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बूढ़ी कांग्रेस को युवा राजनेताओं को बढ़ाने से रोका किसने है? – (भाग-2)

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(भाग 1 से आगे)…

नौजवान देश की बूढ़ी सियासत

सन 2004 की यूपीए सरकार के मंत्रियों की औसत उम्र 61 साल थी. सन 2009 में मनमोहन सिंह ने जब राहुल गांधी को मंत्री बनने की सलाह दी तब उन्होंने इसे स्वीकार नहीं किया. इंदिरा गांधी 42 साल की उम्र में कांग्रेस अध्यक्ष बन गईं थीं और राजीव गांधी 41 साल की उम्र में प्रधानमंत्री बन गए थे. राहुल गांधी 43 साल के हैं. यह चुनौती उन्हें अपने लिए नहीं पार्टी के लिए स्वीकार करनी चाहिए थी. 2009 के बाद अनेक युवा पार्टी में उभर कर आए, उनमें से ज्योतिरादित्य सिंधिया, सचिन पायलट, जितिन प्रसाद और दो-चार नाम और लिए जा सकते हैं. पार्टी या तो राहुल गांधी का इंतजार कर रही थी या उसकी धारणा कुछ और थी. उसने इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि सन 2020 तक दुनिया की सबसे युवा आबादी भारत की होगी. हालत यह है कि केन्द्रीय मंत्रिमंडल के नवीनतम विस्तार में कैबिनेट में शामिल होने वाले चार मंत्रियों की औसत उम्र 73 साल थी. श्रम और रोजगार मंत्रालय जिसे युवा आकांक्षाओं का सबसे ज्यादा ध्यान देना है 83 वर्षीय सीसराम ओला को दी गई. सन 2009 के बाद से मंत्रिमंडल में जितने भी फेर-बदल हुए वे सब राजनीतिक गोलबंदी के लिहाज से थे. उनका कौशल और गुणवत्ता से कोई रिश्ता नहीं था. राहुल गांधी बेशक खाद्य सुरक्षा, भूमि अधिग्रहण और कैश ट्रांसफर को ‘गेम चेंजर’ मानते हों, पर असली गेम चेंजर आने वाले समय का नौजवान होगा, जिसका जिक्र राजनीति में हो नहीं रहा.

कांग्रेस पार्टी और सरकार का सबसे कमज़ोर पक्ष है उसका जनता से कटे होना. राहुल गांधी का अपने कुछ मित्रों को छोड़ मीडिया, लेखकों, पत्रकारों, अर्थशास्त्रियों या एक्टिविस्टों से सम्पर्क नहीं रहा. जब उन्हें घोषणाएं करनी होती हैं तब वे पैराट्रुपर की तरह आते और चले जाते हैं. वे संसद में अपनी भूमिका दर्ज करा सकते थे. अभी कोयले को लेकर चल रहे विवाद में भी उन्हें सामने आना चाहिए था. हाल में एक पत्रिका ने लिखा कि सच यह है कि वर्तमान लोकसभा के 36 सदस्यों ने कोई सवाल नहीं पूछा. इनमें राहुल गांधी भी हैं. 12 सदस्य किसी विचार-विमर्श में शामिल नहीं हुए. इनके नाम पढ़ेंगे तो आश्चर्य होगा.

प्रधानमंत्री बनने के लिए राजनीतिक धरातल पर जिस किस्म की सक्रियता चाहिए वह अगले छह जाए तो उसका कोई फायदा नहीं. राहुल गांधी की झिझक के पीछे यह थी कि वे अनुभवहीन हैं. पर 41 साल की उम्र में राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने थे. राजीव के पास राजनीति का उतना अनुभव नहीं था, जितना राहुल के पास है. उन्होंने देश के लगभग सभी इलाकों को देखा है. देश की समस्याओं का गहराई से अध्ययन किया है. राष्ट्रीय समस्याओं को लेकर बुनियादी दृष्टिकोणों को समझा है. वैचारिक समझ के लिहाज से देश के तमाम नेताओं के मुकाबले राहुल बेहतर स्थिति में हैं. पर व्यावहारिक राजनीति का अनुभव ज्यादा माने रखता है. उनके इर्द-गिर्द की युवा मंडली में ज़मीन से जुड़े लोग हैं या नहीं कहना मुश्किल है. तमाम सक्रियता के बावज़ूद उनके चारों ओर एक प्रति-चुम्बकीय घेरा है.

अपने घेरे को तोड़ें

आज के हालात 1984 जैसे नहीं हैं. इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की उपस्थिति ने कहानी पूरी तरह बदल दी है. मिनटों में लोकप्रियता बढ़ती है और मिनटों में खत्म होती है. राहुल को अपने इर्द-गिर्द बने घेरे को तोड़ना होगा और फिर बहादुर योद्धा की तरह अपने प्रतिस्पर्धियों से जूझना होगा. यह संग्राम सिर्फ एक व्यक्ति के बूते नहीं लड़ा जाना है, इसलिए उन्हें अपने संगठन का संचालन भी करना होगा. केवल 1971 के गरीबी हटाओ के मुहावरे आज नहीं चलेंगे. आर्थिक सुधार के एजेंडा को जनोन्मुखी किस तरह बनाया जाए, यह सोचना चाहिए. बढ़ता मध्य वर्ग चुनाव-सुधार और बेहतर गवर्नेंस चाहता है. उसे गरीबों की बदहाली पसंद नहीं. क्योंकि मध्य वर्ग का बड़ा हिस्सा इसी निम्न वर्ग से ऊपर उठकर आ रहा है. आज का मीडिया और सामाजिक विमर्श वैसा नहीं है जैसा 1967 से 1971 के बीच था.

राहुल गांधी को आज पार्टी सहारा देकर खड़ा कर रही है. इंदिरा गांधी पार्टी के वरिष्ठ नेताओं के भीतरी विरोध से लड़ते हुए आगे आईं थीं. कांग्रेस की इनकम्बैंसी का ठीकरा सिंडीकेट के माथे फूटा था. इंदिरा गांधी नए दौर की प्रतीक बनकर उभरी थीं. राहुल किसी से लड़कर आगे नहीं आए हैं. मनमोहन सिंह से भी नहीं. बेशक वे गरीबों को भरपेट भोजन देना चाहते हैं, पर कोई भी पूछ सकता है कि ‘गरीबी हटाओ’ के जिस नारे पर 1971 में कांग्रेस को जनता ने सत्ता सौंपी वह गरीबी आज भी कायम क्यों है? और वह कब तक कायम रहेगी? जनता को घटिया शिक्षा का नहीं अच्छी शिक्षा का अधिकार मिलना चाहिए. समस्या कुपोषण की थी तो सात किलो कार्बोहाइड्रेट्स से वह कुपोषण कैसे दूर होगा? क्रोनी कैपटलिज्म अपने आप में समस्या है तो वह किसकी देन है? राहुल को यूपीए की दो सरकारों से जुड़ी अलोकप्रियता का टोकरा भी उठाना होगा. दागी जन-प्रतिनिधियों को लेकर अचानक मौखिक विस्फोट से ही काम नहीं चलेगा. उन्हें तमाम राष्ट्रीय नीतियों पर भी जवाब देने होंगे. ये जवाब विदेश नीति, अर्थव्यवस्था और राजनीति सबसे जुड़े हैं. पिछले कुछ दिन से पूरा आंध्र प्रदेश परेशानी में है. केन्द्रीय नेतृत्व दूर बैठा तमाशा देख रहा है. पिछले साढ़े चार साल में टू-जी, आदर्श मामला, कोल ब्लॉक, कॉमनवैल्थ गेम्स जैसे तमाम मसलों पर चले राष्ट्रीय विमर्श से वे अलग रहे. संसद में उन्होंने शायद ही उन्होंने किसी महत्वपूर्ण बहस में हस्तक्षेप किया हो.

सत्ता जहर का प्याला है

राहुल गांधी एक सरल, उत्साही और आदर्शवादी नौजवान के रूप में सामने आए हैं. जयपुर के चिंतन शिविर में उन्होंने सत्ता को जहर के प्याले का रूपक दिया था. पर यह जहर उन्हें ही पीना है.

क्या वे इस ज़हर को पीकर नीलकंठ की तरह गले पर धारण कर सकेंगे? यह सवाल उनका ही नहीं उस शहरी और युवा मध्यवर्ग का है, जो सत्ता का राजनीति से उकता चुका है. यही शहरी युवा दिल्ली गैंगरेप के बाद राजपथ पर उतरा था.

राहुल संसद भवन के सेंट्रल हॉल में बहुत कम जाते हैं. इस साल मार्च के पहले हफ्ते वे सेंट्रल हॉल में अचानक आए. संवाददाता उनसे सवाल करते उसके पहले ही उन्होंने कहना शुरू कर दिया कि मुझसे यह सवाल करना गलत होगा कि क्या मैं प्रधानमंत्री बनने जा रहा हूं. उन्होंने यह भी कहा कि प्रधानमंत्री बनना मेरी  प्राथमिकता नहीं है. पार्टी को खड़ा करने में उनकी मेरी पहली दिलचस्पी है. मेरी प्रेरणा महात्मा गांधी हैं और मैं गीता के निष्काम कर्म में विश्वास करता हूँ. मैं पार्टी के जनाधार को विस्तृत करना चाहता हूँ. निर्णय प्रक्रिया को व्यापक बनाना चाहता हूँ. दीर्घकालीन राजनीति में मेरा विश्वास है.

मैं शादी नहीं करना चाहता. मैं वंशवाद के खिलाफ हूँ. मेरे भी बच्चे हो गए, तो दूसरे नेताओं की तरह मैं भी उन्हें राजनीति में आगे बढ़ाने की फिक्र में लग जाऊंगा. मैं वैसा नहीं करना चाहता. उनका यह वक्तव्य इसलिए महत्वपूर्ण है कि वे खुद वंशवादी की राजनीति की उपज हैं. जवाहर लाल नेहरू ने इन्दिरा गांधी को बढ़ाया. इन्दिरा गांधी ने संजय गांधी को राजनीति में बढ़ाना शुरू कर दिया था. दुर्घटना में जब उनकी मौत हो गई, तो वे राजीव गांधी को राजनीति में लाईं. वे कांग्रेस संगठन का लोकतांत्रीककरण चाहते हैं. फैसले करने के तौर-तरीकों का विकेन्द्रीकरण चाहते हैं. उन्हें यह भी खोजना या बताना होगा कि यह कैसे होगा. एक माने में वे उदार और सहृदय होकर बात करना चाहते हैं. पर वे महत्वपूर्ण अपने परिवार के कारण हैं. दागी जन-प्रतिनिधियों के मामले में उनके वक्तव्य को लेकर कहा गया कि उन्हें इस मौके पर यह बात नहीं करनी चाहिए थी. इस पर उन्होंने कहा, सही बात कहने के लिए मौका नहीं देखा जाता. उनकी बात सही है, पर यह अधिकार सामान्य कार्यकर्ता के पास नहीं है. राहुल गांधी की सही बात मानी गई अच्छा हुआ, पर साबित यह भी हुआ कि इस सही बात के लिए कैबिनेट के फैसले को वापस कराने की ताकत सिर्फ राहुल गांधी में ही है. कुछ मामलों पर राहुल की स्फुट राय इस प्रकार हैः-

·         प्रधानमंत्री बनने की मेरी कोई इच्छा नहीं है. संगठन के सहारे ज्यादा से ज्यादा लोगों को आगे लाना चाहता हूँ.

·         शादी की कोई योजना नहीं है. शादी और बच्चों के बीच घिर गया तो फिर मैं भी यथास्थितिवादी होकर बच्चों को अपने स्थान पर बिठाने में फंस जाऊंगा.

·         मुझे पता है कि बिना सत्ता के सांसद कैसा महसूस करते हैं. चाहे वे भाजपा के हों या कांग्रेस के. मैं सभी 720 सांसदों को सशक्त बनाना चाहता हूं. चार हजार विधायक और 600-700 सांसद देश को चला रहे हैं.

·         राजनीतिक दल जमीन से जुड़े नहीं हैं. देश को तरक्की के रास्ते पर ले जाने के लिए सबको सिस्टम से जुड़ना होगा. सभी पार्टियों का गठन इस तरह हुआ है, जिसमें युवाओं को महत्वपूर्ण पद हासिल नहीं हो पाता.

·         राष्ट्रपिता महात्मा गांधी मेरे आदर्श और गुरु हैं. मैं गीता के निष्काम कर्म में विश्वास करता हूं. सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह मेरे राजनीतिक गुरु हैं.

·         गाँवों के लोगों से संपर्क से यह समझ में आया कि यहां पश्चिमी ढाँचा लागू नहीं हो पाएगा. यहाँ भारतीय पद्धति से ही बदलाव होगा.

·         देश को तरक्की के रास्ते पर ले जाना है तो सभी लोगों को मिलकर काम करना होगा. कोई भी सरकार अकेले कुछ नहीं कर सकती है. इसमें गाँव के प्रधान से लेकर उद्योगपतियों तक की अहम भूमिका होगी.

·         देश में समस्या नौकरी की नहीं, बल्कि ट्रेनिंग की है. देश के नौजवान संघर्ष को तैयार हैं. हमें सही दिशा देने की जरूरत है. इसके लिए हमें विश्वस्तरीय शिक्षा-व्यवस्था बनाने की जरूरत है. हम क्यों नहीं आईआईटी और आईआईएम जैसे संस्‍थान बना रहे हैं? शिक्षा में उद्योगों को अपना योगदान देना होगा.

·         भारतीय उद्योगपति बेहद साहसी हैं. हमें बस बुनियादी ढांचा को सुधारने की जरूरत है. इसके लिए हमें मजबूत और बड़ी सड़कें बनानी होंगी. बंदरगाह तैयार कर उन्हें कारोबार के लिए प्लेटफॉर्म देना होगा. पहले भारत को ऊर्जा नदियों से मिलती थी, अब कारोबारियों से मिलती है.

कैसे बदलेंगे सब कुछ?

जब राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने तब महसूस हुआ कि एक ईमानदार व्यक्ति प्रधानमंत्री बना है. सन 1985 में कांग्रेस के शताब्दी समारोह में राजीव ने कहा था कि दिल्ली से चले एक रुपए में से पन्द्रह पैसे ही जनता तक पहुँच पाते हैं. और यह भी कि कांग्रेस को ‘सत्ता के दलालों’ से बचाना है. व्यावहारिक राजनीति की राह आसान नहीं है. इसका मतलब यह भी नहीं कि राजनीति में सिर्फ दलाल ही सफल होंगे. राजनीतिक नेतृत्व के समांतर जनता की ताकत भी बढ़ती जाती है. ऐसा लगता है कि पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के टिकट वितरण में राहुल के तेवर से पार्टी के सांसद डरे हुए हैं. उनके फार्मूले फॉर्मूले ने तमाम लोगों को परेशान कर दिया है. क्या गांधी परिवार के प्रति भक्ति रखने वालों पर अनुग्रह की परम्परा राहुल तोड़ पाएंगे? लोकसभा चुनाव में टिकट वितरण की आशंका में केंद्रीय मंत्रियों के होश फाख्ता हैं. इस साल जनवरी में जयपुर के चिंतन शिविर में राहुल ने संगठन में जगह मिलने और टिकट की वैज्ञानिक व्यवस्था बनाने के जो दावे किए थे, उस पर वे अमल कर रहे हैं. साफ रिकॉर्ड, पिछला प्रदर्शन और पिछली बार के वोटों की संख्या जैसे मानदंडों के आधार पर टिकट देने की व्यवस्था हो रही है.

काँग्रेस को अगले चुनाव में नए नारे की तलाश है. राहुल का नारा है कि एक रुपए के पूरे सौ पैसे हम जनता तक पहुँचाएंगे. क्या इस बात पर यकीन किया जा सकता है? उनकी सदाशयता पर यकीन है, व्यवस्था पर नहीं. राहुल अभी तक सरकार से बाहर रहे हैं. उनकी सारी बातें बाहर की हैं. उन्हें बदलाव करने से किसने रोका था? पर इसके लिए उन्हें सरकार के भीतर होना चाहिए था.

साभार: प्रमोद जोशी

Rahul Gandhi In 2014 Election

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