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प्रेम : एक भाव |

अवनीश आर्य
अवनीश आर्य
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सृष्टि के निर्माण के समय से ही प्रेम को सही से समझने के लिए न जाने कितने शास्त्रार्थ हुए , न जाने कितनी कहानिया , कविताये ,लिखी गयी | असंख्य चर्चाये हुई , परन्तु प्रेम को समझने समझाने की आवश्यकता आज भी ज्यो की त्यों पड़ी हुई है | प्रेम को जानने की पिपासा अभी भी उतनी ही है | परन्तु सच्चाई यह है कि , प्रेम को समझा या समझाया नही जा सकता क्योकि प्रेम हमारे ह्रदय का एक शुद्ध भाव है | जो भीतर से उदभावित होता है | जिसे मात्र महसूस किया जा सकता है |

प्रेम अन्तः परिचालित होता है | जबकि मोह और वासना बाह्य परिचालित होते है | प्रेम एक दीये के प्रकाश के भांति है , अगर इस प्रकाश में कोई भी न हो तो भी यह शून्य में गिरता रहेगा और कोई निकलेगा तो उसपे पड़ जायेगा | तथा वासना और मोह प्रकाश की भांति नही है वे किसी से प्रभावित होते है ,तो खीचतें है | इसलिए वासना और मोह एक तनाव है | और प्रेम में कोई तनाव नही है | वह एक शांत स्थिति है | जिसेको बाहर ही हवाएं प्रभावित नही करती | यह स्वम से ही निकलता है |

प्रेम अपने छोटे अवस्था में किसी सम्बन्ध में होता है | यह सम्बन्ध किसी व्यक्ति ,समुदाय या देश के प्रति हो सकता है | परन्तु प्रेम अपने विस्तृत अवस्था में चित्त की अवस्था बन जाती है | और जब प्रेम चित्त की अवस्था बन जाती है तब व्यक्ति प्रेम करने को मजबूर हो जाता है | प्रेम उसकी विवशता बन जाती है | उस व्यक्ति की अवस्था उस फल से लदे वृक्ष की भांति हो जाती है ,जिसे पत्थर भी मारो तो वह उत्तर में फल ही देता है | उसकी अवस्था उस जल से भरे झरने की भांति हो जाता है, जिसमे चांहे जैसी भी ( गन्दी-मैली साफ-सुन्दर ,सोने ,तांबे ) बाल्टी फेकी जाय झरना उसमे पानी ही देगा | और इसमें झरने की कोई खूबी नही है, यह उसकी मज़बूरी है, उसे देना ही पड़ेगा क्योकि प्रेम जब चित्त की अवस्था होती है, तब वह एक विवशता होती है | उसमे मात्र देने का भाव रह जाता है | और इसी भाव के समय प्रेम अपने पराकाष्ठा पर होता है |

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