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जीवन और आध्यात्म

BHAGWAN BABU 'SHAJAR'
BHAGWAN BABU 'SHAJAR'
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पल-पल मृत्योंमुख जिन्दगी से हम सभी काफी कुछ सपने देखने लगते है. और उन सपनो को पूरा करने की भाग-दौड़ और आप-धापी में हम मृत्यु को भूल जाते है. जीवन से मोह बढ़ने लगता है. और कभी-कभी जब जिन्दगी में कुछ सफलता हाथ लगती है. तो ये मोह और भी गहरा हो जाता है. सभी इस मोह से इतने मोहित हो जाते है. की वो एक भूल कर बैठते है. और इस मोह को ही वो सुख, स्वर्ग और आनंद मान लेते है. और यह मोह बुलबुले की तरह जब टूट जाता है. फिर लोग इतने विचलित हो जाते है जैसे समंदर में तूफ़ान आ गया हो और घर समंदर के किनारे हो और अब क्या करे समझ में नहीं आ रहा हो….


जो भी वक़्त सामने आये उसे अपना जिन्दगी बना लो. उसी में ढल जाओ. उसी के लिए बन जाओ. किसी को दुःख तभी होता है जब उसके द्वारा चाही हुयी वस्तु / मंजिल उसे न मिली हो, उसका कोई अपना खो गया हो. किसी को डर तभी लगता है- जब उसे अपनी जिन्दगी पर खतरा महसूस होता है.


इस संसार में जो भी है उसे जीना. उससे मोह नहीं लगा लेना. जब-जब जिससे मोह लगाओगे उससे एक दिन तुम्हे दुःख मिलेगा ये सत्य है. क्योंकि जिन चीजों से तुम मोह लगाओगे वो एक दिन बिखर जाएगा. क्योंकि इस संसार की हर वस्तु, यहाँ तक की तुम भी यहाँ रहने नहीं आये हो. इसलिए किसी बिखर जाने वाली वस्तु से मोह लगा कर अपने-आपको दुःख के सागर में क्यों डुबो रहे हो.


जैसे एक दाई (अम्मा) किसी घर में काम करने जाती है. बड़े घर में जाती है. जब कभी बड़े घर के बच्चे रोते है तो अम्मा उसे चुप कराती है. जैसे वो बच्चा अपना है. — “ओ…ओ ….ओ…. मेरा लल्ला, मेरा बच्चा, दूध पी ले, ओ ……ओ….चुप हो जा, ” जबकि वो जानती है की ये बच्चा मेरा नहीं है. फिर भी उसे चुप कराती है. शाम होते ही अम्मा अपने घर को लौट जाती है. सब कुछ भूल कर, जब वो वच्चे को चुप कराती है तो ऐसा लगता है की वो उसी का बच्चा हो. .. हो सकता है अम्मा कल किसी दुसरे के घर काम करने लगे तो भी वो उस घर के बच्चो को ऐसे ही खिलाती है चुप कराती है. प्रेम करती है. आप भी अपने बच्चो से अपने रिश्तो को अपना माने, लेकिन अपना जाने नहीं क्योकि एक दिन सब कुछ खो जाने वाला है, ऐसा समझने से ये होगा कि इसके खोने पर कोई गम न होगा. आप अपने बच्चो से, अपने रिश्तो से प्रेम करे लेकिन ये जानते हुए कि एक दिन ये सब खो जाने वाला है.


यहाँ हर इंसान को उसी दाई की तरह जीना होगा अगर दो रिश्तो में घृणा और द्वेष को हटाना है. क्योंकि मैं देखता हूँ एक अपने और नजदीकी रिश्तों में दरार का कारण होता है सिर्फ “एक दुसरे से पाने की इच्छा.”. इच्छानुसार न पाने के बाद एक-दुसरे के प्रति प्रेम का कम हो जाना. एक इंसान सिर्फ उसी की मदद करता है जिससे कुछ पाने की इच्छा होती है. जहाँ लगता है की यहाँ से कुछ मिलने वाला है वही वो मदद करता है. और जहाँ उसे कुछ मिलने की उम्मीद नहीं होती वहां वो देखता भी नहीं है चाहे वो उसका बाप ही क्यों न हो.


मेरा मतलब यहाँ रिश्तो को निभाने की नहीं, यहाँ सिर्फ इंसानियत जैसे रिश्तो को बनाने की है. सभी को इंसान ही समझे, अपना माने, धर्म के नाम पर बंट कर एक दुसरे से अलग न समझे. जहाँ भी जिसको जरुरत हो और आपको ये लगता हो की उसे मदद की जरुरत है और आपसे हो सकता हो तो उसे जरुर कीजिये बेहिचक कीजिये बिना कुछ सोचे कि कभी ये हमारी मदद करेगा या नहीं.


मृत्यु द्वार है जीवन का. क्यों?
क्योंकि मृत्यु के बाद हम एक नए जीवन की शुरुआत करते है. और नया जीवन क्या होगा कैसा होगा वो मृत्यु से पहले के जीवन पर निर्भर करता है. मृत्यु के समय आपका भाव क्या था, यही अगले जन्म का शुरुआत होगा. यही अगले जन्म का चुनाव होगा. ये आपका चुनाव होगा. हमने किस तरह से जीया है. ये जीना वो नहीं है जो बाहर से दिखाई देता है. मतलब आपने किस भाव से जीया है अपने जीवन को, पूरी जिन्दगी में आपने जो भाव लेकर जीया है. अपनी जिन्दगी को समझा है, वही भाव आपके मृत्यु के समय होगा. यही भाव ये निर्धारित करेगा की आपका अगला जन्म क्या होगा. कैसा होगा.

आप के लिए सवाल –
(1.) मैंने सुना है कि एक सन्यासी / वैरागी को उसकी मृत्यु के बाद उसे गंगा में बहा दिया जाता है.. क्या ये सच है? यदि हाँ तो क्यों ? क्या उसे अपने धर्म के हिसाब से अंतिम-संस्कार नहीं करना चाहिए?
(२) अगर किसी को उसके धर्म के हिसाब से अंतिम-संस्कार न किया जाए तो क्या होगा?

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