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इसमें अप्रत्याशित क्या…

बेबाक विचार, KP Singh (Bhind)
बेबाक विचार, KP Singh (Bhind)
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मुलायम सिंह की भाजपा के लिए संसद में खुलेआम अभिसार की मुद्रा से मुस्लिम समुदाय हक्काबक्का होने जैसी स्थिति में है। उसे आघात पहुंचा है, भले ही अभी इस पर उसकी कोई मुखर प्रतिक्रिया सामने न आई हो। मीडिया में मुलायम सिंह के रुख को ऐसे प्रस्तुत किया जा रहा है जैसे यह कोई अप्रत्याशित स्थिति हो। मीडिया के लोग अपने आपको डीक्लास नहीं कर पाए। वर्ग चेतना हावी रहने की वजह से या तो वे स्थितियों का विश्लेषण करने में कपट और धूर्तता की पराकाष्ठा करते हैं या दूसरी स्थिति यह होती कि वे आत्मप्रवंचना की प्रवृत्ति के दास होकर रह गए हैं।

बहरहाल जो लोग राजनीति करते हैं वे सत्ता की कामना रखें यह स्वाभाविक ही है। दरअसल वैचारिक उद्देश्यों को सामाजिक परिवर्तन का रूप देने के लिए उपकरण के रूप में सत्ता का इस्तेमाल अनिवार्य है। इस कारण मुलायम सिंह ने सत्ता के तकाजे के तहत अपनी विचारधारा में विचलन किया या नया पैंतरा चला तो इसमें कुछ अन्यथा न होता अगर उनकी विश्वसनीयता यह होती कि वे जिस प्रतिबद्धता का दावा करते हैं अंततोगत्वा उसी के अनुरूप लक्ष्य हासिल करने के लिए ही वे काम करेंगे। विश्व में जितने वास्तविक क्रांतिकारी हुए हैं उन्होंने कई बार रणनीति के तहत डेविएशन (विचलनकिया हैलेकिन अपने असली लक्ष्य से कभी पीछे नहीं हटे। अफसोस के साथ कहना पड़ता है कि मुलायम सिंह उनमें से नहीं हैं। सत्ता के मामले में उनकी अभीप्सा अत्यंत विकृत हैजिसका किसी सामाजिक परिवर्तन से कोई लेनादेना नहीं है। चूंकि उन्हें अपने शुरुआती दौर में मालूम था कि मुसलमान एक खाली वोट बैंक है जिसके कारण उसे हथियाने के लिए उन्होंने जेहादी तेवर अक्सर दिखाएलेकिन अगर कोई निर्णायक अवसर आया तो उनकी मौकापरस्ती हमेशा ही उजागर रही है। जनता दल के समय अगर मुलायम सिंह ने मुसलमानों को भड़काने की राजनीति न की होती तो शायद बाबरी मस्जिद शहीद होने का अवसर ही नहीं आता क्योंकि उनकी तथाकथित सद्भावना रैलियां, जो कि वास्तव में दुर्भावना रैलियां थींके अभियान ने ५० का आंकड़ा छूने के लिए भी तरस रही भाजपा को उत्तर प्रदेश में एकाएक पूर्ण बहुमत की ओर अग्रसर कर दिया।

जनता दल सरकार की असमय मौत के लिए भी स्वयं मुलायम सिंह जिम्मेदार हैं और जिन वीपी सिंह के बदले चंद्रशेखर को उन्होंने चुना, इतिहास गवाह है कि कूटकूटकर भरे ठाकुरवाद की वजह से वे चंद्रशेखर राम मंदिर आंदोलन की अगुवाई कर रहे क्षत्रिय बिरादरी के रामचंद्र परमहंस और महंत अवैद्यनाथ से लेकर आरएसएस के तत्कालीन सर संघचालक राजेंद्र सिंह उर्फ रज्जू भइया के प्रति निष्ठा की वजह से प्रधानमंत्री बनने के बाद ऐनकेन प्रकारेण इस बात में लगे थे कि कैसे अयोध्या की पवित्र मस्जिद पर मंदिर खड़ा हो जाए। मीडिया ने मुसलमानों को बहुत बहकाया और ऐसा चित्र प्रस्तुत किया जैसे अगर चंद्रशेखर की सरकार चार महीने में न गिरती तो अयोध्या विवाद का हल मुसलमानों के साथ न्याय के रूप में होता, यह बात दूसरी है कि मीडिया की इस धूर्तता पर मुसलमानों ने बिल्कुल भी यकीन नहीं किया और यही वजह रही कि समाजवादी जनता पार्टी को उस समय पूरे देश में सिर्फ पांच लोकसभा सीटों पर सफलता मिली। जाहिर है कि मुसलमानों ने कहीं सजपा का साथ नहीं दिया था।

इसके बाद नरसिंहाराव प्रधानमंत्री बने तो उनके साम्प्रदायिक मंसूबे पूरा करने में साधक बनकर मुलायम सिंह ने मुसलमानों से बदला लेने में कोई कसर नहीं छोड़ी। जब भी नरसिंहाराव की अल्पमत सरकार पर संकट आया संसद से बहिर्गमन या किसी अन्य बहाने से उन्होंने उसका साथ दिया। दिसम्बर १९९२ में ही मंडल आयोग की रिपोर्ट के मामले में इंदिरा साहनी बनाम भारत सरकार की रिट पर सुप्रीम कोर्ट ने ऐतिहासिक फैसला सुनाया और इसी महीने में बाबरी मस्जिद शहीद हुई। नतीजतन पूरे देश में मुसलमानों, पिछड़ी आबादी और दलितों के ध्रुवीकरण का बवंडर राष्ट्रीय मोर्चावाम मोर्चा के पक्ष में उमड़ा। लगा कि देश सदियों से जिस सामाजिक क्रांति की बाट जोह रहा है वह अब मूर्त रूप लेने ही वाली है, लेकिन इस क्रांति की भ्रूण हत्या करने के लिए ही मुलायम सिंह ने बहुजन समाज पार्टी के साथ मिलकर उत्तर प्रदेश का चुनाव लड़ने का फैसला किया। मकसद यह था कि जब यह जाहिर हो जाएगा कि रामोवामो अपने गृह प्रदेश में ही धूलधुसरित हो चुका है तो सारे देश में उसकी बिसात क्या है।

अगर कांशीराम के साथ उनका समझौता दलितों और पिछड़ों और मुसलमानों को परिवर्तन के मकसद से स्थाई तौर पर गोलबंद करना होता तो भी रामोवामो को बलिदान करने का औचित्य इतिहास में स्वीकार किया जाता, लेकिन जैसे ही रामोवामो स्खलित हुआ मुलायम सिंह अपने असली यथास्थितिवादी फासिस्ट रुख में आ गए जिसका प्रकटन बसपा के साथ उनके सम्बंध भंग के रूप में परिलक्षित हुआ। बाद के घटनाक्रम से लेकर आज तक की परिस्थितियों ने यह साबित किया है कि मुलायम सिंह की घृणा केवल कांशीराम और मायावती तक ही सीमित नहीं है बल्कि उनके अवचेतन में दलितों के प्रति छुपा दुराव और नफरत बसपा से मतलब निकलते ही फुफकार मारते हुए सामने आ गया है। अखिलेश यादव सरकार ने पदोन्नति में आरक्षण के खिलाफ जो पहल की वह इसकी स्वाभाविक परिणति है। नरसिंहाराव सरकार हटने के बाद मुलायम सिंह की वाजपेई सरकार के साथ में भी न केवल सहानुभूति रही बल्कि उन्होंने वाजपेई सरकार को मजबूती देने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी। यह उनकी असल जहनियत के अनुरूप ही रहा। मलयाना कांड से लेकर अब तक हुए दंगों में जिन अफसरों के माथे पर मुसलमानों के क्रूर दमन का कलंक रहा, उन सबको वे बचाते रहे। यहां तक कि बाबरी मस्जिद शहीद होने के समय फैजाबाद के तत्कालीन कलक्टर रामशरण श्रीवास्तव व अन्य अधिकारियों को उनके कार्यकाल में मिली प्राइज पोस्टिंग भी समयसमय पर उर्दू अखबारों की सुर्खियां बनती रही है।

लोगों को एक बार जवाहर लाल नेहरू की पुस्तक विश्व इतिहास की झलक में वह चैप्टर पढ़ना चाहिए जिसमें जिक्र है किस तरह बर्लिन में क्रांति के बाद सोशलिस्टों और कम्युनिस्टों ने बुर्जुआ समाज को सत्ता से खदेड़ालेकिन इसके बाद सोशलिस्टों ने बुर्जुआ ताकतों से ही हाथ मिला लिया और असली क्रांतिकारियों को शूली पर चढ़ा दिया। सीआईए के लिए जासूसी करने के आरोप में संदिग्ध रहे जार्ज फर्नांडीज साहब हों या शरद यादव उसी प्रजाति के छद्म परिवर्तनवादी हैं जो पहले ही प्रतिगामी ताकतों के हमसफर बन चुके थे। उसमें जार्ज फर्नांडीज तो मुलायम के आदर्श रहे हैं। मुलायम ने अभी तक धैर्य धारण किया तो मात्र इसलिए कि उन्हें मुसलमानों को इतना निरीह बनाकर छोड़ना था कि वे उनके किसी प्रतिकूल कदम पर आंखें तरेरना तो दूर असहमति व्यक्त करने लायक भी नहीं बचें और अंततोगत्वा उन्होंने इस मुकाम को पा लिया तो अब असली मकसद को पूरा करना उनका ध्येय है। लोहिया की वंशवाद विरोधी परम्परा को सींचने में उनका योगदान हो या फिल्म स्टारों के जरिए चुनाव जीतने की पूंजीवादी कवायद अथवा अपने गांव में सरकारी खर्चे पर शाही जश्न, उनके खाते में इतना कुछ जमा है कि हिंदुस्तान के अलावा कोई देश ऐसा नहीं हो सकता जो इसके बावजूद भी उन्हें लोहियावादी मानने का भोलापन दिखाता रहता। दरअसल यह मासूमियत नहीं धूर्तता की पराकाष्ठा है। मुलायम के द्वारा नये रूपांतरण के लिए बनाई जा रही भूमिका के साथ अनागत राजनीति की जो तस्वीर उभर रही है उसका निष्कर्ष यही है कि इतिहास अपने आपको दोहराता है और गौतम बुद्ध के समय से लेकर आज तक का हिंदुस्तान का इतिहास सामाजिक परिवर्तन की हर जद्दोजहद के बीच रास्ते में ही पतन का इतिहास है जो शाश्वत है। इस कारण आज भी बरकरार है और आगे भी बरकरार रहेगा।

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