिवार रहा, भारतीय समाज में तलाक की घटनाएँ नहीं के बराबर थी. भोग के लिए मानव जीवन नहीं है, ऐसा विभिन धर्म के मनीषियों ने कहा है. जीवन का उदेश्य, मानव कल्याण सर्वोपरि है. मनुष्य सामाजिक प्राणी है, ये मानव का शौक नहीं मज़बूरी है. ये दुर्भाग्य की बात है कि हम भोग के लिए विचार कर रहे हैं. भोग के लिए सिद्धार्थ के पास अथाह धन-सम्पदा था. पर सिद्धार्थ ने गौतम बुद्ध, बन कर भोग का त्याग किया. लेकिन बुद्ध का त्याग का सन्देश युवाओं तक नहीं पंहुचा ऐसा लगता है.
. . व्यक्ति का एक सामाजिक जीवन होता है, और एक व्यक्तिगत जीवन. व्यक्तिगत जीवन की बातें व्यक्ति खुद हल कर लेता है. बंद कमरे में पति-पत्नी का जो रिश्ता होता है, वह मर्यादित होता है, पर वही रूप खुले सड़क पर भीड़ भरी बाज़ार में अमर्यादित और अशोभनीय हो जाता है. भोग के लिए जीवन का उदेश्य नहीं है, पर भोग भी जीवन में हो ही जाता है. भोग जयादा से ज्यादा कैसे हो यह चिंतन का विषय नहीं है. नयापन की चाह मानव मन की मौलिकता है. ऐसे में अगर नित-निरंतर व्यक्ति अपने निजी जिंदगी में कुछ करता है और उससे किसी को हानी नहीं होती है तो इस पर समाज को चिंतन करने की जरुरत नहीं है.
. . हम अपने युवा पीढ़ी का दमन नहीं कर रहे हैं. चूकि हर युवा पीढ़ी समझती है की उसे जीतनी आजादी चाहिए उतना नहीं मिल रहा है, उम्र के पड़ाव पर जा कर वह पीछे मुड़ कर देखता है तो उसे ख़ुशी होती है कि उसने समाज के डर से जो भी किया वह सुखद है. भारतीय समाज को रूढीवादी नहीं कहा जा सकता है, क्योकि इतिहास साक्षी है की इस समाज ने समय समय पर क्रन्तिकारी बदलाव किया है. सती प्रथा का ख़त्म होना बाल विवाह ख़त्म होना,विधवाओं के प्रति नजरिया में बदलाव, लड़का, लड़की में भेद-भाव जैसी कुरीतियों पर भारतीय समाज का नजरिया बदला है.
. . अपनी मर्यादा को भूल कर हम पश्चिमी सभ्यता के नक़ल को अगर प्रगति कहते हैं तो ये हमारी भूल है. अनाड़ी लोगों को जानना चाहिए की पश्चिम हमारा नक़ल कर रहा है. किसी ज़माने में सूती कपडे को हिन् भाव से देखा जाता था, पर आज हमारे सूती वस्त्र को विदेशी लोग भी ललचाई नजर से देखते है. हमारी सभ्यता हमारी संस्कृति को पश्चिमी लोग पाना चाहते हैं, पर उनकी जड़ें हमारी तरह नहीं जमी हैं. हमारी संस्कृति के लायक उनके पास पृष्ठभूमि नहीं हैं. हमें अपने गौरवशाली परंपरा पर नाज़ होना चाहिए, न कि पछतावा.विकृति की स्विकृति समाज में नहीं होनी चाहिए. विकृति की वर्जना होनी चाहिए.
Read Comments