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तानाशाह की विदाई हुई संपन्‍न

अविनाश वाचस्‍पति
अविनाश वाचस्‍पति
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गद्दाफी को एक फी (अदद) गद्दा तक न नसीब हुआ, यूं ही मारा गया। खुद तो डूबा, जान के लिए गिड़गिड़ा कर तानाशाही का नाम भी डुबो गया। तानाशाह पर व्‍यंग्‍य लिखने का ठेका नहीं मिला है, हौसला बुलंद इसलिए हो गया है क्‍योंकि तानाशाह की विदाई संपन्‍न हो गई है। जिसका न जीवन व्‍यंग्‍य था और न उसका जाना व्‍यंग्‍य है। आना तो सबका एक सा रोना रहता है। रोने का रंग सबके संग आता है। इसमें तानाशाही व्‍यंग्‍यकार की नहीं, एक तानाशाह की ही चलती है। तानाशाह शब्‍द का आरंभ व्‍यंग्‍य के एक प्राणतत्‍व ताना से ही शुरू हुआ है। लेकिन यह ताना है, बाना नहीं है, इसे आप भी जानते हैं। व्‍यंग्‍य लेखन में हिटलरी चलती है, या यूं कहूं कि व्‍यंग्‍यकारों की कलम मचलती है, उछलती है, कूदती है – कहीं कहीं पर बिसूरती भी है। आपने उसके बिसूरने को बिसरा दिया होगा, यह मुझे पक्‍का मालूम है।

वह अनेक रंग बिखेरती है। अब जो तानाशाह गोली खाकर मर गया, उस पर क्‍या तो व्‍यंग्‍य लिखें और क्‍या ताना मारें। उसके जीते जी उसे व्‍यंग्‍य विषय बनाने और उस पर लिखने की कूबत किसी व्‍यंग्‍यकार की नहीं हुई थी और अब हालत यह है कि सभी उसको कलम से कोंचने में जुट गए हैं। कुछ सीधे कीबोर्ड से ही खटराग की रागनी गा रहे हैं। मैं भी उनमें से एक हूं। तानाशाह पर व्‍यंग्‍य लिखा तो खुदा भी व्‍यंग्‍यकार की मदद नहीं कर सकता, सब जानते हैं। सत्‍ता का यह शाही अंदाज सबको लुभाता है, पर सबका बस नहीं चल पाता है। आप इसमें लिंगदोष मत ढूंढने बैठ जाइये। मान लिया कि बस स्‍त्रीलिंग है पर व्‍यंग्‍य तो स्‍त्रीलिंग है। जी हां, तानाशाह के गांव में आकर सभी पुल्लिंग स्‍त्रीलिंग हो जाते हैं, यह तानाशाही का अनूठा अंदाज है।

लोकसत्‍ता में हर दूसरे दिन कुर्सी पर खतरा मंडराता रहता है क्‍योंकि नेता बन जाते हैं खूब सारे, खुद ही अपने लिए लगाते हैं नारे, अपनी ही मूर्तियां बनवाते हैं, खुद ही उन पर फूल चढ़ाते हैं। इसलिए 5 बरस कुर्सी पर ठहर जाएं तो इतरा जाते हैं। उनका इतराना जायज है। इसी तराने पर मोहित होकर प्रजा कई पांच साला पैकेज गिफ्ट कर देती है।  इसके उलट तानाशाही में सब हथियाया जाता है। तानाशाह विरला ही हो पाता है। तानाशाह के रंग तो कई बरस लगातार बरसात की तरह बरसते रहते हैं। पिछले सप्‍ताह जिसे विदा किया, उसके यहां 42 बरस से लगातार धुंआधार बरसात हो रही थी। तानों की असली बरसात व्‍यंग्‍य में होती है। व्‍यंग्‍य में ही तानों की खेती होती है। यह ऐसी खेती है जो बिना बीजों के की जाती है और खूब फसल देती है, बरसात में भी नहीं डूबती। खेती करना भी प्रत्‍येक के बस का नहीं है। प्रत्‍येक व्‍यंग्‍यकार किसान नहीं हो सकता और न ही प्रत्‍येक व्‍यंग्‍यकार कार चलाने में निपुण होता है। किसान इसलिए कार नहीं चलाता क्‍योंकि फिर वो हल चलाते समय भी गियर तलाशेगा।

व्‍यंग्‍य में जब तक पुलिंग नहीं होगी, तब तक तीखा रंग नहीं निखरेगा। वैसे कुछ ही व्‍यंग्‍य या व्‍यंग्‍य उपन्‍यास होते हैं, जिनका राज बरसों से निरंतर चल रहा है। मानस में महामारी की तरह मचल रहा है। वरना तो अखबारी व्‍यंग्‍य की उम्र तो उसी दिन पूरी हो जाती है वह तो व्‍यंग्‍यकार ही उसे अपने साथ घसीटता रहता है। घिसटना व्‍यंग्‍य को पड़ता है रोजाना। तानाशाह कभी-कभार ही घिसटता है। वह विषय से लिपट उसमें रच बस जाता है लेकिन उसकी हुकूमत कायम नहीं रह पाती, जो तानाशाही में निखरकर दिव्‍य स्‍वरूप पाती है।

तानाशाह न गोली खाता है, न गाली खाता है। इन दोनों मामलों में ही उसका बहुत मुश्किल से खुलता खाता है। गोली सरेआम और गाली, वे ही खिला पाते हैं जो छिप कर देते हैं। सामने आकर गाली खिलाने का किसी में दम नहीं होता। कभी किसी तानाशाह को जूता मारा गया हो, इसकी भी मिसाल नहीं है, वह सीधा गोली खाता है। तानाशाह ताना नहीं मारता, जान लेता है, जान देता है यानी नाता ही तोड़ देता है। न जान रहेगी, न व्‍यंग्‍यकार तनतनाएगा।

माना कि व्‍यंग्‍य लेखन के भी उसूल होते हैं। पर जिंदा तानाशाह पर व्‍यंग्‍य लेखन से जिंदगी भी सलामत रहेगी, इसका भरोसा नहीं किया जा सकता। अब व्‍यंग्‍यकार का जो चालान होना हो, हो जाए। जान रहेगी तो भुगत कर दुख सुख का परिचय प्राप्‍त कर पाएगा। जानेगा कि दुख कैसे फनफनाते हैं। मुझे गोली न मारें, गाली चाहें कितनी दे दें – अब यह छूट भी मिली, समझ लीजै

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