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वोट बेचने का बासंती मौसम आया रे …

अविनाश वाचस्‍पति
अविनाश वाचस्‍पति
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चुनाव का मौसम इस बार बासंती है। बसंत के पीले फूलों की छटा में करेंसी नोटों की नीली, लाल आभा अपने संपूर्ण यौवन पर है।  वोटर दिखाई दे जाए, नहीं भी दिखलाई दे, तब भी वोटोच्‍छुक वोटर को अंधेरे में भी तलाश लेते हैं। वोटर भी हरे, लाल, नीले करेंसी नोटों की कालिमा से खिंचे चले आते हैं। ऐसे ऐसे प्रत्‍याशी देखे गए हैं जिन्‍हें यूं तो कुछ दिखलाई नहीं देता है परंतु चुनाव के दिनों में उनकी आंखों में इतनी चमक आ जाती है कि वह खुद को ही नहीं, सबको बिना बिजली के प्रकाश से इतना चमत्‍कृत कर देते हैं कि सब कुछ साफ-साफ नमूदार होने लगता है।  वोटर का वोट कोई और हथिया न ले, येन-केन-प्रकारेण सब मैदान में कूद पड़ते हैं और चरणों में दोलायमान हो जाते हैं, कई तो ऐसा आभास देते हैं कि मानो, अगले पांच बरस तक यूं ही लेटे रहेंगे, चाहे वोट मिल जाएं, तब भी। बिना वोट लिए हटेंगे नहीं, वोट मिलने के बाद भी डटेंगे वहीं। पहले वोट को लूट लें, फिर कूटेंगे करेंसी नोट।

प्रत्‍याशी की मंशा को भांप कर वोटर ने मेंढक की तरह इधर-उधर उछलना कूदना शुरू कर दिया है। प्रत्‍याशी भी चाह रहा है कि वह भी वोटर के पीछे अपना तन, मन और धन लेकर कूदता रहे और उसकी कूदान के कारण उसे अपनी आंखों से ओझल न होने दे। प्रत्‍याशी के साथ उसके गुर्गे विभिन्‍न वैरायटियों की मदिरा – देसी, विदेशी, ब्रांडिड, व्हिस्‍की, रम मतलब जिससे नशा हो, लेकर प्रत्‍याशी के इशारे पर फुदक रहे हैं। उनके कंधों पर बादाम, काजू, चिलगोजे, पिस्‍ता आदि सूखे मेवे की बोरियां लदी हुई हैं। वोटरों का ऐसा है बसंत, साधु और संतों का हो गया है अंत। कई गुर्गे स्‍थूलकाय हैं परंतु वे भी अपनी सक्रियता को कम नहीं आंकने देना चाहते हैं। इसके लिए उन्‍होंने कई प्रकार के जुगाड़ किए हैं, अपने जूतों में स्प्रिंग फिट करवाए हैं ताकि वे उछलते-कूदते भी रहें और सांस भी चढ़ती-उतरती न दिखाई दे। इससे उनकी शारीरिक अक्षमता, उनकी दक्षता का जादुई अहसास देती रहती है। प्रत्‍याशी भी अपने गुर्गों की लक्ष्‍यबेधक ताकत को आंक विभ्रम में फंसा रहता है। जबकि यह दिवा स्‍वप्‍न है, दिव्‍य स्‍वप्‍न नहीं है और जल्‍दी ही वह असलियत के ऊबड़-खाबड़ गड्ढ़ों पर परेशान हाल दिखलाई देगा और अपने ऊपर अपना गुस्‍सा उतार रहा होगा। हलक से गई, नीचे उतर चुकी होगी। मदिरा और मेवों की नंगी सच्‍चाई लज्जित कर रही होगी। शर्म उसको आ रही है।

अब वोटर को लगने लगा है कि मेंढक असल में वह नहीं, वह है। वह कौन है …..  वह कौन है …… जो वोट लूटता है। वोटदाता मेंढक की तरह उछलता रह जाता है, उसे मालूम भी नहीं चलता कि कब मेंढक रूपी बहुरूपिया प्रत्‍याशी अपने गुर्गों और दिखलाए गए दिवा स्‍वप्‍न के बल पर उसका वोट हथियाकर ले जा चुका है और वह सदा की तरह इस बार भी हाथ मलता रह गया है। वह तो ढके हुए हाथियों के परदे उतरने की इंतजार में रहा कि जब परदे उतरेंगे तो वहां एक सीढ़ी लगी हुई होगी और वह उस सीढ़ी के जरिए हाथी की पीठ पर सवारी करते हुए अपने वोटदान करने के लिए प्रस्‍थान करेगा। एकाएक तभी उसे अपने गाल पर तमाचे का अहसास होता है, वह तमाचा असल में हाथ की करामात है, इसी कर (हाथ) की मात ने उसे इन चुनावों में फिर से करारी मात दी है। उधर हाथी, साईकिल, लैम्‍प, तराजू, ऊंट, झंडे, डंडे, फूल, कमल इत्‍यादि उसे मारने-मरोड़ने पर बुरी तरह आमादा हैं। वोटर इन चिन्‍हों की दलदल में ऐसा फंस गया है कि ऐसा अहसास हो रहा है कि सब ही उसके दुखों के तारणहार हैं। जबकि वे सब अपनी मिलीभगत पर मुदित हो रहे हैं कि हमसे बचकर भी वोटर हमारे पास ही आएगा। बचके …. बचके …. कहां जाएगा तू … वोटर … टर्र टर्राएगा … वोटर और प्रत्‍याशी मार लेगा विजय का सिक्‍सर। उसके साथ उसकी 60 बेईमानियां होंगी, 600 कार‍स्‍तानियां होंगी और होंगी उसके साथ ईवीएम की तकनीकी खामियां। उसे तो हर हाल में जीतना है। हर साल बसंत आता है। चुनाव पांच साल बाद आने वाला चुनावी बसंत है। नेताओं का ऐसा है बसंत कि जीतना उसका स्‍वप्‍न नहीं , यथार्थ है और हारना वोटर की असलियत। तो क्‍या आप भी बसंत की इस ऋतु में अपना वोट बेचने जा रहे हैं ?

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