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हड्डियों का तड़कना (कविता)

अविनाश वाचस्‍पति
अविनाश वाचस्‍पति
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घटता वजन 
सिमटता शरीर 
मिटता वजूद 
पर नहीं छीजती हड्डियां 
मांस छंट जाता है 
छूट जाता है 
उसका हड्डियों से साथ।

छरहरा या इकहरा 
कहलाता है 
रह जाता है 
हड्डियों का ढांचा 
या कहें उसे खांचा । 

ऐसा नहीं है 
कि हड्डियां रहती हैं
उसी आकार में 
जब पैदा हुए थे 
खूब रोए थे 
असर तो चढ़ता है 
हड्डियों का ढांचा 
बढ़ता है 
सिर्फ एक सीमा तक 
एक आयु तक । 

घटती या सिमटती 
अथवा मिटती नहीं हैं 
हडि्डयां 
या हड्डी कोई एक 
वह हड्डी ही होती है 
जो करती है 
चबाने का काम नेक।

मजबूत और भुरभुरी 
जरूर होती हैं 
मजबूत होने पर 
टूटती हैं हड्डियां 
कमजोर होने पर 
बच जाती हैं कई बार।

मांस जब छिलता है 
रक्‍त बाहर झलकता है 
कई बार टपकता है
झांकती हैं हड्डियां 
वहां से अनेक बार 
पर नहीं होता है 
यह त्‍योहार। 

दर्द होता है
टूटने पर हड्डियां 
शरीर पड़ा रहता है 
खड़ा नहीं हो पाता 
पता भी नहीं बताता 
समय खूब लगता है 
हड्डियां तो हड्डियां हैं 
मांस कितना ही चढ़ा लो 
जब चढ़ जाए तो 
उसे घटाने के लिए 
नोटों को जुटा दो । 

सब बस में नहीं है 
पर कोशिश करने पर 
हासिल होता है 
हासिल नहीं सफलता 
सफलता का फलसफा 
कईयों का तो पन्‍ना 
होता है बिल्‍कुल सफा
नहीं कर पाता है 
शरीर अपना ही वफा।

घटा भी लिया जाता है मांस 
पर नहीं घटती हैं हड्डियां 
चुप रहती हैं सब घंटियां 
ऐसा लगता है 
जबकि चुप नहीं होती हैं 
जब टूटती चटकती 
तड़कती हैं हड्डियां।

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