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कौन हो संपादक मालिक या पत्रकार

बेबाक विचार, KP Singh (Bhind)
बेबाक विचार, KP Singh (Bhind)
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अवधारणायें किस तरह भौतिक परिवर्तनों के साथ बदल जाती हैं और सृष्टि क्रम की यह प्रवृत्ति बुद्ध के अनित्यवाद में आस्था को और ज्यादा मजबूत कर देती है। पत्रकारिता की दुनिया में कुछ दशक पहले तक जब संपादक नाम की संस्था का पतन हो रहा था और स्व. नरेंद्र मोहन जैसे मालिकान अपना नाम संपादक के रूप में दर्ज कराने लगे थे तो यह बहस का मुद्दा बन गया था। मैं भी उस समय मालिकान के इस कदम को दुस्साहसिक मानने वालों में था। उस समय के विद्वान बताया करते थे कि मालिकान संपादन की ए बी सी डी भी नहीं जानते और चूंकि पत्रकार उनके आर्थिक प्रभुत्व की छत्रछाया में जीने को विवश हैं इस कारण उनके अधिकारी स्थान पर वे जबरिया विराजमान होते जा रहे हैं लेकिन आज मैं अपनी यह धारणा पूरी तरह बदल चुका हूं।

नरेंद्र मोहन जी के समाचार पत्र दैनिक जागरण का ही उदाहरण लें जिसमें मालिकान का नाम संपादक के रूप में डालने का सिलसिला अब परंपरा का रूप ले चुका है तो निरपेक्ष दृष्टिï से वास्तविकता का मनन करने वाला हर व्यक्ति यह मानने को मजबूर होगा कि इसमें कुछ अन्यथा नहीं है। कुछ दिनों पहले दैनिक जागरण की एक आंतरिक बैठक की चर्चा मैंने सुनी जिसका सार यह है कि विद्वान पत्रकार जिन बातों को कई घंटे खर्च करके भी नहीं समझा पाये उन संपादकीय बारीकियों और लक्ष्यों को इसके निदेशक संदीप मोहन गुप्ता ने अपनी टीम को चंद मिनटों में आत्मसात करा दिया। जहां तक आदर्श और मूल्यों की बात है उन्होंने अपने एक तहसील संवाददाता के खिलाफ उसके द्वारा अवैध उगाही की शिकायत पर न केवल कड़ा एक्शन लिया बल्कि यह तक निर्देश दिये कि पैसे की मांग करते समय उसकी जो वीडियो क्लिपिंग बनी है उसे यू ट्यूब में इस कैप्शन के साथ डाल दें कि ट्रैफिक वालों से पैसा मांग रहा था जागरण का पत्रकार। उन्हें आगाह किया गया कि इससे जागरण की गरिमा कलंकित होगी तो उन्होंने ऐसी झूठी गरिमा का कवच चिपकाये रखने से इंकार करते हुये कहा कि हम दूसरों की घूसखोरी की खबरें इतनी तानकर छापते रहते हैं तो अपने घर की गंदगी को क्यों छिपायें। दरअसल संपादक की पत्रकार बनाम मालिक की कुर्सी को लेकर चल रही बहस की पर्तें उधेड़ी जायें तो कई छद्म टूट सकते हैं। कानपुर जैसे अलगथलग महानगर का एक क्षेत्रीय अखबार किस तरह राष्ट्रीय शिखर पर पहुंचा और वे अखबार जो राष्ट्रीय होने के गुरुत्व में बहुत वजनदारी रखते थे क्यों धराशायी हो गये इस पर चिंतन की जरूरत है। दरअसल दैनिक जागरण की तरक्की का रहस्य ही यह है कि इसमें उन पाखंडी पत्रकारों के हाथ में अखबार की बागडोर नहीं है जो पूरी दुनिया को नैतिकता का उपदेश देते हैं लेकिन मालिकान की आजादी का लाभ उठाकर अंदर खाने नेताओं से व्यक्तिगत स्वार्थों के लिये लाइजनिंग करते रहते हैं।

कुछ ही वर्षों पहले लखनऊ के एक बड़े संपादक का निधन हुआ जिन्होंने बैनेट कोलमेन कंपनी से लेकर कई बड़े ग्रुपों तक में एक छत्र राज चलाया और मुझे भी उनका अतिशय अनुग्रह प्राप्त रहा चूंकि उनके लेखन कौशल और लेआउट व अखबार की डिजाइनिंग का पूरे देश में हिंदी जगत में कोई जवाब नहीं था लेकिन क्या यह सच नहीं है कि जिस मालिक ने भी उन पर भरोसा किया उन्होंने उसे करोड़ों का चूना लगाया। एक जमाने में लखनऊ में हिंदी के सबसे ज्यादा बिकने वाले समाचार पत्र के संपादक का दायित्व उन्होंने मालिकान को यह वायदा कर हथियाया था कि वे हजरतगंज में अरबों की जमीन का फ्री होल्ड उनके नाम मुख्यमंत्री से करा देंगे पर वे ऐसा नहीं कर सके इसलिये नहीं कि उनके सिद्धांत आड़े आ गये हों बल्कि इसलिये कि उनके अपने कामों की सूची ही इतनी लंबी थी कि वे मुख्यमंत्री से उन्हें ही पूरा नहीं करा सके। मालिकान के काम के लिये कहने की नौबत कैसे आती। उनका नाम मुलायम सिंह द्वारा स्वास्थ्य व अन्य प्रकार की सहायता के नाम से मुख्यमंत्री कोष से अनुग्रहीत किये गये पत्रकारों की सूची में भी शामिल रहा और यह सूची तो लगभग सारे स्वनाम धन्य संपादकों का चरित्र उजागर करने में सफल रही थी।

उदयन शर्मा ने रविवार में एक मठाधीश संपादक को बेनकाब करते हुये पूरी स्टोरी छापी थी कि किस तरह पत्रकारिता करने की बजाय वे केंद्र और राज्यों में अपने पक्ष के लोगों की सरकारें बनवाने की उठापटक में व्यस्त रहते थे। कमाल की बात यह है कि इन्हें बाद में जब वे पत्रकारिता के दायित्व से मुक्त हो चुके थे लेकिन अपना अस्तित्व और दबदबा बनाये रखने की उनकी भूख नहीं मिटी थी चुनाव में पेड न्यूज के खिलाफ संघर्ष का बिगुल सबसे आगे रहकर बजाते देखा गया। तमाम संपादक जिन्होंने मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू होने के बाद सवर्ण लड़कों के आत्मदाह की बड़ी निष्पक्ष खबरें छापकर देश को बचाने का महान काम किया था। वे कितने निष्पक्ष थे यह उस समय उजागर हुआ जब सुरेंद्र प्रताप सिंह ने नवभारत टाइम्स में मंडल की उथलपुथल को लेकर रविवारीय पृष्ठ प्रकाशित किया। जो लड़के प्रेम प्रसंग में हताशा मिलने पर अवसादग्रस्त होकर जहर खा बैठे थे उन्हें भी मंडल शहीद बता दिया गया था और यह उदाहरण एकदो नहीं कुल चालीस मौतों में दर्जन भर से ज्यादा थे।

मठाधीश संपादक मालिकान के पैसे से अपनी महंतगीरी मजबूत करने का काम करते थे। संपादकीय कक्ष से लेकर जिलों तक में जातिवाद और माहवारी देने के आधार पर नियुक्तियां की जाती थीं। घटिया लोगों के पत्रकार बनाये जाने के बाद अखबार कितने दिन चलने की उम्मीद की जा सकती है। दैनिक जागरण में मालिकान संपादक बने तो हरिश्चंद्रपत्रकारों के लिये यह करने का अवसर समाप्त हो गया। आज भी दूसरे तमाम अखबारों में हरिश्चंद्र पत्रकारों की प्रभु सत्ता है और इन्हीं करतूतों की वजह से वे दैनिक जागरण के मुकाबले लगातार पिछड़ते जा रहे हैं। दैनिक जागरण में जो लोग ऐसा करने वाले हैं भी उनकी मालिकान की सख्त निगरानी के कारण नहीं चल पाती जिससे तमाम उन लोगों का संरक्षण हो पा रहा है जो अखबार की जरूरत है। पत्रकारों को अपनी गरिमा की दुहाई देते समय यह भी विचार करना चाहिये कि जब वे आम कर्मचारियों की तरह जरूरत से ज्यादा वेतन और सुविधाओं के लिये संघर्ष करते हैं तो जो संघर्ष उन्हें करना चाहिये उसकी ताब उनमें कैसे रह सकती है। यदि पत्रकार यह ठान लें कि वे गुजारे लायक वेतन में ही काम करेंगे लेकिन ऐसे अखबार में काम करेंगे जिसमें सच का साथ देने की स्वतंत्रता उन्हें मिले तब तो हिंदुस्तान का मुकद्दर ही बदल जाये। चूंकि मैं भी पत्रकारिता जगत के महारथियों की बिरादरी का एक अकिंचन सदस्य हूं इस कारण अब मैं उन्हें और ज्यादा अनावृत्त नहीं करना चाहता लेकिन अगर वे अपने पूर्वजों जैसी सामाजिक प्रतिष्ठा के कायल हैं तो उन्हें सुविधा भोगिता का रास्ता बदलने की सोचने का चिंतन करना ही होगा।

अवधारणायें किस तरह भौतिक परिवर्तनों के साथ बदल जाती हैं और सृष्टि क्रम की यह प्रवृत्ति बुद्ध के अनित्यवाद में आस्था को और ज्यादा मजबूत कर देती है। पत्रकारिता की दुनिया में कुछ दशक पहले तक जब संपादक नाम की संस्था का पतन हो रहा था और स्व. नरेंद्र मोहन जैसे मालिकान अपना नाम संपादक के रूप में दर्ज कराने लगे थे तो यह बहस का मुद्दा बन गया था। मैं भी उस समय मालिकान के इस कदम को दुस्साहसिक मानने वालों में था। उस समय के विद्वान बताया करते थे कि मालिकान संपादन की ए बी सी डी भी नहीं जानते और चूंकि पत्रकार उनके आर्थिक प्रभुत्व की छत्रछाया में जीने को विवश हैं इस कारण उनके अधिकारी स्थान पर वे जबरिया विराजमान होते जा रहे हैं लेकिन आज मैं अपनी यह धारणा पूरी तरह बदल चुका हूं।

नरेंद्र मोहन जी के समाचार पत्र दैनिक जागरण का ही उदाहरण लें जिसमें मालिकान का नाम संपादक के रूप में डालने का सिलसिला अब परंपरा का रूप ले चुका है तो निरपेक्ष दृष्टिï से वास्तविकता का मनन करने वाला हर व्यक्ति यह मानने को मजबूर होगा कि इसमें कुछ अन्यथा नहीं है। कुछ दिनों पहले दैनिक जागरण की एक आंतरिक बैठक की चर्चा मैंने सुनी जिसका सार यह है कि विद्वान पत्रकार जिन बातों को कई घंटे खर्च करके भी नहीं समझा पाये उन संपादकीय बारीकियों और लक्ष्यों को इसके निदेशक संदीप मोहन गुप्ता ने अपनी टीम को चंद मिनटों में आत्मसात करा दिया। जहां तक आदर्श और मूल्यों की बात है उन्होंने अपने एक तहसील संवाददाता के खिलाफ उसके द्वारा अवैध उगाही की शिकायत पर न केवल कड़ा एक्शन लिया बल्कि यह तक निर्देश दिये कि पैसे की मांग करते समय उसकी जो वीडियो क्लिपिंग बनी है उसे यू ट्यूब में इस कैप्शन के साथ डाल दें कि ट्रैफिक वालों से पैसा मांग रहा था जागरण का पत्रकार। उन्हें आगाह किया गया कि इससे जागरण की गरिमा कलंकित होगी तो उन्होंने ऐसी झूठी गरिमा का कवच चिपकाये रखने से इंकार करते हुये कहा कि हम दूसरों की घूसखोरी की खबरें इतनी तानकर छापते रहते हैं तो अपने घर की गंदगी को क्यों छिपायें। दरअसल संपादक की पत्रकार बनाम मालिक की कुर्सी को लेकर चल रही बहस की पर्तें उधेड़ी जायें तो कई छद्म टूट सकते हैं। कानपुर जैसे अलगथलग महानगर का एक क्षेत्रीय अखबार किस तरह राष्ट्रीय शिखर पर पहुंचा और वे अखबार जो राष्ट्रीय होने के गुरुत्व में बहुत वजनदारी रखते थे क्यों धराशायी हो गये इस पर चिंतन की जरूरत है। दरअसल दैनिक जागरण की तरक्की का रहस्य ही यह है कि इसमें उन पाखंडी पत्रकारों के हाथ में अखबार की बागडोर नहीं है जो पूरी दुनिया को नैतिकता का उपदेश देते हैं लेकिन मालिकान की आजादी का लाभ उठाकर अंदर खाने नेताओं से व्यक्तिगत स्वार्थों के लिये लाइजनिंग करते रहते हैं।

कुछ ही वर्षों पहले लखनऊ के एक बड़े संपादक का निधन हुआ जिन्होंने बैनेट कोलमेन कंपनी से लेकर कई बड़े ग्रुपों तक में एक छत्र राज चलाया और मुझे भी उनका अतिशय अनुग्रह प्राप्त रहा चूंकि उनके लेखन कौशल और लेआउट व अखबार की डिजाइनिंग का पूरे देश में हिंदी जगत में कोई जवाब नहीं था लेकिन क्या यह सच नहीं है कि जिस मालिक ने भी उन पर भरोसा किया उन्होंने उसे करोड़ों का चूना लगाया। एक जमाने में लखनऊ में हिंदी के सबसे ज्यादा बिकने वाले समाचार पत्र के संपादक का दायित्व उन्होंने मालिकान को यह वायदा कर हथियाया था कि वे हजरतगंज में अरबों की जमीन का फ्री होल्ड उनके नाम मुख्यमंत्री से करा देंगे पर वे ऐसा नहीं कर सके इसलिये नहीं कि उनके सिद्धांत आड़े आ गये हों बल्कि इसलिये कि उनके अपने कामों की सूची ही इतनी लंबी थी कि वे मुख्यमंत्री से उन्हें ही पूरा नहीं करा सके। मालिकान के काम के लिये कहने की नौबत कैसे आती। उनका नाम मुलायम सिंह द्वारा स्वास्थ्य व अन्य प्रकार की सहायता के नाम से मुख्यमंत्री कोष से अनुग्रहीत किये गये पत्रकारों की सूची में भी शामिल रहा और यह सूची तो लगभग सारे स्वनाम धन्य संपादकों का चरित्र उजागर करने में सफल रही थी।

उदयन शर्मा ने रविवार में एक मठाधीश संपादक को बेनकाब करते हुये पूरी स्टोरी छापी थी कि किस तरह पत्रकारिता करने की बजाय वे केंद्र और राज्यों में अपने पक्ष के लोगों की सरकारें बनवाने की उठापटक में व्यस्त रहते थे। कमाल की बात यह है कि इन्हें बाद में जब वे पत्रकारिता के दायित्व से मुक्त हो चुके थे लेकिन अपना अस्तित्व और दबदबा बनाये रखने की उनकी भूख नहीं मिटी थी चुनाव में पेड न्यूज के खिलाफ संघर्ष का बिगुल सबसे आगे रहकर बजाते देखा गया। तमाम संपादक जिन्होंने मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू होने के बाद सवर्ण लड़कों के आत्मदाह की बड़ी निष्पक्ष खबरें छापकर देश को बचाने का महान काम किया था। वे कितने निष्पक्ष थे यह उस समय उजागर हुआ जब सुरेंद्र प्रताप सिंह ने नवभारत टाइम्स में मंडल की उथलपुथल को लेकर रविवारीय पृष्ठ प्रकाशित किया। जो लड़के प्रेम प्रसंग में हताशा मिलने पर अवसादग्रस्त होकर जहर खा बैठे थे उन्हें भी मंडल शहीद बता दिया गया था और यह उदाहरण एकदो नहीं कुल चालीस मौतों में दर्जन भर से ज्यादा थे।

मठाधीश संपादक मालिकान के पैसे से अपनी महंतगीरी मजबूत करने का काम करते थे। संपादकीय कक्ष से लेकर जिलों तक में जातिवाद और माहवारी देने के आधार पर नियुक्तियां की जाती थीं। घटिया लोगों के पत्रकार बनाये जाने के बाद अखबार कितने दिन चलने की उम्मीद की जा सकती है। दैनिक जागरण में मालिकान संपादक बने तो हरिश्चंद्रपत्रकारों के लिये यह करने का अवसर समाप्त हो गया। आज भी दूसरे तमाम अखबारों में हरिश्चंद्र पत्रकारों की प्रभु सत्ता है और इन्हीं करतूतों की वजह से वे दैनिक जागरण के मुकाबले लगातार पिछड़ते जा रहे हैं। दैनिक जागरण में जो लोग ऐसा करने वाले हैं भी उनकी मालिकान की सख्त निगरानी के कारण नहीं चल पाती जिससे तमाम उन लोगों का संरक्षण हो पा रहा है जो अखबार की जरूरत है। पत्रकारों को अपनी गरिमा की दुहाई देते समय यह भी विचार करना चाहिये कि जब वे आम कर्मचारियों की तरह जरूरत से ज्यादा वेतन और सुविधाओं के लिये संघर्ष करते हैं तो जो संघर्ष उन्हें करना चाहिये उसकी ताब उनमें कैसे रह सकती है। यदि पत्रकार यह ठान लें कि वे गुजारे लायक वेतन में ही काम करेंगे लेकिन ऐसे अखबार में काम करेंगे जिसमें सच का साथ देने की स्वतंत्रता उन्हें मिले तब तो हिंदुस्तान का मुकद्दर ही बदल जाये। चूंकि मैं भी पत्रकारिता जगत के महारथियों की बिरादरी का एक अकिंचन सदस्य हूं इस कारण अब मैं उन्हें और ज्यादा अनावृत्त नहीं करना चाहता लेकिन अगर वे अपने पूर्वजों जैसी सामाजिक प्रतिष्ठा के कायल हैं तो उन्हें सुविधा भोगिता का रास्ता बदलने की सोचने का चिंतन करना ही होगा।

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