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नागपाल का मामला अखिलेश सरकार के गले अटका

बेबाक विचार, KP Singh (Bhind)
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खनन माफियाओं के खिलाफ अभियान चलाकर नेताओं की नाक में दम कर देने वाली आईएएस अधिकारी दुर्गा शक्ति नागपाल के निलंबन का मामला इन दिनों सुर्खियों में है। आलोचनाओं से घिरती जा रही प्रदेश सरकार अब बेकफुट पर नजर आ रही है। अखिलेश के अंकल और सतारुढ़ समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव प्रो. रामगोपाल यादव ने इस मामले के तूल पकड़ने के बाद नागपाल के निलंबन को गलत बता कर संकेत दे दिया है कि जल्द ही उनका निलंबन समाप्त हो सकता है।

पूरे विस्तार से नागपाल  से जुड़े मामले के पहलुओं का विवेचन करने के पहले इस तरह की अतीत की दो नजीरें याद दिलाना चाहता हूं। अपने इशारे पर नाचने  को तैयार न  होने  वाले नौकरशाहों को सबक सिखाने का काम नेता कांग्रेस के जमाने से ही कर रहे हैं। एक समय जब पंजाब का आतंकबाद देश में  जोर नहीं पकड़ पाया था और इस्लामिक आतंकवाद की दूर-दूर तक कोई आहट नहीं  थी राष्ट्रीय स्तर पर कानून व्यवस्था के सबसे बड़े मुद्दे के रूप में चंबल के डकैतों का नाम लिया जाता था। ८० के दशक में चंबल में डकैत गिरोह के रूप में सबसे बड़ी चुनौती मलखान सिंह के रूप में पुलिस के लिये थी। मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और राजस्थान की सरकारें तब लाखों रुपये फूंकने के बाद भी जब उसके गिरोह को नहीं नथ पाईं तब इस मोस्ट वांटेंड़ डकैत सरगना का सरेंडर करा कर मध्य प्रदेश की तत्कालीन सरकार ने सारे देश में सुर्खरु होने का प्रयास किया। वार्ताकारों के माध्यम से मलखान सिंह ने तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह के सामने भिंड के उस समय के एसपी विजय रमन को हटाने की शर्त रखी। विजय रमन की एसपी के रुप में पहली पोस्टिंग थी वे बहुत ईमानदारी से एंटी डकैती आपरेशन में जुटें थे। वे पहले ऐसे एसपी थे जिन्होंने मलखान सिंह के ८० आदमियों के गिरोह से आमने-सामने टक्कर लेकर उसे भागने को मजबूर कर दिया था। इस कारण वे पूरे मध्य प्रदेश में जनमानस के बीच हीरो बन गये थे इस कारण उनको हटाने पर अर्जुन सिंह सरकार जनमानस में खलनायक बन जाती। उसने लोकलाज का ख्याल रखते हुये ऐसा रास्ता निकाला कि सांप भी मर जाये और लाठी भी न टूटे। अर्जुन सिंह ने रमन को भिंड से तो हटाया लेकिन रायपुर का एसएसपी बना दिया। उस समय किसी जूनियर आईपीएस को कवाल टाउन का एसएसपी बनाना असाधारण बात थी इस तरह प्राइज पोस्टिंग देकर अर्जुन सिंह ने अपना काम बनाते हुये भी एक सच्चे अफसर का मनोबल नहीं गिरने दिया।

उत्तर प्रदेश में ऐसा ही एक उदाहरण वीर बहादुर सिंह के समय का है। उस समय जेएन दीक्षित यूपी के डीजीपी थे जिनका आलम यह था कि मुख्यमंत्री भी नियम से हटकर कोई सिफारिश करें तो पूरी नहीं कर सकते थे। ऐसे अड़ियल डीजीपी के रहते मुख्यमंत्री की हनक कैसे जमती पर जैएन दीक्षित जैसे बेदाग अफसर को वे एकदम हटा भी तो नहीं सकते थे। आखिर में उन्होंने रास्ता निकाला। जेएन दीक्षित को डीजीपी के पद से तो हटा दिया लेकिन बदले में उन्हें राज्य लोक सेवा आयोग का चैयरमैन बनाया। तब तक किसी भी आईपीएस अधिकारी को यूपी पीसीएस की कुर्सी पर बैठने का सौभाग्य नहीं मिला था। लेकिन ईमानदार अधिकारी की ऐसी परवाह करना शुरु से मुलायम सिंह एंड फैमिली के स्वभाव में नहीं है। १९८९ में जब नेता जी पहली बार मुख्यमंत्री हुये उस समय प्रदेश  के स्टार आईपीएस अफसर बृजलाल को खुद अपने गृह जनपद इटावा का एसएसपी बनाकर ले गये थे। इटावा के सिविल लाइंस थाने में पुलिस वालों को पीटकर हवालत में बंद मुल्जिमों को छुड़ा ले जाने की घटना हुई जिसमें शिवपाल भी शामिल थे। बृजलाल  ने इस अराजकता के खिलाफ सख्त एक्शन लेना चाहा तो उनका ट्रांसफर  भर नहीं किया गया बल्कि उन्हें संस्पेंड कर दिया गया। यहीं नहीं बृजलाल के बहाने एज पर रुल काम करने की बात कहने वाले अधिकारियों को संदेश देने के लिये मुलयम सिंह ने कानपुर रेंज का कार्यवाहक डीआईजी उन घुंगेश  को बना दिया जो बृजलाल के ही समकक्ष थे। उन्हें हैसियत से बड़ी पोस्टिंग देने की मेहरबानी इस शर्त पर की गई थी कि वे बृजलाल की सीआर इतनी खराब करेंगे जिससे आगे चलकर वे एक भी प्रमोशन को तरस जायें। तब से इटावा में टैक्सी टैपिल के नीचे यमुना में न जाने कितना पानी बह चुका है। मुलायम सिंह के हर कार्यकाल में नियमानुसार काम करने वाले न जाने कितने अफसर अपमानित और प्रताड़ित हुये। अखिलेश मुलायम सिंह के पुत्र जरुर हैं लेकिन दम के कच्चे हैं जिससे रोल बैक कर जाते हैं। मुलायम सिंह होते तो मीडिया में जितना ही ज्यादा मामला उछलता दुर्गा शक्ति नागपाल की मुसीबत उतनी ही बढ़ती जाती। अखिलेश की कमजोरी की वजह से ही यूपीपीसीएस में आरक्षण मुद्दे पर भी सरकार दोनों तरफ से मारे जाने की स्थिति में है। पहले अखिलेश ने सवर्ण प्रत्याशियों के उत्पात से घबरा कर नये आरक्षण फार्मूलें को रद्द किया अब पिछड़े उम्मीदवार सड़कों पर आ गये हैं। सरकार न घर की नजर आ रही है न घाट की। अपने को लंगोट का पक्का कहने वाले मुलायम सिंह सैद्धांतिक प्रतिबद्धता के मामले में सबसे कच्चे हैं। वे पिछड़ों के मसीहा भी बनना चाहते हैं और जब मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू हुई तो रण छोड़ बनने में भी उन्होंने कोई संकोच नहीं किया। परिवर्तन की लड़ाई अजात शत्रु बने रहकर नहीं लड़ी जा सकती। भेदभाव के शिकार लोगों को न्याय दिलाना है तो दूसरे पक्ष की नाराजगी की परवाह क्या करना पर मुलायम सिंह सब को खुश रखना चाहते हैं वे और उनके वंश के लोग सिंहासन पर बने रहें तो पिछड़े भाड़ में चले जायें उन्हें क्या। बहरहाल नागपाल का दूसरी जगह तबादला करके इस मामले को निपटाया जा सकता था लेकिन उनके निलंबन से सरकार की ज्यादती उजागर हो गई है।

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