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खाकी वर्दी वालों का दर्द भी सुनें

बेबाक विचार, KP Singh (Bhind)
बेबाक विचार, KP Singh (Bhind)
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आरक्षण में पदोन्नति का मुद्दा आजकल बहुत गरमाया हुआ है। जिन दलीलों के आधार पर इसका विरोध हो रहा है पुलिस सेटअप में उनकी खराबियां पहले से ही मौजूद हैं। यह दूसरी बात है कि अनुशासित महकमा होने के नाते खुलेआम इस पर विरोध की आवाज नहीं उठती।

उत्तर प्रदेश भर के थानों में आज चार साल की नौकरी वाले दरोगा की मातहती में 25-30 वर्ष सेवा कर चुके सीनियर दरोगा काम कर रहे हैं। दरोगा के स्तर पर पुलिस में प्रमोशन बहुत सीमित हैं, बहुत कम दरोगा हैं जो इंस्पेक्टर भी बन पाते हैं। सीनियर दरोगाओं को उनके सामने जूनियर मोस्ट के नीचे काम करने के लिये कहा जाये तो उसकी मानसिकता कैसे स्वस्थ रह सकती है। आज दरोगाओं की संख्या जितनी बतायी जाती है उनमें आधे मानसिक बीमारी से पीडि़त और कुंठित दरोगा हैं। ऐसी फोर्स के सहारे अपराध नियंत्रण के मोर्चे पर बेहतर नतीजों की उम्मीद कैसे की जा सकती है। फिर भी किसी ने इस विसंगति के निराकरण पर ध्यान नहीं दिया। बहुत से दरोगा तो ऐसे हैं जो मृतक आश्रित के नाते नौकरी पा गये हैं। उनमें कोई पेशेवर क्षमता और गुण नहीं है। कायदे से इनको सातआठ साल परखने के बाद ही चार्ज मिलना चाहिये लेकिन यह भी चार साल बाद ही चार्ज पा रहे हैं। उन्हें विवेचना के पर्चे तक लिखना नहीं आता।

आखिर सीनियर दरोगा कितनी बेइज्जती बर्दाश्त करें। जो सीनियर दरोगा स्वाभिमानी रहे और जो दाल में नमक के बराबर ऊपरी कमाई करते हैं उनके लिये आउट ऑफ टर्न प्रमोशन की व्यवस्था भी परेशान करने वाली साबित हो रही है। आज जो धाकड़ आईपीएस अफसर हैं उन्होंने पुलिस को गिरोह में तब्दील कर दिया है। फर्जी एनकाउंटर और लूटमार के लिये दुस्साहस का गुण होने की वजह से वे खाकी वर्दी में जमींदार का रोल अदा कर रहे आईपीएस अफसरों के नाक के बाल बन जाते हैं। इंस्पेक्टर के जो चंद पद सृजित होते हैं उनमें ऐसे दरोगाओं के आका उन्हें आउट ऑफ टर्न कोटे में फिट करा देते हैं। इस कारण दूसरे दरोगाओं के लिये अवसर और घट जाते हैं। सीनियर दरोगा जो किसी तरह इंस्पेक्टर बन भी गये हैं उन्हें मलाल इस बात का है कि तथाकथित धाकड़ आईपीएस अफसरों के गिरोह के ऐसे दरोगा जिनमें मृतक आश्रित अच्छी संख्या में हैं, प्रदेश की अच्छी कोतवालियों में विराजमान हैं जबकि विधिवत पदोन्नत होने वाले महत्वहीन कोतवालियों में गुजारा कर रहे हैं। पुलिस का यह सिस्टम बदलना चाहिये। इसके लिये कुछ व्यवस्थायें सुझायी जा सकती हैं। फील्ड की नौकरी के लिये दरोगा का सेवाकाल सिर्फ 20 वर्ष सीमित किया जाये। 20 साल बाद हर दरोगा का अनिवार्य रूप से प्रमोशन होना चाहिये। प्रमोशन की व्यवस्थायें दो तरह की हों एक तो वे दरोगा इंस्पेक्टर के लिये चुने जायें जिनका रिकार्ड सर्वोत्तम हो उनको सीधे कोतवाली की इंचार्जी मिले।

दूसरे वे जिनका रिकार्ड असाधारण नहीं है लेकिन जिनकी चरित्र पंजिका में कोई दाग भी नहीं है। ऐसे पदोन्नत इंस्पेक्टरों से विजीलेंस, एंटी करप्शन आदि की विवेचना करायी जाये। थानों और कोतवालियों में भी विवेचना का कैडर अलग कर इन्हें समायोजित किया जा सकता है। इनमें एक कोटा हो जिसमें पांच वर्ष बाद ऐसे इंस्पेक्टरों में से उन्हें छांटा जाये जो फील्ड के लिये उपयुक्त हो सकते हैं। उन्हें भी कोतवाली प्रभारी बनने का मौका दिया जाये। इंस्पेक्टर की 10 वर्ष की नौकरी करने के बाद हरेक की पदोन्नति गजटेड अफसर के रूप में हो। यह हो सकता है कि पदोन्नति प्रक्रिया में सीओ बनने वाले इंस्पेक्टर पहले पुलिस ट्रेनिंग कालेजों में नियुक्त किया जायें। इसके बाद जो बचें उन्हें अन्य साइड ब्रांच में और कुछ जो असाधारण हैं उन्हें ही फील्ड में लाया जाये।

आउट ऑफ टर्न प्रमोशन की व्यवस्था खत्म होनी चाहिये। इससे पुलिस मानवाधिकारों की अवहेलना के दुस्साहस में बढ़ती जा रही है क्योंकि ज्यादातर मामलों में फर्जी मुठभेड़ों के उस्तादों को आउट ऑफ टर्न का लाभ दिया गया है। दरोगा के असाधारण काम को अगर प्रोत्साहित करना है तो उन्हें दीजिये आउट ऑफ टर्न प्रमोशन का इनाम जिनके द्वारा की गयी विवेचनाओं में से 90 प्रतिशत में अभियुक्त सजा के अंजाम तक पहुंच सके ताकि दरोगाओं को असली पुलिसिंग की नसीहत मिल सके। पुलिस के लोगों के कल्याण के लिये विभाग के अफसरों की ओर से पहल होना चाहिये लेकिन सेवानिवृत्त डीजी बीएल यादव को छोड़कर फिलहाल किसी अन्य सीनियर आईपीएस ने ऐसा किया हो यह नजर नहीं आता। कानपुर जोन के आईजी रहते हुये उन्होंने अपने कार्य क्षेत्र के सभी जिलों में थानाध्यक्षों की आम शोहरत का सर्वे अखबारों में विज्ञापन देकर कराया था जिसमें था कि पाठक अपना नाम गोपनीय रखते हुये विज्ञापन में दिये गये बिंदुओं पर सही अभिमत दें। प्रदेश भर में ऐसा सर्वे अखिलेश सरकार को कराना चाहिये ताकि उन्हें मालूम हो कि डीजी से लेकर एसपी तक सारे अफसर जिन एसओ, एसएसओ के मुरीद हैं जनता की निगाह में उनसे बड़ा कोई डकैत नहीं है।

पदोन्नति में गत्यावरोध समाप्त करने के लिये बीएल यादव ने एचसीपी जैसी कई व्यवस्थायें सृजित की थीं। उन्होंने विभाग में रूलिंग दे रखी थी कि मृतक आश्रित को समायोजित करने का मतलब है उसे उसकी क्षमता के अनुरूप नौकरी देना जिसमें यह जरूरी नहीं है कि अगर किसी दिवंगत दरोगा के पुत्र या पुत्री का प्रार्थना पत्र आता है तो उसे उसी के रैंक पर नौकरी में लें। उनके मन में पुलिस की छवि का बदलने का एक सपना था लेकिन सपा की सरकार आने के पहले ही वे रिटायर हो गये। आश्चर्य है कि सपा के नजदीकियों में गिने जाने के बावजूद बीएल यादव के अनुभव और सेवाओं का लाभ उठाने की कोशिश अखिलेश सरकार ने अभी तक नहीं की है। बहरहाल यह उनका अंदरूनी मामला है। प्रदेश की जनता अखिलेश से बहुत उम्मीदें रखती है क्योंकि लोग यह मान रहे हैं कि अखिलेश सुस्त जरूर हैं लेकिन खुर्राट राजनीतिज्ञों की तरह धूर्त नहीं हैं। चीजें उनकी लीडरशिप में नहीं सुधरी तो कभी नहीं सुधरेंगी।

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