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कविता-तेरी ख़ामोशी

मेरा प्रयास
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“कोशिश तो कि होती हाले-ए-दिल बताने की,
हम जान हथेली पर निकाल कर रख देते|
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हौले से आवाज़ तो दी होती,
हम तेरे दर्द को अपना बना लेते||
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यूँ ख़ामोश रहने की ज़रूरत न थी,
हम खुद तेरी आवाज़ बन जाते|
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क्या हो गये हम इतने तुम से दूर
कि तुम एक आवाज़ भी ना दे पाये||”
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तेरी आवाज़ सुने लगता हैं ज़माने बित गए,
तेरे ऊपर होते देख दुनिया के सितम, हम टूट गए|
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उठती अँगुलियों के बीच इस कदर घिरा होगा तू,
आज इन जख्मों से कैसे लड़ा होगा तू|
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दिल में समंदर लिए तू कैसे मुस्काया था,
तेरी सादगी ने उस पल फिर से दिवाना मुझको बनाया था|
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उस पल बने रिश्ते को मैं टूटने ना दूँगी,
किनारे से हम साथ चले थे, बीच मझधार में तुझे डूबने ना दूँगी|
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तू खामोशी लिए कब तक बैठेगा,
मैं तेरे इंतज़ार में राहे तकती रहूँगी|”
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