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शायद आपने ध्यान न दिया हो लेकिन आरक्षण का रथ अब अपने सर के बल खड़ा हो चुका है| एक बेहद नेक इरादों से प्रारम्भ की गयी आरक्षण की व्यवस्था को आजादी के सत्तर वर्ष बाद फिर से मूल्यांकित किए जाने की जरुरत है| सोचा यह गया था कि आरक्षण के चलते वे समाज जो सदियों तक समानता के अधिकार से वंचित रहे उन्हें एक बराबरी के स्तर पर लाया जाएगा| तभी संविधान के अनुसार समाजवाद और समता के सिद्धांत लागू हो पाएँगे| संविधान द्वारा प्रदत्त इस युक्ति का राजनीतिक दलों ने भरपूर शोषण किया – उन पिछड़े या दलितों के भले के लिए नहीं बल्कि अपने लिए सत्ता पाने या उसे बनाए रखने के लिए|
मोटे तौर पर देखा जाए तो पूरे देश में सरकारी तंत्र से उपजने वाले लगभग पचास फीसदी मौके आरक्षित है चाहे वह शिक्षा, छात्रवृत्ति या सुख सुवधाओं की बात हो या फिर नौकरियों की, प्रमोशन की| गाँव का प्रधान बनना हो या फिर विधायक या सांसद सब जगह आरक्षण की व्यवस्था लागू है | होना यह था कि इस व्यवस्था का उपयोग पिछड़े और दलितों को काबिल बनाने में किया जाता ताकि वह बाकी के तथाकथित अगड़े समाज के साथ प्रतिस्पर्धा कर सके, कंधे से कंधा मिलाकर खडा हो सके और साथ ही सामजिक असमानता को मिटा सके| लेकिन हुआ इसके विपरीत कुछ और ही जिससे यह फासले कभी मिट नहीं सके और निकट भविष्य में मिटते लग भी नहीं रहे| बल्कि हुआ यह कि इन पिछड़े और दलित वर्गों में भी दो हिस्से बन गए एक वे जो लगातार इन व्यवस्थाओं का लाभ उठाकर धन प्रतिष्ठा और सत्ता पा कर सिर्फ नाम के पिछड़े बचे और दूसरे वे जो इतनी तमाम व्यवस्थाओं के बावजूद बद से बदतर होते चले गए|
दुर्भाग्य यह है कि मामला सिमट कर प्रतीकों में उलझ कर रह गया और दलित और शोषित प्रतीकों की उपयोगिता राजनीति के हाथ का खिलौना बन कर रह गया| और इसकी जद में आने से देश का सर्वोच्च पद भी बच नहीं पाया – जी हाँ, राष्ट्रपति का पद| पद की गरिमा बनाए रखने के लिए यह जरुरी था कि हमारे राजनीतिक दल कम से कम इस पद को अपनी घटिया राजनीति से दूर रखते पर नहीं| और यह कोइ आज से नहीं वर्षों से चला आ रहा है| देश का प्रधानमंत्री मुसलमान नहीं हो सकता तो क्या हुआ राष्ट्रपति तो हो ही सकता है | श्री जाकिर हुसैन से लेकर श्री अब्दुल कलाम तक राजनीतिक दलों ने यह मास्टरस्ट्रोक खेला है| यह और बात है कि देश का राष्ट्रपति बनने वाले कई लोग बेहद प्रतिभाशाली लोग थे और महज अपनी काबिलियत के बल पर उस सम्मान के अधिकारी थे लेकिन फिर भी वे राजनीतिक मास्टरस्ट्रोक की प्रयोगशाला बने|
कुछ प्रश्न तो पूछे ही जाने चाहिए – श्रीमती प्रतिभा पाटिल के राष्ट्रपति बनने से महिलाओं के स्तर पर क्या कुछ अंतर आया? तीन पूर्ण कालिक मुसलमान राष्ट्रपतियों श्री जाकिर हुसैन, श्री फखरुद्दीन अली अहमद और श्री ए पी जे अब्दुल कलाम और श्री एम् हिदायतुल्ला के रूप में कार्यवाहक राष्ट्रपति बनाने से मुसलमानों की असुरक्षा की भावना कम हो गयी क्या? इसी प्रकार श्री के आर नारायणन के राष्ट्रपति बनने से क्या दलितों का उद्धार नहीं हो पाया जो एक बार फिर इसकी आवश्यकता पड़ गयी है?
तो एक बार फिर राजनीतिक मास्टरस्ट्रोक का समय है और इस बार का कलेवर है – दलित राजनीति| बजाय इसके कि यह बहस होती कि कौन राष्ट्रपति पद की गरिमा के लायक है, किसके काम संविधान की मूल धारणा के अनुरूप हैं और कौन क्षमता रखता है इस क्षुद्र राजनीति से ऊपर उठने की, बहस इसी पर केन्द्रित है कि कौन ज्यादा बड़ा दलित है – इसी को तो कहते हैं मास्टर स्ट्रोक| श्री कोविंद ज्यादा बेहतर दलित हैं या श्रीमती मीरा कुमार और जब तक दलीलों से यह तय हो पाएगा परदे के पीछे से राजनीतिक समीकरण सेट हो जाएंगे| देवताओं की तरह गर्दन उठाने वाले राजनीतिक दल क्या कभी यह तय करेंगे कि सभी सांसद और विधायक अपनी अंतरात्मा की आवाज पर वोट दें? नहीं, अभी भी राष्ट्रपति पद में इतना रस बाकी है कि कोई भी राजनीतिक दल अपने लिए ज्यादा (देश के लिए नहीं) स्वीकार्य राष्ट्रपति के मौके को हाथ से नहीं जाने देगा|
श्रीमती मीरा कुमार के हवाले से एक और प्रश्न पूछ जाना चाहिए| श्रीमती मीरा कुमार जी श्री जगजीवन राम जी की सुपुत्री है और तथाकथित रूप से एक ब्राह्मण से विवाहित हैं| श्री जगजीवन राम स्वतंत्रता सेनानी, देश के उपप्रधानमंत्री, केन्द्रीय मंत्री और एक समय सरकार में नंबर दो की शक्तिशाली पोजीशन पर विराजमान रहे थे| भगवान की दया से मीरा कुमार ने शायद कभी आर्थिक तंगी या सामाजिक अन्याय देखा भी न होगा, पर वे दलित क्यों हैं? आई ऍफ़ एस, सांसद, केन्द्रीय मंत्री एवं लोकसभा की पहली महिला स्पीकर बनाने के बाद भी उन्हें आर्थिक उत्थान, सामाजिक न्याय या प्रतिष्ठा की आवश्यकता है? यही हाल बाकी की व्यवथा का भी है – आरक्षण के लाभों से वंचित उस आख़िरी व्यक्ति का नंबर कब आएगा?
एक कहावत है कि चाकू चाहे कद्दू पर गिरे या कद्दू चाकू पर कटना तो कद्दू ने ही है| जिस अंतिम व्यक्ति की बात गांधी जी करते थे वह भोला है लेकिन फिर भी इतनी चालाकी समझता है कि चाहे कोविंद जी राष्ट्रपति बनें या मीरा कुमार उनकी सेहत पर कोइ फरक नहीं पड़ने वाला है| देश को एक और दलित राष्ट्रपति भी मिल जाएगा और उस आख़िरी व्यकित को कुछ मिलेगा भी नहीं – इसी को कहते हैं राजनीतिक मास्टर स्ट्रोक| समझे न?
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