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जो यह जानता है कि किस घड़ी में भैंस के सींग से चढ़ते हुए उसके पूँछ पकड़कर उतरा जाता है वही बिहार की राजनीति मे यह समझ सकता है कि कब किसका हाथ पकड़ा जाए । लालू जिस वक्त नीतीश से हाथ मिलाने की बात अपने दिमाग में सोची होगी, वो वक्त बहुत बलवान था। बिहार चुनाव परिणाम में लालू की स्थिति उस वक्त की ताकत का ही परिणाम है । जहाँ सुशासन बाबू को अपने काम पर भरोसा नही था कि इस बार बिहार में जीत पायेंगे । वहीं लालू, उन्हीं की सुशासन का फायदा उठाकर एक तीर से कई निशाने लगा डाले । अगर लालू नीतीश से हाथ न मिलाते तो शायद उनकी पार्टी का करियर भी दाँव पे लग जाता। लेकिन आज लालू अपनी, अपने पार्टी व अपने परिवार सबका करियर बना दिया। जिस लालटेन का तेल खत्म होने वाला था अब फिर से भर गया।
ऐसा नही था कि नीतीश ने बिहार में काम नही किया। फिर नीतीश को खुद पर सन्देह क्यो हुआ। सन्देह भी ऐसा कि लालू को भी साथ लेना पड़ा। जिसे जनता भूलने की कोशिश कर रही थी । कानून कटघरे में खड़े कर रही थी । क्या अब नीतीश सरकार किसी भी मसले पर बिहार की जनता के लिए खुल कर फैसले ले सकेगी या फिर जनता को बिजली की रोशनी की जगह लालटेन की रोशनी पर काम चलाना पड़ेगा । ये तो आने वाला वक्त ही बताएगा लेकिन इस चुनाव में जीत लालू की हुई है नीतीश की नही । मुख्यमंत्री भले ही नीतीश हो लेकिन सरकार तो लालू ही चलायेंगे ।
जिस प्रकार लालू सुशासन का हाथ पकड़ उसके कन्धे पर लालटेन जलाया है, अब कहना मुश्किल है कि बिहार में सुशासन कितना चलेगा। इतना तो स्पष्ट है कि मौके को कैसे भुनाते है लालू से अच्छा कोई समझ नही सकता । और भारतीय जनता पार्टी के बारे में क्या कहना इस पार्टी में कुछ नेता तो ऐसे है जिन्हे सिर्फ हिन्दु-हिन्दु करने से फुर्सत नही …
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