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मूर्तियों की मुंडी बदल डालो

अविनाश वाचस्‍पति
अविनाश वाचस्‍पति
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भ से भालू और भ से भ्रष्‍टाचार ही नहीं होता। भ से भूलना और जिसे आप भूल रहे हैं, वह भगवान भी होता है। मगर आप भरोसा रखिए म से भ्रष्‍टाचार नहीं हो सकता। म से मेहनत होती है, म से माया होती है और म से होती हैं मूर्तियां। क्‍या हुआ जो म से गार्डन नहीं होता। म से म की बनाई गई मूर्तियों को गार्डन में तो स्‍थापित कर लोकार्पण तो किया जा सकता है। माया का मायाजाल सबलोक है इसलिए लोकार्पण करने में नहीं कोई रोक है। लोकार्पित करते समय सद्विचारों का लोकार्पण भी जरूरी हो जाता है। म से मूर्तियों के होने से यह मतलब नहीं निकालना चाहिए कि वह मौन ही रहेंगी। वह मूर्ति हैं और नहीं भी हैं पर मौन नहीं हैं। मौन रहने के लिए राष्‍ट्र में जो एकाधिकार कायम है, वह उस में मूर्ति बनकर खलल डाल चुकी हैं।

खलल वे सपने में भी नहीं चाहती हैं इसलिए उन्‍होंने अपने भरोसे को खंडित नहीं होने दिया और सपने को सच्‍चाई में बदल दिल को गार्डन गार्डन कर दिया। दलित प्रेरणा स्‍थल से प्रेरणा पाकर स्‍थल पाया जा सकता है, मन में यह विश्‍वास रखना बहुत जरूरी है। विश्‍वास खंडित नहीं होना चाहिए तब भी नहीं जब सब आय से अधिक संपत्ति का मामला बन रहा हो, ये सब तो मामूली खुराफातें हैं। आय से अधिक संपत्ति प्राप्‍त करना क्‍या इतना सहज और सरल है, जिसने इसमें सफलता पा ली, वह इन खुराफातों के खुर में काबू आएगा ? आय से अधिक संपत्ति अर्जित करके वे देश की साख बढ़ाने में तल्‍लीन हैं और उनमें से नहीं हैं जो अपनी आय जितनी संपत्ति भी नहीं बना पाते हैं, और उसे भी रोजमर्रा के खाने पीने और ओढ़ने बिछाने में फिजूलखर्च कर देते हैं। इन बुराईयों के कारण ही तो देश का विकास धीमा है। जितना कमाएं, उतना ही बचा लें, ऐसे भी विरले ही होते हैं। सबसे ज्‍यादा तो संख्‍या उन लोगों की है जो कमाने से अधिक उधार लेकर खर्च कर देते हैं, बचत के नाम पर सिंगट्टा। अब यह मत पूछिएगा कि सिंगट्टा क्‍या होता है, आप यह भी नहीं जानते हैं इसलिए बचत भी नहीं कर पाते हैं।

मूर्तियां भी उन करोड़ों-अरबों में से किसी एक की ही बनती हैं, जो चाहे धेला न कमाएं पर बचतियाने में चोटी पर रहें। अफसाने बन जायें, तराने उन्‍हीं के गुनगुनाये जायें, गिनीज बुक के कीर्तिमानों के प्रत्‍येक अध्‍याय में उनका ही जिक्र सबसे भारी नोटों की मालाएं वे ही पहनते हैं, मूर्तियां उनकी कोई और बनायेगा, वे इंतजार नहीं करते और वे भांप कर इस शुभकार्य को खुद ही अंजाम तक पहुंचाते हैं। इसमें भी कीर्तिमान बनाने से नहीं चूकते। आपको इस सच्‍चाई का भी ज्ञान होना चाहिए कि दान देने पर सिर्फ गैर-दलितों का अधिकार नहीं है, दलित भी दान दे सकते हैं और पार्क के लिए प्राप्‍त अथाह दान से यह साबित हो चुका है।

इसे सपनों का पार्क कहने वाले जान लें कि अब यह सपनों का नहीं, असलियत का पार्क है, बोले तो रियल गार्डन। इसमें सच्‍चाई के पंख लगाए गए हैं, जो इसे उड़ा रहे हैं। पर आप इसे वायुयान मत समझ लीजिएगा, ये हवाई बातें भी नहीं हैं। अपनी मूर्ति स्‍वयं बनवाना खूब दिलेरी का परिचायक है। उनकी कामना है कि ऐसा हौसला सबमें विकसित हो। यह हर किसी के बस का नहीं है कि अपने जीते जी अपनी ही मूर्ति पर फूल चढ़ा ले। अगर इन मूर्तियों को किसी ने मेरे बाद भी छेड़ा तो किसी मुगालते में मत रहना। वैसे इतनी हिम्‍मत किसी में नहीं है, इससे मैं अच्‍छे से परिचित हूं।  मेरा मानना है कि दूसरों की जय से पहले अपनी जय विजय खुद कर लेनी चाहिए। सिनेमा में ड्रीम गर्ल पहले से मौजूद है और राजनीति में ड्रीम गर्ल की जरूरत नहीं है इसलिए मैंने ड्रीम पार्क का निर्माण करवाया है, समाज को इसकी बेहद जरूरत थी। पहले हम जिसे आसानी से ऊंचा कर सकते हैं, उसे ही ऊंचा कर लें। विचारों में ऊर्जा और गहनता तो बाद में भी लाई जा सकती है। मूर्तियां जो एक बार बन गईं तो समझ लीजिए कि मौका हाथ से निकल गया। पहले गांधी की मूर्तियों से बड़ी अंबेडकर की मूर्ति और फिर सबसे विशाल अपनी मूर्ति। इसमें संकोच की क्‍या बात है। इससे भी तो विचारों की ऊंचाई ही सामने आती है।

लेखक को जानकारी मिली है कि कुछ पार्टीचालक यह कह रहे हैं कि वे सत्‍ता में आने पर इन मूर्तियों को तुरंत हटवा देंगे, को मेरा सुझाव है कि मूर्तियों के धड़ इस्‍तेमाल में ले लें और उस पर अपनी पसंद की मुंडी फिट करवाये, तरीका यह सुपर-डुपर हिट रहेगा। बहुत कम खर्च में गिन्‍नीज बुक में शामिल होने की डील। वैसे मूर्तियों को मुखौटे पहनाकर भी इस लक्ष्‍य को हासिल किया जा सकता है पर इस तरीके में वो बात नहीं, जो मुंडी बदलने में है।

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