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आज भी खरी है भारत की जीत

अविनाश वाचस्‍पति
अविनाश वाचस्‍पति
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विजय कैसी भी हो, विराट विक्‍ट्री की जय होती है। जय होना सब कुछ हो सकता है लेकिन हारना नहीं। विजयी होकर तो हार कर भी हार पहनने में संकोच नहीं होता है। इस विजय के लिए फिक्सिंग कोई मायने नहीं रखती। फिक्सिंग के साथ सबसे बड़ी राहत की बात यह रहती है कि एक तो यह निश्चित तौर पर जिताती ही है। दूसरा होने के कई सालों बाद विवाद जगाती है। तब तक तो जीत का असली वाला आनंद सब हासिल कर चुके होते हैं।  जीत का असली वाला आनंद अपने जीतने में नहीं, सामने वाले के हारने में आता है। सामने वाले को हराने के लिए विभिन्‍न प्रकार के करतब किए-कराए जाते हैं। वैसे इन करतबों में स्‍वयं की भूमिका न तो दिखलाई देती है और न दिखने पर दुखी ही करती है।  असली वाला करतब उसे ही कहा जाता है। तब ही कर, करने वाला करतब सफल माना जाता है जब कर नजर नहीं आता है लेकिन सब कुछ कर गुजरता है।

जीतना पड़ोसी से हो तो रोमांच बढ़ जाता है, पड़ोसिन से तो हारने में ही जीत की खुशी मिलती है। हारने का जोखिम भी कम हो जाता है। जोखिम इस बात का नहीं कि हार लिए बल्कि इस बात के लिए कि हारे भी और फूलों के हार भी खुद ही समेट लिए। माया के पाने से यहां पेट में संतोष नहीं होता है। पेटीय संतोष के लिए सिर्फ पैंट में पेटी धारण करने और उसे जोर अथवा ढीला कसने से स्‍थाई काम नहीं बनता है। पेटी जब कोट के साथ सामंजस्‍य बिठाती है तो आप देखते हैं कि चराचर जगत में खूब उथल-पुथल मच जाती है। आप पेटीकोट से अपरिचित हैं क्‍या, इसे साया भी कहा जाता है, जिस पर इसका साया पड़ता है, वह न तो माया से डरता है और न किसी की काया से। काया से मिलकर माया कुछ यूं भरमाती है कि समस्‍त जगत में फिक्सिंग नजर आती है।

फिक्सिंग हो तो रिस्‍क कम हो जाता है बल्कि इसे रिस्‍क का फिक्‍स होना ही कहा जाएगा। जीत कितनी भी विराट हो, जब तक रोमांच के झूले पर नहीं झूलती-झूलाती, तब तक उसमें से खुशी अच्‍छी तरह से नहीं फूट कर बाहर आती है। इस प्रकार की जीतें भुलाए से भी नहीं भूलतीं, चाहे वह संख्‍या में कितनी ही अधिक हो, लेकिन अगर फूल फूल कर कुप्‍पा होकर जीत न हासिल हो तो पल भर में भुला दी जाती है। फिक्सिंग की जीत पूरी शान से आती हैं। फिक्सिंग की जीत के तो जलवे ही निराले हैं। इस जीत से दोनों पक्ष मतवाले हुए जाते हैं। एक तो सचमुच में जीतने का आभास देते हैं जबकि उनके मन में मैल की जो परत होती है, उसे गर हटाया जा सके तो कितनी आसानी से मालूम हो जाता है कि जीत के इस मतवालेपन में माया की कितनी विराट भूमिका है। अनेक बार जीत यूं ही पा ली जाती है परंतु फिक्सिंग की चमचमाहट से बच नहीं पाती है।

शतक की पताका पूरे विश्‍व में फहराने और बजट की चिल्‍लाहट को खुशी में बदलने का कारनामा कोई इंसान नहीं कर सकता है इसलिए सचिन को भगवान मानने से क्रिकेट भक्‍तों को भय नहीं लगता बल्कि भरोसा जगता है कि सभी परेशानियों, दुश्‍वारियों, कठिनाईयों का एक मात्र भरोसेमंद उपाय क्रिकेट, क्रिकेट का भगवान, क्रिकेट के भक्‍त, फिक्सिंग के जिन्‍न से ऊपर, काफी ऊपर शिखर पर खरे हैं। कहा जा सकता है कि आज भी खरे हैं सचिन। आज भी खरा है क्रिकेट। यह खरखराहट गले को तंग करने वाली खिचखिचाहट नहीं है, तीखी लगने वाली चिल्‍लाहट भी नहीं है। यह मन को सुकून देने वाली जगमगाहट है। इससे संपूर्ण जग रोशन हो उठता है। विराट की विराट जीत यूं ही जश्‍न नहीं बनती है। इसमें भक्‍तों का जज्‍बा और भगवान का भरोसा भारत में तो कारगर है। यह आप कल की ताजा जीत की बेमिसाल मिसाल में इस साल की पहली तिमाही पूरी होने से पहले ही महसूस कर चुके हैं।

अब क्रिकेट नोटों की फिक्सिंग से आगे बढ़कर, खुशियों की फिक्सिंग का नायाब खेल बन गया है और आप एक भगवान से इससे अधिक की क्‍या उम्‍मीद करते हो। वैसे भी यह भगवान आपके घर के नहीं, मन के मंदिर में बसता है। मंदिर की मूर्तियों में नहीं सजता है। इसलिए कई संकटों के काटने के कारण फबता है।  भगवान और कुछ नहीं भरोसा है, जो सचिन में रूपायमान हुआ है। मैं तो बिना फिक्स हुए कह सकता हूं कि आज भी खरे हैं फिक्सिंग के जिन्‍न। वे खरे ही रहेंगे पर उनसे अधिक खरे हैं विजय के अरमान। तू मान न मान, क्रिकेट ही है दुखों का तारणहार। इस हार को गले में पहनना हारना नहीं जीतना होता है और हम तो सचमुच में जीतकर आए हैं, अब तो आप सहमत हैं न मुझसे, आज भी खरी है फिक्सिंग।

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