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यह कोई दिवास्वप्न नहीं सच्चाई है कि अगर यह देश गांधीजी के विचारों के अनुसार चलाया गया होता तो भुखमरी, विस्थापन, बेरोजगारी, कुपोषण इत्यादि बुराइयां कभी की लुप्त हो गई होतीं। पर नेताओं और सत्तानशीनों की जो फसल अब लहलहा रही है, वो भी उजड़ गई होती। जिस तेजी से आबादी बढ़ी है उससे कई गुना तीव्र गति से बेरोजगारी बढ़ी है। जब आजादी हासिल की तो भारत में नौ करोड़ लोग बेरोजगार थे, वहीं अब यह आंकड़ा तीस करोड़ के आसपास है।
‘एक सुव्यवस्थित समाज में आजीविका पाना संसार का सबसे आसान काम होना चाहिए और होता भी है।‘ गांधी जी ने यह विचार सन् 1916 में इलाहाबाद में एक कॉलेज में प्रकट किए थे। आजीविका तो दूर की बात है देश की कई बस्तियों में पीने का साफ पानी तक उपलब्ध नहीं हो पा रहा है जिससे कई भयानक जानलेवा बीमारियां पनप रही हैं। भूख से किसानों के मरने और आत्मदाह की लज्जित करने वाली खबरें आ रही हैं। नहीं आ रही है तो सिर्फ इन दुर्घटनाओं से भी लज्जा नहीं आ रही है और यह बेहद शर्मनाक स्थिति है।
साध्य और साधन में सदैव साधन को पवित्र मानने वाले बापूजी ने लिखा है कि ‘हर व्यक्ति को ईमानदारी से परिश्रम किए बिना भोजन करना अपना अपमान समझना चाहिए।‘ जबकि आजकल अधिकांश लोग इसे धर्म समझते हैं। अगर मेहनत करके ही खाया तो क्या खाया और पचाया ? इस प्रवृत्ति के मानने वालों की संख्या बढ़ती जा रही है। जिससे सच्चा विकास संकट में है। सिर्फ चंद मजदूरों और अपवादस्वरूप कुछेक के इस पर अमल करने से कुछ हासिल होने वाला नहीं है। दूसरे के खून की कोई कीमत नहीं और अपना पसीना भी कीमती लगता है, चाहे वो एयरकंडीशन के अभाव में आया हो।
सच्चाई और अहिंसा की पॉवर के असली मायने से कितने परिचित हैं। आज गांव विकास की मुख्यधारा से अलग होकर हाशिये पर जाने के लिए अभिशप्त हैं, किसान भुखमरी की मौत मरा जा रहा है और सत्तानशीनों के माथे पर शिकन तक नहीं। इस दुर्दशा के लिए हम सभी जिम्मेदार हैं। जबकि शेयरों के इंडेक्स में अप्रत्याशित छलांग के साथ भारत आर्थिक गुरु बनने की ओर तेजी से अग्रसर है। इससे कुल कितनों का स्तर बढ़ रहा है या जीवन स्तर संवर रहा है। क्या पांच दस लाख लोगों के खुशहाल होने से भारत में हर दिशा और वर्ग में हरियाली छा जाएगी। जब ऐसा कुछ नहीं होना है तो शेयर सूचकांक बढ़ने अथवा आर्थिक गुरु बनने से गांववासियों और आम हिन्दुस्तानी को क्या लेना देना है ? रोजगार के अवसर बढ़ें, अहिंसा और सच्चाई का बोलबाला हो,आत्मविश्वास, स्वदेशी और अपनी भाषा का स्वाभिमान जागृत हो सके, तब देश की प्रगति को असली प्रगति माना जा सकता है।
यह सब तभी प्राप्त हो सकेगा जब हम बापूजी के आदर्शों को अपने जीवन में स्थान देंगे और यह नहीं सोचेंगे कि सिर्फ एक मेरे ही ऐसा करने से क्या होगा, जब शुरूआत ही नहीं करेंगे तो निरंतर कैसे बढ़ेंगे ? निरंतरता के लिए श्रीगणेश करना जरूरी है। बापूजी की जयंती पर देश के नेता, नायक यदि जागरूक हो सकें, जबकि ऐसा मुमकिन नहीं लगता है, तब ही सच्चा विकास संभव है।
संसद और विधानसभा में चल रही जूतम पैजार से क्या छुटकारा मिल सकता है ? भ्रष्टाचार पर लगाम कसी जा सकती है ? झूठ बोलने से मिलने वाले तात्कालिक फायदों के लालच से छुटकारा पाया जा सकता है ? अहिंसा को अपनाया जा सकता है ? सच्चाई को गले लगाया जा सकता है ? मानसिकता से बदनीयती को दूर किया जा सकता है ? बुराईयों पर जब ऐसा कुछ नहीं होना है तो हम जो कुछ कह सुन, लिख पढ़ रहे हैं, सब ढकोसला है और गांधीजी की जयंती पर एक खानापूर्ति से अधिक कुछ नहीं। इस सत्य को स्वीकारना बेहद जरूरी हो जाता है।
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