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सत्ता के पेंच में लालची होने का खतरा

BHAGWAN BABU 'SHAJAR'
BHAGWAN BABU 'SHAJAR'
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ये कोई अरविन्द केजरीवाल का चमत्कार नहीं, सिर्फ वक़्त का तकाजा है कि “आप” ने अन्य पार्टियो के मूँह पर झाड़ू दे मारा। माहौल बना था भ्रष्टाचार और महंगाई के खिलाफ, जनता दोनों पुरानी पार्टियों के काम-काज के तरीको को देख चुकी थी, जनता कुछ नया देखना चाहती थी, और अन्ना के भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन के सक्रिय सदस्य अरविंद केजरीवाल ने जो अपना घोषणा-पत्र जनता को दिखाया वो सभी दलों से बिल्कुल अलग था, असम्भव सा था लेकिन उसमें नेताओ द्वारा किए जाने वाले भ्रष्टाचार से मुक्त होने की उम्मीद थी। आप को मिली सीट चुनावी सीट नहीं बल्कि जनता की उम्मीद है जो अरविन्द केजरीवाल के द्वारा उसे पूरा होते देखना चाहती है। लिहाजा अरविन्द केजरीवाल को सत्ता में आकर अपने घोषणा-पत्र में किए वायदे को पूरा करना चाहिए, भले ही उसे इसके लिए शाम, दाम, दण्ड, भेद या कोई भी युक्ति लगानी पड़े। क्या ऐसा करने पर अरविन्द केजरीवाल की छवि धूमिल हो जाएगी? मुझे नही लगता ऐसा हो पायेगा। किसी बहुत बड़े अच्छे कार्य को अंजाम देने के लिए अगर छोटीँ-मोटी गलती की जाए तो जायज माना जायेगा, और जहाँ सवाल राष्ट्रहित का हो तो फिर सब कुछ दाँव पर लगाना उचित होगा। लेकिन अब अरविन्द केजरीवाल सत्ता में जाना नही चाहते तो क्या जनता की उम्मीद फिर से विपक्ष में बैठ कर सिर्फ मुँह ताकेगी, और भ्रष्टाचार और महंगाई जैसे मुद्दे पर सत्ता पर लांछन लगायेगी, और भाषण देकर अपना कार्यकाल पूरा करेगी। लेकिन जिस कर्मयोगी होने का दावा कर अरविन्द केजरीवाल ने जनता को भ्रष्टाचार मुक्त रास्ता दिखाने की बात कही थी, उसका क्या होगा? या ऐसा तो नही कि अरविन्द केजरीवाल अपने ही घोषणा पत्र में किए वायदे में फँसते दिखाई दे रहे है, इसलिए सत्ता में बैठना नही चाहते। कुछ भी हो जनता किसी भी मायने में अब न तो दूसरा चुनाव पसन्द करेगी और न ही पुराने ढ़र्रे पर शासन व्यवस्था को सहन करेगी।
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जिस तरह से दिल्ली की सत्ता पर बैठने के लिए तू-तू मैं-मै हो रही है और अपनी बात पर अडिगता दिखानी की कोशिश की जा रही है उससे स्पष्ट होता है दिल्ली में चुनाव फिर से होगा। इस तू-तू मैं-मैं में दोनो पार्टियाँ सिर्फ ये साबित करना चाहती है कि वो सत्ता के लालची नहीं, और उन्हे अगले चुनाव में बहुमत मिले। अरे जब सत्ता नहीं चाहिये थी तो चुनाव क्या सीट में पेंच फँसाने के लिए लड़े थे? दोनो पार्टियों द्वारा यह साबित करने के इस मकसद से कि वो लालची नहीं है, अगर अगला चुनावी परिणाम भी कुछ इसी तरह का रहा तो क्या होगा दिल्ली का?
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जहाँ पहले अन्ना हजारे भी अरविन्द केजरीवाल के द्वारा पार्टी बनाये जाने पर नाखुश दिखाई दे रहे थे, वहीं अब केजरीवाल की सफलता पर फूले नहीं समा रहे है, और विपक्ष में बैठने की नसीहत भी दे डाली है। क्या अन्ना हजारे को ये लगता है कि विपक्ष में बैठकर जनलोकपाल बिल पारित हो सकेगा? क्या अन्ना भी चाहते है कि चुनाव फिर से हो? क्या बार-बार चुनाव होना राष्ट्रहित में है?

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