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गीता के पास जिन्दगी के सारे सवालों का जवाब है। क्यों?

BHAGWAN BABU 'SHAJAR'
BHAGWAN BABU 'SHAJAR'
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गीता के अन्दर जाने से पहले हम मनुष्य के अन्दर उठने वाले सवालों की चर्चा करते है- क्या कोई गीता के पास ये सवाल लेकर जाता है कि हम अपने जीवन में सफल कैसे हो? या किसी अमुक प्रकार की भौतिक सुख किस तरह प्राप्त हो? … नहीं। सभी भौतिक सुख और जीवन में सफलता प्राप्त करने के लिए इस संसार में सभी तरह के भौतिक साधन उपलब्ध है, जिनसे जीवन में सफलता व भौतिक सुख प्राप्त किए जाते है। कोई मनुष्य गीता के पास तब जाता है जब या तो उसने सभी तरह के धन अर्जित कर भौतिक सुख के साधनो का इंतजाम तो कर लिया हो, परंतु अशांत हो। या कठिन परिश्रम करने के बाद भी उसकी महत्वाकान्क्षा पूरी न हो पा रही हो। या किसी अवांछनीय घटना के कारण मन अशांत हो गया हो। मृत्यु का भय सता रहा हो। इस तरह के सवाल जो सिर्फ अध्यात्म ही दे सकती है, गीता उसके लिए गुरू है। और गीता अपने कुछ ही श्लोकों मे मनुष्य के लगभग सभी सवालों के जवाब देने में सक्षम है। जैसे –
अध्याय 6 श्लोक 6 –
बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः। अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत॥
अर्थ – जिस जीवात्मा द्वारा मन और इन्द्रियों सहित शरीर जीता हुआ है, उस जीवात्मा का तो वह आप ही मित्र है और जिसके द्वारा मन तथा इंद्रियों सहित शरीर नहीं जीता गया है, उसके लिए वह आप ही शत्रु के सदृश शत्रुता में बर्तता है।
विश्लेषण – “मन” अर्थात जो किसी वस्तु को देखकर उसे पाने की इच्छा करता है। एक, हम अपनी आँखों से देखते है कि दोस्त ने बहुत सुन्दर कोट पहन रखा है बस। दूसरा, कि काश ऐसा कोट मेरे पास भी होता! अब हम मन से देख रहे है। उत्सुकता होती है जानने की, भाई कहाँ से लाये ये कोट? कितने में लाये? ऐसे मन पर। अब है “इन्द्रियों सहित शरीर” अर्थात शरीर में जितनी भी इन्द्रियाँ है जैसे आँख, कान, नाक, मुँह इत्यादि सहित पूरा शरीर भी जीता हुआ है, अर्थात अपने नियंत्रण में है वह अपना ही मित्र है। जैसे अगर मान लीजिए मन ने सोचा कि ऐसा कोट मेरे पास भी होना चाहिए, (यही वो मन है जो संसार के सभी कुकृत्य का जिम्मेवार है) लेकिन कीमत जानकर मन ठिठक जाता है, फिर अब इन्द्रियाँ काम करने लगती है कि किसी तरह ये कोट अपने पास होना ही चाहिए, सब कुछ भूलकर सारा ध्यान अब कोट की तरफ है, इंतजार कर रहे है कि बस दो मिनट के लिए वो कोट खोलकर कर रखे कि उसे लेकर कहीं छुपा दूँ या लेकर चम्पत हो जाउँ, अब जबतक कोट अपना नहीं हो जाता तब तक वो दोस्त दुश्मन की तरह लगता है। वो मन ही है जिसकी वजह से लालच और फिर चोरी का भाव उत्पन्न होता है और इन्द्रियाँ उसे पूरा करने के लिए वो सभी भ्रष्ट कार्य को अंजाम देता है लिहाजा आज देश में भ्रष्टाचार फैला हुआ है। और गीता कहती है कि जिसका भी मन और इन्द्रियाँ जीता हुआ नही है वह आप ही शत्रु और शत्रुता में बर्तता है। तो गीता बिल्कुल सही है कि अगर वो कोट किसी तरह अपने पास ले आता है, छीनकर या चोरी कर तो एक नए झंझट में फँसता है वो अलग, और उसके अन्दर गलत कार्य के कर चुकने का पश्चाताप और पाप होने का विचार मन को उलझाए रखता है जो किसी को अशांत करने के लिए काफी है। तो अपना मन ही अपना शत्रु हुआ न जो उसे गड्ढ़े में ढ़केलने के लिए उकसाता है, अपना ही मन उसे काले संसार का अंग बना देता है, और आज संसार में ऐसा ही हो रहा है।
इसी अध्याय के अंत मे जब 33 व 34 श्लोक में एक आम इंसान की भाँति अर्जुन पूछता है –
योयं योगस्त्वया प्रोक्तः साम्येन मधुसूदन। एतस्याहं न पश्यामि चंचलत्वात्स्थितिं स्थिराम॥
चंचलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम। तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम॥

अर्थात– हे मधुसूदन! जो यह योग आपने समभाव से कहा है, मन के चंचल होने से मैं इसको नित्य स्थिति को नही देखता हूँ। क्योंकि हे श्रीकृष्ण! यह मन बड़ा चंचल, प्रमथन स्वभाव वाला, बड़ा दृढ़ और बलवान है। इसलिये उसका वश में करना मैं वायु को रोकने की भाँति अत्यंत दुष्कर मानता हूँ।
अगले ही दो श्लोकों में अर्जुन और संसार के सभी प्राणियों के लिए इसका समाधान श्री कृष्ण इस प्रकार देते है –
असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम। अभ्यासेन तु कौंतेय वैराग्येण च गृह्यते॥
असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मे मतिः। वश्यात्मना तु यतता शक़्योअवाप्तुमुपायतः॥

अर्थात – हे महाबाहो! निःसन्देह मन चंचल और कठिनता से वश में होनेवाला है; परंतु हे कुंतीपुत्र अर्जुन! यह अभ्यास और वैराग्य से वश में होता है। जिसका मन वश में किया हुआ नही है, ऐसे पुरूष द्वारा योग दुष्प्राप्य है और वश में किये हुए मनवाले प्रयत्नशील पुरूषद्वारा साधन से उसका प्राप्त होना सहज है- यह मेरा मत है।
पाप-पुण्य और कर्म बन्धनों से मुक्ति के लिए अध्याय 5 के श्लोक 8, 9 व 10 में भगवान श्रीकृष्ण कहते है –
नैव किंचित्करोमीति युक्तो म्न्येत तत्त्ववित। पश्यंशृण्वंस्पृशंजिघ्रन्ंश्न्ंगच्छन्स्वपंश्व्सन॥
प्रलपंविसृजंगृह्णन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि । इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तंत इस्ति धारयन॥
ब्रह्मण्याधाय कर्माणि संगत्यक्त्वा करोति यः। लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा॥

अर्थात – तत्त्व को जाननेवाला सांख्योगी तो देखता हुआ, सुनता हुआ, स्पर्श करता हुआ, सूँघता हुआ, भोजन करता हुआ, गमन करता हुआ, सोता हुआ, श्वास लेता हुआ, बोलता हुआ, त्यागता हुआ, ग्रहण करता हुआ तथा आँखों को खोलता और मूँदता हुआ भी सब इन्द्रियाँ अपने-अपने अर्थों में बरत रही हैं- इस प्रकार समझकर निःसन्देह ऐसा माने कि मं कुछ भी नहीं करता हूँ॥ जो पुरूष सब कर्मों को परमात्मा में अर्पण करके और आसक्ति त्यागकर कर्म करता है, वह पुरूष जल से कमल के पत्ते की भाँति पाप से लिप्त नहीं होता।
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इसी तरह गीता की कोशिश मनुष्य को इस संसार रूपी माया के जाल को तोड़कर जीने की है। गीता मनुष्य को निर्भय बनाती है, सभी तरह के वे कर्म-कांड जो व्यर्थ में किए जाते है, उससे बचने के लिए कहती है। प्रेम और सदभाव से जीने की सलाह है गीता की।
अगर कोई इतना ही मान कर जीना शुरू करे तो उसे अपने जीवन में किसी तरह के कोई सवाल निरूत्तर नहीं होंगे। हमेशा पुण्य करता हुआ आनन्दमय जीवन को उपलब्ध होगा।
आवश्यकता पड़ने पर सभी श्लोकों का विश्लेषण करूँगा … धन्यवाद.

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