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नोटों के हार की निराली माया

अविनाश वाचस्‍पति
अविनाश वाचस्‍पति
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नोट सदा से करामाती रहे हैं। ये नोट ही हैं जिनसे करारी मात दी जा सकती है। आज नोट चर्चा में हैं। वैसे शायद ही कोई पल रहा होगा जब नोटों की चर्चा न हो या नोटों की वजह से चर्चा न हो। अकेले बटोर न पाएं, उठाए न जाएं पर पाने की लालसा का कभी शमन नहीं होता है। नोट को माया कहा गया है परंतु अब माया को नोट कहा जाया करेगा।

एक ताजा महारैली में पहले तो नोटों की माला को फूलों की माला साबित करने का प्रयास किया जाता रहा। वो तो मीडिया जागरूक है इसलिए जब क्‍लोज अप और महाजूम करके देखा गया तो जो चेहरे दिखलाई दिए, वे एक हजार के नोट के लालिमा से लहलहा रही थे। वे शक्‍लें पब्लिक को फूल बनाने की जुगत में सक्रिय रहीं। पहनाने वाले और पहनने वाले यही गाते रहे कि माला तो फूलों की हैं। फूल बनाने के लिए माला बनाई गई हैं और सुगंध फैलाने के लिए पहनाई गई हैं।

इनको कागज भी बतलाने का प्रयास किया गया और सत्‍य भी यही है। हजार के नोट क्‍या कागज नहीं होते? नोट क्‍या कागज से नहीं बनते हैं ? भारतवर्ष में अभी नोट कपड़े से नहीं बनाए जा रहे हैं, भारतवर्ष क्‍या किसी भी देश में अभी कपड़े के नोटों का चलन नहीं चला है। कागज के नोटों से यदि फूल बनाने की कोशिश की जा रही है तो इसमें बुराई क्‍या है, माना कि एक अप्रैल दूर है पर इतनी अधिक दूर भी नहीं है कि पन्‍द्रह दिन पहले फूल बनने पर किसी को एतराज होगा। अब अगर महारैली के लिए शुभ दिन निकला ही 15 मार्च तो इसमें तो किसी को आपत्ति करने का हक नहीं बनता है।

अब यह तो मीडिया का दोष है न कि वो माला पहने हुए चित्रों को भी क्‍लोज अप में लेकर देखने के लिए लालायित हो उठा है। वो पब्लिक को अपनी जागरूकता दिखलाना चाहता है। माला पहनने वालों की सक्रियता उसे नजर नहीं आती है। अगर माला पहनने पहनाने वाले ही महारैली का यह आडंबर न रचते तो उसके हाथ यह अचूक अवसर कैसे हाथ लगता ? वैसे मीडिया भी कौन सा पाक साफ है वो भी नोट लेकर खबरें छापने प्रसारित करने के लिए खूब प्रसिद्धि बटोर रहा है। अब हमने बटोरने की कोशिश की तो वो उसने भी लगे हाथ अपने हाथ धो लिए। मन तो बच्‍चा है रे …….।

अगर पब्लिक को फूल दिखलाकर फूल बनाने की कोशिश न की जाए तो सबको यह शिकायत रहती है कि पतझड़ चल रहा है तो यह नहीं कि कुछ फूल वूल दिखला बनाकर माहौल को खुशनुमा बनाया जाए। वैसे माला पहनने पहनाने वालों का हृदय तो इतना विशाल है कि वे अरबों की पहनना पहनाना चाहते थे परन्‍तु भारत सरकार ने अभी एक हजार से अधिक के नोट छापने ही शुरू नहीं किए हैं। अगर दस, पचास हजार और एक लाख के नोटों की सुविधा मिल जाए तो वो दिन भी दूर नहीं, जब अरबों की माला के कारण माया सुर्खियों में आए। यह तो मजबूरी है वरना करोड़ों में आजकल होता क्‍या है ? एक लाख के नोट नहीं छाप रही है भारत सरकार इसलिए जलता हर नेता का जिया है, भला वो नेताई ही क्‍या जो बिना नोटों के जी जाए ?

आजकल पांच पचास करोड़ में आता ही क्‍या है, मुंबई दिल्‍ली में तो एक दिलपसंद बंगला तक नहीं बन सकता। अब अगर अपनी करेंसी छापें तो नकली नोटों के निर्माता कहलाए जाएं। सरकारी नोटों की माला पहन रहे हैं तो सीबीआई जांच के लिए चीखपुकार शुरू हो गई है। चैकों की माला बनाने में कोई साख नहीं है, उसमें हल्‍कापन आ जाता है, नकलीपन झलकता है। जो रूतबा असली करेंसी की माला से कायम होता है, उसकी तो बात ही निराली है।
आखिर नेता का विकास भी तो देश का विकास ही है। आरोप तो यह भी लगाए जा रहे हैं कि राष्‍ट्रीय करेंसी का अपमान किया गया है। अगर एक नेता का मान बढ़ाने के लिए करेंसी का अपमान कर भी दिया गया तो कौन सा पहाड़ टूट पड़ा ? वो देश ही क्‍या जो नेताओं की झूठी सच्‍ची शान बघारने का वायस न बन सके। यह तो सीधा सा फंडा है कि नोट की जब इतनी ताकत हो सकती है तो नोट वालों की शक्ति कितनी होगी ? और आप और हम उनसे उलझने का जोखिम मोल ले रहे हैं।

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