Menu
blogid : 11678 postid : 216

सर्वोच्चता की होड़ में पिसती व्यवस्था

बेबाक विचार, KP Singh (Bhind)
बेबाक विचार, KP Singh (Bhind)
  • 100 Posts
  • 458 Comments

केन्द्रीय जांच ब्यूरो को पूरी स्वायत्ता की मांग आजकल राष्ट्रीय बहस का मुद्दा बनी हुई है। लीक से हटकर बयान देने के आदी कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने सीबीआई को पिंजरे का तोता करार दिये जाने की सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी का करारा प्रतिवाद किया तो बहुत से लोग तिलमिला गये जिससे बहस की धार और पैनी हो गयी। इस बीच सीबीआई प्रमुख रंजीत सिन्हा ने भी संस्था को पूरी स्वायत्ता देने में खतरे की आशंका जताकर इससे जुड़ी वैचारिक हलचल को और ज्यादा रोमांच और तेजी प्रदान कर दी है।
गैर राजनीतिक पृष्ठभूमि के लोगों के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री पद पर आसीन होने के बाद से सिस्टम में नयी समस्यायें पैदा हुई हैं। संविधान में शक्तियों के विकेन्द्रीयकरण के सिद्घान्त को बेहद महत्व दिया गया है लेकिन कमजोर कार्यकारी नेतृत्व का फायदा उठाते हुए अदालतें अपनी सर्वोच्चता स्थापित करने के प्रयास में इस सिद्घान्त को लगातार झटका दे रही हैं। केआर नारायणन के समय बिहार में राष्ट्रपति शासन लगाने की मंजूरी देने के केन्द्रीय मंत्रिमंडल के निर्णय पर राष्ट्रपति के मोहर लगाने के बाद मामला जब उच्चतम न्यायालय पहुंचा तो उच्चतम न्यायालय ने राष्ट्रपति तक को अपनी टिप्पणी में कटघरे में खड़ा किया है। यह इसकी शुरूआत थी। भले ही केआर नारायणन उच्चतम न्यायालय के फैसले से दबाव में आकर आज तक ग्लानि में डूबे हों लेकिन सही बात यह है कि संविधान में देश की स्थिरता के लिये सत्ता के कई केन्द्र न बनने देने की चेष्टा बहुत ही बलपूर्वक निहित है। इसे ध्यान में रखते हुए अगर केन्द्रीय मंत्रिमंडल कोई ऐसा फैसला करके राष्ट्रपति के अनुमोदन के लिये भेजता है जिसमें तकनीकी रूप से कोई संवैधानिक त्रुटि न हो तो राष्ट्रपति उस पर मोहर लगाने के लिये बाध्य हैं। इसके बावजूद राष्ट्रपति को इस बात के लिये उकसाना कि वे केन्द्रीय मंत्रिमंडल के फैसले में अड़ंगाबाजी करें तो निश्चित रूप से व्यवस्था के खतरे में घिरने की स्थितियां पैदा हो जायेंगी। बिहार के उक्त मामले में राज्यपाल के विवेकाधिकार पर भी उच्चतम न्यायालय ने प्रश्नचिन्ह लगाया है। राज्यपाल ने जिस आधार पर कहा था कि वैधानिक रूप से ऐसा कोई तरीका नहीं है जिससे राज्य के सदन के वर्तमान स्वरूप में सत्ता बनाने के लायक कोई ऐसा गठबंधन तैयार हो सकता हो जो नैतिक औचित्य की कसौटी पर खरा हो जिससे अंदेशा है कि अगर ऐसी सूरत में किसी को सरकार बनाने के लिये आमंत्रित किया जाये तो खरीद फरोख्त होगी जिससे लोकतांत्रिक राज्य की मर्यादा तार-तार हो जायेगी। राज्यपाल ने भले ही राजनीतिक शरारत के वशीभूत होकर यह निष्कर्ष प्रतिपादित किया हो लेकिन इसके तर्कसंगत होने में परिस्थितियों को देखते हुए कोई संदेह नहीं था। इसके बावजूद राज्यपाल के फैसले को लेकर अदालत द्वारा कहा गया कि उन्हें कहां से यह रिपोर्ट मिली कि बहुत का दावेदार गठबंधन बिना खरीद फरोख्त के सफल नहीं हो सकता, किस वैधानिक संस्था से जांच कराकर उन्होंने यह रिपोर्ट तैयार की थी वगैरह वगैरह। सुप्रीम कोर्ट की यह दलील विवेकाधिकार का महत्व ही समाप्त करने वाली है। इसके कारण कोर्ट को एक गलत परम्परा के प्रवर्तन से परहेज करना चाहिये था क्योंकि इसका दूरगामी प्रभाव बहुत गलत होने की आशंका थी।
पहले उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय आपराधिक मामलों की अपील और संवैधानिक मामलों की सुनवाई तक ही अपने को सीमित रखते थे। जस्टिस पीएन भगवती ने प्रधान न्यायाधीश बनने के बाद जनहित याचिकाओं के रूप में उनका दायरा बढ़ाकर उनके अधिकार क्षेत्र के लिये नया द्वार खोल दिया। जिससे कार्यपालिका की निरंकुशता को नियंत्रित कर उसे जवाबदेही के लिये बाध्य किया जा सका जिससे तमाम पीडि़तों को राहत मिली और इसे लेकर उच्चतम न्यायालय की सराहना भी हुई लेकिन कुछ ही दिनों बाद अति न्यायिक सक्रियता पर सवाल उठने लगे तो आला अदालतों को प्रतिरक्षात्मक हो जाना पड़ा। पर सरकारों का नेतृत्व जब ऐसे लोगों के पास पहुंचा जिनमें परिपक्व संवैधानिक विवेक का अभाव रहा तो न्यायालयों का हस्तक्षेप कार्यपालिका की शक्तियों की सीमायें पार करने लगा।
सोचने वाली बात यह है कि अगर पुलिस भी सरकार के नियंत्रण के परे हो जायेगी, सीबीआई और सेना भी स्वायत्त हो जायेगी सारा प्रशासन खुदमुख्तार हो जायेगा तो सरकार इतनी लचर हो जायेगी कि जिसका कोई महत्व ही नहीं रह जायेगा। बाबा साहब अम्बेडकर ने संविधान सभा में देश की स्थिरता की दृष्टि से मजबूत संघ की जोरदार वकालत की थी। जिसका उल्लेख इस संदर्भ में अत्यंत समीचीन है। सरकार को बेहद सशक्त होना चाहिये। उसके द्वारा निष्पक्षता से काम न करना और तमाम संस्थाओं का उसके द्वारा दुरुपयोग करना यह एक अलग मसला है और इसके कारण भी दूसरे हैं। चूंकि हमारा सामाजिक ढंाचा कभी निष्पक्ष नहीं रहा। सदियों पहले इस देश के पूर्वजों ने कहा था कि शब्द ब्रह्म्ïा है लेकिन कार्य रूप में यहां शब्द कूड़े का पर्याय रहा है। जितनी शब्दों की जुगाली यहां होती है उतनी कहीं और नहीं होती। जिससे यहां किसी के द्वारा कही गयी बात का कोई मतलब नहीं होगा। लोग एक कान से सुनते हैं और उसे दूसरे कान से निकाल देते हैं क्योंकि उन्हें मालूम है कि उपदेश करने वाले ही अपने प्रवचन के प्रति निष्ठावान नहीं हैं। आदर्श और अमल को जोडऩे की कोई व्यवस्था देश में नहीं बनायी गयी। तय मर्यादाओं की अवहेलना होने पर दण्डात्मक कार्यवाही होगी ऐसा भी कोई प्रावधान नहीं है। जब तक यह नैतिक और वैचारिक अराजकता रहेगी तब तक मनमानी और पद व शक्तियों के दुरुपयोग का खेल चलता रहेगा। अगर अपने विश्वास को लेकर तालिबान जैसी कट्टरता भारतीय समाज में आ जाये तो जनता का विश्वास तोडऩे वाली सरकार हमेशा के लिये सत्ता से बेदखल हो सकती है। लोकतांत्रिक व्यवस्था होने से ऐसा करने का पूरा दारोमदार मतदाताओं पर होता है। जो सामाजिक सिस्टम गड़बड़ होने की वजह से इस मामले में अपनी जिम्मेदारी निभाने में कोताही करते हैं। वे यदि यह चाहते हैं कि हमारा जातिगत वर्चस्व बना रहे तो न्याय पर आधारित व्यवस्था का निर्माण संभव हो रही नहीं सकता। सामाजिक सिस्टम के शुद्घीकरण का दम खम न न्याय पालिका में है न व्यवस्थापिका और कार्यपालिका में जिससे एक दूसरे की सीमा का अतिलंघन कर अपनी सर्वोच्चता स्थापित करना ही उनके लिये चारा बचा है। सीबीआई को पूर्ण स्वायत्त करने के पीछे इसी प्रवृत्ति की झलक है जिसके कारण कोई फैसला लेने से पहले इससे जुड़े सभी पहलुओं पर सम्यक विचार लाजिमी हैं

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply