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अब तुम लौट आओ वसुंधरे!

मेरा देश मेरी बात !
मेरा देश मेरी बात !
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अब तुम लौट आओ वसुंधरे!

सूरज ने उगते उगते पूछा, हे वसंधुरे!
तेरे तन पर ये कैसे धब्बे?
कुछ लाल लाल कुछ काले काले
कुछ बिल्कुल ताज़ा, कुछ सूख चुके हैं ?
जगह जगह कुछ ऊँचे कुछ गहरे गढ्ढे ?
कौन है वो? किस ने की दुर्गत तुम्हारी?

कैसे बोलूं, क्या कहूँ स्वामी,
मेरा और तुम्हारा अंश हैं
इक दूजे को कहते मानव
पर कर्मों से दिखते दानव
कुकरमुत्ते से उग आए हैं
रोम रोम पर चढ़ आए हैं
वनस्पति सब नष्ट कर चुके
पशु पक्षी भी खा चुके हैं
चमक दमक से अंधे होकर
गरभ चीर कर,
सदियों से कुछ खोज रहे हैं
उदर ये सारा खोल चुके हैं
शिरा शिरा टटोल चुके हैं
मेरे हृदय से लेकर लहू मेरा,
मेरी ही छाती पर,
मोटर अपनी दौड़ते हैं, इतराते हैं
इक कहता है मैं हूँ उसकी
दूजा कहता ये मेरी है|
छीन झपट लो, नहीं तो बाँट लो
यही मंसूबे बाँधा करते|
यही बात है, इसी बात पर
आपस में हैं लड़ते झगड़ते
मेरे ही भीतर से ले कुछ कुछ
जाने क्या क्या बुनते रहते
फिर आपस में लड़ने की खातिर
मेरी ही छाती पर दागें गोले
इन्हीं बंमों से छलनी सीना
इन्हीं के लहु के दाग़ लगे हैं
जो रक्त वर्ण हैं, बिल्कुल ताज़ा
श्याम वर्ण, जो सूख चुके हैं

आश्चर्य है! दिवाकर बोले,
आश्चर्य है!
तुम तो हो मेरी, हो न मेरी
फिर उनकी कैसे?
कैसे वे अधिकार जताते?
इक दिन मुझको चंदा मिला था
मैने सुना है उस पर भी इनकी बुरी नज़र है
देखो प्रिय, बहुत हुआ अब
या तो तुम वापस आ जाओ
नहीं कहो दो चार कदम, मैं ही बढ़ आऊँ?

न न स्वामी, ये न करना
तुम्हें कसम है एक कदम आगे न बढ़ना
पास आए तो बुध और शुक्र की भाँति
मैं भी बांझ हो जाऊंगी
जीव रहेगा, जल न वायु
वाष्प बन सब उड़ जाएगा
सुंदर पौधे पेड़ न होंगें
पत्ता पत्ता जल जाएगा
दूर गये तो भी है मुश्किल
राहु और केतु की भाँति
मेरा सब कुछ जॅम जाएगा
हिम होंगे सब नदियाँ नाले और समंदर
तब भी इक न जीव बचेगा

कैसी विडंबना, भानु बोले – 2
तन घायल है मन घायल है
अति व्यथित हो और दुखित हो
फिर भी उनके जीवन की चिंता?

माँ हूँ न, फिर वसुधा बोलीं
माँ हूँ मैं, ममता नहीं मरती
अपने अंश का सपने में भी
बुरा न करती
तुम भी क्या हो?
कह दो कि तुम पिता नहीं हो?
शरद ऋतु में जब भी मैं
पीहर अपने को जाती हूँ
बड़े जतन से हिम जमा कर
गहने अपने बनवाती हूँ
ग्रीष्म ऋतु में पास आते ही
मुकुट शीश का, बाज़ुबंद और पाँव की पायल
सब पिघला देते
बना बना जल नदियाँ नाले
सब भर देते
सागर से भी उठा उठा जल
छिड़कते रहते, वर्षा करते
तुम न करो तो क्यों हो जीवन
क्यों हो ये मानव की ज़ात?
फ़िक्र करो न, करो न स्वामी
अपने जी को तनिक उदास
जब तुम राह पर हो, मैं राह पर हूँ
राह पर हैं नक्षत्र सभी और तारागण भी
मैं विश्वस्त हूँ, इक न इक दिन
हम सब के मालिक
इन को भी सद्बुद्धि देंगे
सर्वस्व गँवा कर या कुछ पाकर
ये भी राह पर आ जाएँगे|
ये भी राह पर आ जाएँगे||

भगवान दास मेहंदीरत्ता
गुड़गाँव

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