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वो रफ़ कॉपी याद है ना सभी को स्कूल से लेकर कॉलेज तक हमारी सबसे क़रीबी दोस्त। जहांं हम अपनी असली लिखावट और समझ को पन्नों पर उतारते थे। क़ई दफ़ा अपना ही लिखा ख़ुद पढ़ नहीं पाते थे, लेकिन बड़ी ईमानदारी से हम रफ़ बुक से रिश्ता निभाते थे। कुछ और बैग में हो ना हो रफ़ कॉपी ज़रूर ले जाते थे।
कभी दोस्तों संग उसी रफ़ कॉपी के कोने पर टिक टक टो भी खेलते थे। कभी क्लास में पढ़ा रहे टीचर की शक्लें भी उसी पर बनाते थे। सब दोस्त आपस में मिलकर मुस्कुराते थे। क्लास में बोर होने पर उसी पर लिखकर मैसेज एक दूसरे को भिजवाते थे। उस एक रफ़ कापी पर ही पूरे दिन ढल जाते थे। कितना कुछ सम्भाल रखा था उस रफ़ कॉपी ने।
अब ज़िन्दगी में आगे आ गये हैं तो उस रफ़ कॉपी को भूल गये। ये रफ़ कापी अब महज़ एक काग़ज़ की कॉपी नहीं बल्कि हमारा अहम हिस्सा है। वो है हमारा मन, जिससे हम कुछ नहीं छुपाते। जब जैसे जो देखते हैं। सुनते हैं। उसको मन में वैसे ही बिठाते हैं। कुछ अच्छा लगता है तो ख़ुश होकर जताते हैं। कुछ बुरा लगता है तो ऐतराज़ जताते हैं।
हर चीज़ हम अपने मन को ज़रूर बताते हैं। अपने मन में हर रोज़ कितने रफ़ नोट्स बनाते हैं। बस फ़र्क़ इतना रह गया है कि अब ये रफ़ कॉपी बड़ी क़ीमती हो गयी है। अब इसे सबके सामने नहीं खोलते। अब इसे सबके संग साझा नहीं करते। कितना कुछ जो लिख गया है। उसे मिटाने की कोशिश करते हैं। इस रफ़ कॉपी को लोगों के सामने सजाने की कोशिश करते हैं।
हम छिपाने लगते हैं टूटे हुये एहसासों को। फटे हुये पन्नों की तरह। तब इस पर गेम खेलते थे। अब इसके साथ गेम खेलते हैं। इस मन रूपी रफ़ कापी में वह सुकून नहीं मिलता जो कि उस बचपन वाली रफ़ कापी में मिलता था। जब सब कुछ दोस्तों के सामने खुला और पारदर्शी होता था।
नोट : यह लेखक के निजी विचार हैं, इनके लिए वह स्वयं उत्तरदायी है। संस्थान का इससे कोई लेना-देना नहीं है।
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