Menu
blogid : 11678 postid : 219

सिस्टम का भस्मासुर

बेबाक विचार, KP Singh (Bhind)
बेबाक विचार, KP Singh (Bhind)
  • 100 Posts
  • 458 Comments

भस्मासुर का पौराणिक वृतांत मिथक न होकर हकीकत है। भगवान शंकर की तरह समाज के सिस्टम को आदमी गढ़ता है लेकिन बाद में वह आदमी पर इतना हावी हो जाता है कि वह उससे परे जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाता। आजकल प्रवचन करने वाले सन्त महात्माओं की भरमार है जो भोग विलास को भगवान से मिलन में सबसे बड़ी बाधा बताते हैं लेकिन खुद उन्होंने ऐसी जीवन शैली अपना रखी है कि बड़े-बड़े धन्ना सेठ उनके ऐश्वर्य के आगे फीके नजर आते हैं। कोई स्वयंभू संत 25-30 लाख से कम की गाड़ी में नहीं चलता। उसके रुकने का इन्तजाम पांच सितारा होटल की सुविधाओं से सुसज्जित वातानुकूलित कक्ष में किया जाता है। संत को मालूम है कि आज का सिस्टम ग्लैमर का है जो न हुआ तो संतई की सारी महिमा दो कौड़ी की हो जायेगी।
अधिनायक तंत्र और राजतंत्र से होकर आज का सिस्टम लोकतंत्र तक पहुंचा है जिसके बारे में कहा जाता है कि इसमें कोई प्रजा नहीं है, सभी नागरिक हैं। हर व्यक्ति अधिकार संपन्न है। यह व्यवस्था पूरी तरह उदार और सहिष्णु है लेकिन जैसा कि हर सिस्टम में होता है इसमें भी खराबी के वायरस पनपते गये और आज यह अपनी सारी मूलभूत विशेषतायें खोकर सबसे अधिक शोषक और बर्बर व्यवस्था का रूप ले चुका है। मौजूदा लोकतंत्र में धन बल और बाहुबल से विहीन किसी व्यक्ति की चुनाव जीतने की औकात नहीं रह गयी है। वे लोग जनप्रतिनिधि बनकर सत्ता प्रतिष्ठान में घुस रहे हैं जिनका जन सरोकारों से कोई लेना देना नहीं है। एक तरफ लोकतंत्र और जनप्रतिनिधियों के खिलाफ आक्रोश है तो दूसरी ओर हर चुनाव में प्रायोजित ढंग से मतदान का प्रतिशत बढ़ाया जा रहा है। इसके पीछे साजिश यह है कि भ्रष्ट लोकतंत्र को बचाने के लिये यह साबित किया जा सके कि मतदान का भारी प्रतिशत उसे अधिकतम जन मान्यता होने का सुबूत है। हाल में पाकिस्तान में आम चुनाव हुए जिसमें बहिष्कार का फतवा तालिबानों ने दिया लेकिन टर्नआउट 60 प्रतिशत से ज्यादा रहा। इसे लेकर काफी खुशियां मनायी गयीं लेकिन सही बात यह है कि भारत की तरह पाकिस्तान में भी इस मतदान प्रतिशत से उन लोगों का दबदबा बढ़ा जो हर तरह से पापी हैं। अब ऐसे लोकतंत्र को लेकर जश्न मनाया जाये या माथा पीटा जाये।
यह लोकतंत्र भारत में कैसी अव्यवस्था का संवाहक बन गया है। इसका जायजा लेने की जरूरत है। उदार अर्थ व्यवस्था के विशेषण से सम्बोधित की जाने वाली इसकी नीतियों के लक्ष्य स्पष्ट हैं – पूंजी को ऐसे क्षेत्रों में लगाना जो आवश्यकता के न हों लेकिन जिनमें मुनाफा अधिकतम हो। इस लक्ष्य के चलते संसाधनों का जबर्दस्त केन्द्रीयकरण हो रहा है और अभाव बढऩा इसका अवश्यंभावी परिणाम है। इन नीतियों का अगला लक्ष्य है आवश्यक वस्तु का दायरा बढ़ाना। उदाहरण के तौर पर पहले आम आदमी पैदल चलकर रोजमर्रा की जिन्दगी में गुजर बसर कर लेता था। अब कम से कम बाइक होना अनिवार्य है और उसका पेट्रोल रोजमर्रा के खर्चे में इजाफे की वजह बन गया है। यही स्थिति मोबाइल रीचार्ज कूपन की है। हर काम विद्युत उपकरणों से होने की वजह से बिजली के बिल का खर्चा भी आम आदमी तक के लिये बेतहाशा बढ़ता जा रहा है। दूसरी ओर चिकित्सा, शिक्षा सहित सारी मूलभूत सेवाओं को कारोबार का अंग बनाना भी इन नीतियों की महत्वपूर्ण विशेषता है। अनुदान को खत्म करना, जिससे रसोई गैस पेट्रोल आदि के अनिवार्य खर्चे अप्रत्याशित रूप से बढ़ते जा रहे हैं। यह व्यवस्था नहीं अराजकता है और इस बात को किसी भी निम्न मध्यम वर्गीय परिवार के अनुभव से आसानी से समझा जा सकता है। पहले व्यवस्था थी तो साल भर के खर्च का बजट बनाना आसान था लेकिन आज अचानक रसोई गैस के सिलेण्डर पर सब्सिडी खत्म करने जैसे कदम को उठाने का ऐलान होता है और अगले ही दिन आदमी की घरेलू वित्त व्यवस्था तहस-नहस हो जाती है। पूरी समाज रचना की बुनियाद नैतिक व्यवस्था में निहित है लेकिन अर्थव्यवस्था के इस रूप में नैतिकता का कोई स्थान नहीं है। शेयर बाजार में चलने वाला सट्टा हो या क्रिकेट का सट्टा जुआ को सबसे कुशल व्यापारिक गतिविधि के रूप में स्थापित कर दिया गया है। जमीर की हत्या के लिये उसे स्लो प्वाइजन देकर धीरे-धीरे सुसुप्त कर दिया गया क्योंकि जमीर के रहते नैतिक अराजकता की स्थिति स्वीकार्य हो ही नहीं सकती थी। आज धरती के भगवान डाक्टर के दरवाजे पर मरीज को बिना इलाज के दम तोडऩा ही पड़ेगा। अगर उसके तीमारदारों में डाक्टर के नर्सिंग होम के खर्च को अफोर्ड करने की क्षमता न हुई। यह पाशविक मानसिकता तभी संभव है जब जमीर आदमी के अन्दर से सिरे से गायब हो चुका हो। इस नीति का एक और प्रमुख लक्ष्य है सारे संसार को मुनाफाखोरी का चारागाह बनाने के लिये हर स्तर पर एकरूपता की व्यवस्था। हर समाज की संस्कृति उसकी तमाम तरह की मौलिक विशेषताओं के आधार पर बनती है और विविधता प्रकृति का मुख्य लक्षण भी है लेकिन आज सांस्कृतिक राजनैतिक, भाषागत और हर तरह की भिन्नता को मिटाकर सारे संसार को एक लाठी से हांकने की कोशिश की जा रही है। जो बेपेंदी के लोटे हैं वे तो अपने ऊपर कुछ भी थोपा जाना स्वीकार कर सकते हैं लेकिन जिनमें स्वाभिमान की चेतना बची है वे प्रतिरोध करेंगे। उनमें यह संभव नहीं हो सकता कि खराब सिस्टम को बदलने की न सोचें और मान लें कि सिस्टम से टकराना व्यक्ति की कुब्बत में नहीं है। आदिवासी हों या इस्लामिक समूह जो अपनी इयत्ता को लेकर कट्टर हैं और जो इन्सान की उस नस्ल का प्रतिनिधित्व करते हैं जिनमें सिस्टम का गुलाम बनकर न जीने की जिद हो वे प्रतिरोध करेंगे ही। उन्हें लानत भेजने से काम चलने वाला नहीं है। लानत खुद पर होना चाहिये कि एक पापी सिस्टम के अनुचर बनकर हम क्यों जी रहे हैं। हो सकता है कि प्रतिरोध के लिये सक्रिय प्रत्यक्ष ताकतों का तौरतरीका ऐसा हो जो आतंकवाद से परिभाषित किये जाने योग्य दिख रहा हो लेकिन इस पर तो अचेतन तौर पर लगभग सर्वमान्यता है कि यह सिस्टम जीने लायक नहीं है और इसे बदलने के लिये कुछ किया जाना चाहिये। अगर इच्छाशक्ति जागृत हो जाये तो ऐसे विकल्प सामने आ सकते हैं जिससे सिस्टम को परिष्कृत उपायों से सुधारा जा सके। आज सवाल पैदा हो रहे हैं कि विनिमय की मौद्रिक प्रणाली अभिशाप का रूप ले चुकी है तो क्यों न मुद्रा और वस्तु पर आधारित एक तर्क संगत विनिमय प्रणाली की ईजाद की जाये जिसमें जीवनोपयोगी सामान सुलभता से हर व्यक्ति को सुनिश्चित हो सके। जनप्रतिनिधियों को भ्रष्टाचार के पंजे से छुड़ाने के लिये उन पर व्यक्तिगत परिसम्पत्ति के निषेध जैसी वर्जना थोपी जा सकती है। बहुत कुछ हो सकता है लेकिन सिस्टम से तो आदमी को लडऩा ही होगा। सिस्टम उसका नियंता कैसे हो सकता है क्योंकि आदमी तो सिस्टम का जन्मदाता है।

Tags:            

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply