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एक अजन्मे बच्चे की चीख !

संतोष त्रिवेदी
संतोष त्रिवेदी
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ये कैसा नीम सन्नाटा है,
मेरे आने के पहले ही
चला गया मुझे लाने वाला !
क़ातिलों के हाथ
ज़रा भी नहीं कांपे,
उन्हें अपने बच्चों के
चेहरे नहीं दिखे,
मेरी माँ की चीत्कार भी
नहीं सुन सके वो.
मेरे पिता कायर नहीं थे,
इस व्यवस्था से
अर्थ की सत्ता से
वे तालमेल नहीं बिठा पाए
उनके सपने बड़े नहीं थे,
पर अपने पांव पर
चलने भर का पाप किया था उनने.
उनके छोटे से सपने को भी
बड़े और सफ़ेद लिबास में खड़े लोगों ने
निगल लिया
कई लोगों के भविष्य में झोंक दी राख
खा गए अपने ही मांस के लोथड़े को
आ गया होगा सुकून
उनकी भूखी आत्माओं को,
भर गए होंगे
उनके खाली खप्पर लहू से !
ध्यान से देखेंगे तो पाएंगे ,
उस खून में एक बूँद मेरी
और बहुत-सारी
उनके बच्चों की हैं .
मैं प्रणाम करता हूँ अपने पिता को,
अपने जन्म से पूर्व ही !
मैं आऊँगा ज़रूर अपनी माँ के पास
उसी के आँचल में छुपूंगा
उसी की पीठ पर चढ़कर
बहुत दूर तक घूम आऊँगा !
पर माँ !
क्या बाहर की दुनिया ऐसी ही है ?

*

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