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अपने ही दिल में
खिंची है , एक लकीर
जिसके दो पाले है |
एक दर्पण की भांति
आत्मा को सँवारता है |
और कोशिश करता है ,
हमें खुद के नज़र में ,
ऊपर उठाए रखने की |
यह स्पष्टता चाहता है |
तथा एकांत प्रिय है |
और नग्न रहता है |
इसे पर्दा पसंद नही है |
वही दुसरे पाले का हिस्सा
एक अंगरक्षक की तरह
हमे समाज से बचाता है |
यह दुःख-सुख ,भय
हँसी ,आँसू ,प्रेम ,क्रोध
सबको पहले छिपाता है ,
फिर अवसर आने पर
एक-एक को दिखता है |
इसके ऊपर एक आवरण है |
जिसके अन्दर कई रहस्य छिपे हैं |
और नित्य ही ये दोनों पाले
हमारे प्रत्येक भावना को
जितने के लिए
आपस में ताल ठोककर
खेलते रहते हैं , कबड्डी |
और पुरे ह्रदय में , मचा देते है ,
एक तूफान-सा उथल-पुथल |
तथा पूर्णतः किसी एक पक्ष में होने पर
हमे होने लगती है , उलझन |
मगर जब कभी किसी निर्जन क्षेत्र में ,
यह खेल समाप्त होता है |
और दोनों पाले आपस में
मिलाते है , अपना हाथ |
तब कही महसूस होता है ,
हमे हमारा मुकम्मल दिल |
अपने ही अन्दर खोया हुआ
पूरा होकर भी अधुरा हुआ
हमे हमारा मुकम्मल दिल |
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