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जाट ऐसे तो न थे !

मेरा देश मेरी बात !
मेरा देश मेरी बात !
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होश संभालना किसे कहते हैं, नहीं मालूम, लेकिन आज से ठीक 54 वर्ष पहले जब मैं कोई नौ बरस का रहा हुंगा, एक हाथ में मुलतानी मिट्टी से पुति हुई तख़्ती, कंधे पर टंगा,एक घर का सिला हुआ थैला जो अक्सर लोहे की दवात से बिखरी हुई श्याही से काला हुआ रहता था, सरकंडे से बनी एक कलम, एक दवात और एक क़ायदा ले कर, कस्बे की दीवारों पर टीन से बने मार्के से छपे हुए छापे ” चीनी पागल कुत्तों को मार दो, चीनी पागल कुत्तों को मार दो” पढ़ता हुआ स्कूल जाता था| घरों के आस पास जगह जगह जेड आकार के खोदे गये गढ़े, देश में फैला निराशा व भय का माहौल, आज भी मानस पटल पर उकेरा हुआ सा है|
देश में लगभग हर शै की कमि थी| कंकड़ मिले गेहूँ, पत्थर मिले चावल, पानी से भीगी चीनी और लीटर के दाम पर पौन लीटर मिट्टी का तेल पाने के लिए जून माँह की दोपहरी में सैकड़ों की लाइन में एक अबोध बच्चे का घंटों अपनी बारी आने का इंतज़ार करना, स्कूल जाने से पहले उसके पिता का अपने काम पर हाथ बंटाने, मुँह अंधेरे अपने साथ ले जाना, किसी पेड़ के तने के दूसरी ओर बैठ कर अपने कद से दोगुनी बड़ी क्रोत या आरा खींचना, लकड़ी की छोटी से छोटी कत्तल या फांचर एक बोरी में भर, जलाने के लिए अपने सिर पर रखकर घर ले आना, परीक्षा समाप्त होते ही अपनी कापियों के पन्नों से लिफाफे बना कर बेच आना, गर्मी की छुट्टियों में आइस फेक्ट्री से 25 पैसे की 25 आइस कैंडी खरीद कर 3 पैसे की दो बेच कर पूरे 12 पैसे मुनाफ़ा घर लाना, पूस की ठिठुरती सुबह जब माँ भेड़ की ऊन से बने हाथ से बुने कंबल को सिर के उपर से कंबल के दोनों सिरों को गर्दन के पीछे बाँध कर बेकरी वाले की टीन की काली ट्रे हारमोनियम की तरह गले में लटका देती तब गली गली “डबल रोटी रस ए” की आवाज़ लगाना| स्कूल के बाहर मित्रों का 5 पैसे का मलाई बरफ खरीदना और बरफ वाले से हठ पूर्वक रूँगा दिलवाना और हथेली के पृष्ठ भाग पर बरफ जैसे ठंडे उस्तरे की वो छुवन, सब का सब अच्छे से याद है| याद है, छ: छ: बच्चों के स्कूल की फीस जुटाने को माँ का, कई रुमालों की गाँठे खोलना, दाल चावल के अनेक डिब्बे टटोलना भी याद है|
लेकिन कक्षा में ऐसे भी कुछ बच्चे हैं जिन्हें स्कूल फीस देनी ही नहीं पड़ती ! अबोध मन स्वयं से ही प्राय: ये प्रश्न पूछ बैठता| माँ से मिला इसका उत्तर, “बेटा, ग़रीब लोग फीस नहीं देते, सरकार ग़रीब लोगों की फीस माफ़ कर देती है|” मन फिर से प्रश्न करता, हमसे भी ग़रीब? माँ चेहरे पर आए भावों को बूझ लेती| क्षण भर को ख्यालों में खोने के बाद बतलाती, “बेटा, कभी हम तो बहुत खुशहाल थे | तब हम इसी पंजाब प्रांत के उत्तर पश्चिम भाग में रहते थे| अपने खेतों से ज़रूरत की प्रत्येक वस्तु प्राप्त हो जाती थी| दूध घी, अन्न, धन किसी चीज़ की कमि नहीं थी| फिर एक दिन देश विभाजन की आग हमारे आशियाने जला कर ख़ाक कर गई| हमें वहाँ से खड़ेद दिया गया | महीनों भूख, प्यास को दबाए, दर दर की खाक छानने के बाद कहीं पैदल तो कहीं रेलगाड़ियों में किसी मच्छवारे के जाल में भरी मछलियों की तरह भर कर पंजाब के इस दक्षिण पश्चिम भाग में उड़ेल दिया गया | तन के दो कपड़ों के सिवा और कुछ न था, अनेक महिलाओं ने तो एक दुपट्टे के दो टुकड़े कर के आधा कमर पर और आधा सिर पर ले रखा था| कुछ रोज तो कुछ समझ नहीं आया कि ये क्या हुआ, कुछ दिन खैराती शिविरों में कट गये धीरे धीरे त्रासदी से उबरने के प्रयास होने लगे | कुछ दिन बाद हम लोग कस्बे से बाहर एक बस्ती में आ गये| यहाँ कुछ कच्चे घर खाली पड़े थे शायद हमारी ही तरह यहाँ के मुसलमान उन घरों को खाली छोड़ गये थे| घर की सफाई करते वक्त घर से एक कुल्हाड़ी, फावड़ा आदि कुछ औज़ार मिल गये जिन्हें बेचने के लिए पिताजी कस्बे की ओर जा रहे थे कि उन्हें लकड़ी काटने का काम मिल गया, मज़दूरी में क्या क्या मिला मालूम नहीं, लेकिन पिताजी कुछ मिट्टी के बर्तन, थोड़ा अनाज, शॉक सब्जी और थोड़ा नमक ले कर लौटे थे,” माँ ने बताया, तभी से पिताजी लकड़ी का काम करते आ रहे हैं |
तब का पंजाब आज का हरियाणा और प्रसिद्द जिला रोहतक, जाट बाहुल्य वाला क्षेत्र था| हमें यहाँ रिफूजी अथवा शरणार्थी की सन्ज्ञा दी गई, चौथी पीढ़ी आरम्भ हो चुकी लेकिन मौलिक पहचान आज भी शरणार्थी ही है लेकिन शरणार्थियों के पुन्नर्वास में हरियाणा के जाटों की भी मत्वपूर्ण भूमिका रही है| न केवल त्रासदी के समय बल्कि बाद के कई वर्षों तक भी दिल खोल कर सहायता करते रहे | मुस्लिमों के प्रति रोश लेकिन शरणार्थियों के प्रति पूर्ण हमदर्दी थी|
मैं ये समझता हूँ कि जाटों को किसी जाति विशेष की सज्ञा देना उचित न होगा| जाति नहीं एक सभ्यता का नाम है जाट| आदिकाल से जिन लोगों ने जंगलों को साफ कर के खेती योग्य बनाया, जंगली जानवरों का सामना किया, वो जिन्हें अन्न उपजाने, अन्य कमज़ोर वर्गों की सुरक्षा करने व गोरक्षा का जिम्मा दिया गया| अपने पराक्रम और शौर्य के कारण ही जिन लोगों को राजाओं महाराजाओं दवारा ज़मीन दी गई वे ज़मींदार ही जाट कहलाए होंगे | पंजाब में खेती करने वाला स्वयं को जट, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, राजस्थान में जाट कहलाते हैं| मेरे विचार में तो कृषि करने वाला प्रत्येक व्यक्ति जाट ही कहा जाना चाहिए| जाट का मुख्य पेशा खेती ही है| लेकिन एक बात तो तय है चाहे कितना भी क़र्ज़ के बोझ तले दबा रहा होगा किसान, वह कभी भीख में कुछ नहीं लेता | वह अन्न्दाता है और वही रहना चाहता है| जाट हमेशा से ही धर्म भीरू रहा है| प्रत्येक जीव के लिए अपने अन्न में से हिस्सा निकालना ही वह अपना धर्म समझता है| असहायों की सहायता करने को सदैव तत्पर रहता है जाट|
आप अवश्य पूछेंगे फ़रवरी, 2016 में जो हरियाणा के जाटों ने किया वो किस धर्म का नमूना था | निसंदेह आरक्षण की आड़ में जो कुछ भी हुआ न तो सहनीय है और न ही अक्षम्य है| इस उत्पात के दोषियों ने अवश्य ही माता के दूध को लज्जित किया है | हर उस माँ की कोख अवश्य शर्मिंदा हुई होगी जो लोग खूनी खेल में शामिल रहे होंगे| लेकिन इस तरह की घटनाओं के लिए मुख्य रूप से अपने देश की घिनौनी राजनीति ज़िम्मेदार है और ज़िम्मेदार है बुनियादी शिक्षा से अध्यात्म का लुप्त हो जाना| (अन्य धर्मावलंबी ये न समझें कि अध्यात्म का अर्थ अयोध्या में राम मंदिर बनाना होता है| प्रत्येक जीवधारी में आत्मा, रूह, soul, ज़मीर, अंत:करण नाम का कुछ होता है, इस कुछ के गुण, धर्म और शरीर से इसके संबंधों का अध्ययन ही हिन्दी और संस्कृत में अध्यात्म कहलाता है| अध्यात्म का ज्ञान आदमी को इंसान बनाए रखता है|)
तो क्या फ़रवरी माँह में हरियाणा में हुए मौत के तांडव के ज़िम्मेदार केवल और केवल जाट हैं? आरक्षण की आग को हवा तो दी है वोटों की घिनौनी राजनीति करने वाले नेताओं ने, तीन चौथाई सदी से चली आ रही देश की नीतियों ने| हरियाणा में एक बार फिर विभाजन और 1984 जैसे हालत पैदा करने के लिए ज़िम्मेदार तो वे राजनेता ही हैं जो वोटों की खातिर देश को जातियों में बाँट कर जनता के बीच ख़ाइयाँ पैदा किए जा रहे हैं| जो अपनी राजनीतिक रोटियाँ सेकने के लिए किसी हद तक गिर सकते हैं| नेताओं की कुटिल राजनीति, दोगले व्यवहार, त्रुटिपूर्ण नीतियों और अमीर ग़रीब में बढ़ती खाई ने ही आज के युवा के दिलों में आक्रोश, व्याकुलता और असुरक्षा के भाव भर दिए हैं |
जैसे जैसे समय का पहिया और आगे बढ़ा मैं भी स्कूल से निकल कालेज में आ गया | उधर पिताजी का भी खुद का रोज़गार हो गया था अब वे इक्का दुक्का पेड़ खरीद कर कटवा कर बेचने लगे थे| आमदन ठीक ठाक थी लेकिन इतनी भी नहीं कि छ: बच्चों की पढ़ाई, जूते, कपड़े, बीमारी हारी, तीज त्योहार पर खुला खर्च कर सकें| 22 रुपये महीना कालेज की फीस भी मेरे लिए अच्छी ख़ासी रकम थी | ये समझो कि तीन महीने का राशन या महीने भर का दूध का बिल हो सकता था 22 रुपये| यहाँ भी न केवल बहुत से विद्यार्थियों को फीस की छूट थी परंतु कुछ अनुदान राशि भी मिला करती थी | लेकिन तब मन में एक आत्म संतोष का भाव था| एक प्रसन्नता थी कि कम से कम अब दिन पहले जैसे नहीं रहे|
थोड़ा समय और बीता | अब ज़िम्मेदारियाँ सामने खड़ी थीं| देश पूरी तरह सियासतदानों के चंगुल मे फँस चुका था| बेतहाशा जनसंख्या वृद्दी और भ्रष्टाचार, बेरोज़गारी नामक दानव को जन्म दे चुके थे|पहली बार पीड़ा का एहसास हुआ जब देखा कि समृद्ध और धनाढ्य लोग भी आरक्षण की बैसाखियाँ पहन धड़ा धड़ उन्नति की सीढ़ियाँ चढ़ते जा रहे थे| अंदाज़ा लगा सकते हैं? किसी व्यक्ति पर क्या गुजरती होगी जब 16-17 वर्ष की सेवाओं के पश्चात किसी के पददोन्न्ति की बारी आने को हो और उसका पद छीन कर किसी 5-6 वर्षीय अनुभवी को उसका पद दे दिया जाए? अवश्य दुखेगा साहब ! जब आपके बीस वर्ष की बेदाग, निष्कलंक सेवाओं को पछाड़ कर किसी पाँच वर्षीय अनुभवी को आपका सर्वश्री नियुक्त कर दिया जाता है तो दुख़्ता है साहब | आपको अपने किसी सहकर्मी से कष्ट या असुविधा हो और आप अपने वरिष्ठ अधिकारी से इस बात की शिकायत करें और आप को ये कह कर चुप करवा दिया जाए कि अमुक व्यक्ति तो अनुसूचित जाति से संबंधित है इसलिए ज़ुबान पे ताले लगा लो और होठों को सिल लो अगर उसने अपने हथियार का इस्तेमाल करते हुए एक बार भी बोल दिया कि आपने उसे उसके लिए जातिसूचक शब्दों का प्रयोग किया है तो तुम गये काम से नौकरी तो बचेगी नहीं जेल अलग से होगी| बहुत दुख़्ता है साहब ! बहुत दुख़्ता है, जब वह देखता है स्वयं से वरिष्ठ अधिकारी को कि पति पत्नी दोनो उच्च सरकारी पदों पर आसीन हैं, लाखों रुपये मासिक वेतन पाते हैं फिर भी उनका बच्चा जिस संस्थान में निशुल्क प्रवेश पा जाता है जबकि वह अपनी पत्नी के गहने बेच, अपना घर गिरवी रख, बैंक से ऋण लेकर उसी संस्थान में अपने बच्चे के प्रवेश के लिए लाखों रुपये शुल्क के रूप में देता है तो निश्चित ही मन कुंठा से भर जाता है | पूछना चाहता है कहाँ है समानता का अधिकार, जो उसने सविधान पढ़ते समय जाना था? मगर किस से? कोई माया वती जी से पूछे, हज़ारों करोड़ से बने महल में रहने वाले, जिन्होने 70 हज़ार करोड़ रुपये पार्कों में महज़ अपने बुत खड़े करवाने के लिए खर्च कर दिए हों, जिनके सैंडल देश के एक शहर से दूसरे शहर मंगवाने के लिए विशेष विमान भेजे जाते हों वे भी दलित की श्रेणी में आने योग्य हैं ? क्या कोई बतला सकेगा कि तथाकथित दलित संरक्षक मायावती और देश के अन्य दलितों में इतना अंतर क्यों है ? कोई पूछे तो उनसे, आप ही अकेले दलितों के संरक्षक हैं ? क्या देश की सरकार और देश के करदाताओं का कोई योगदान नहीं | पहले हर नेता के भाषण में दस बीस बार महात्मा गाँधी का नाम आता था अब हर साँस में डा. भीमराव अंबेडकर का नाम जपा जाता है| क्या संविधान निर्माण की प्रक्रिया में श्री एन. गोपालस्वामी, श्री अल्लाहदी कृष्णस्वामी अय्यास, श्री के. एम. मुंशी, श्री साइजीओ मोला सादुल्ला, श्री एन. माधव राव, श्री डी. पी. खेतान सरीके अन्य बुधीजीवियों का कोई योगदान नहीं रहा होगा ? क्या आरक्षण के मुद्दे पर इन लोगों की स्वीकृति नहीं ली गई होगी ? राजनेताओं को इस बात का प्रचार करना चाहिए कि दलितों और पिछड़ों के उत्थान के लिए पूरा देश एक जुट है| लेकिन नहीं हर नेता स्वयं को पिछड़ों का ठेकेदार कहता है और फिर भी 70 वर्षों से 98 प्रतिशत पिछड़ों की दशा जस की तस है | क्या सभी 70 वर्षों के निठ्ठ्ल्लेपन की ज़िम्मेदार मौजूदा सरकार ही है ?
पीछे मुड़ कर देखता हूँ तो सोचता हूँ अच्छा हुआ जो मुझे भी आरक्षण की बैसाखियाँ नहीं दी गई | वरना अपनी स्थिति भी देश के 98 प्रतिशत दलितों से बेहतर न होती | अब तक पिताजी का नाम देश के आयकर दाताओं में शुमार हो चुका था | इतिहास का कोई पन्ना खोल कर देख लिया जाए विकसित वही हुआ है जिसने स्वयं से प्रयास किया है| जिजीविषा ही जीवोंकी भिन्न प्रजातियों के विकास का कारण बनी है| डार्विन के सिद्धांत से जानते हैं जिजीविषा से ही जलचर, थलचर बने और थलचर नभचर | जिजीविषा ही ज़िराफ़ की गर्दन वृक्षों की उँचाई तक ले गई| इस लेख में अपनी कथा लिखने से मेरा उदेश्य किसी तरह की श्रेष्ठता सिद्द करना नहीं है | मेरा तात्पर्य तो केवल इतना है कि यदि आरक्षण की बजाय उचित शिक्षा पर बल दिया गया होता और कठिन परिश्रम करने की आदत डाली गई होती तो स्थिति आज कुछ और होती | लेकिन राजनीतिक जगत भली भाँति जनता है कि यदि देश का जनसाधारण शिक्षित हो गया तो देश जातिगत मुद्दों पर बँटेगा कैसे ? कहने को 125 करोड़ हैं हम, दुनिया की कुल आबादी का छठा हिस्सा, मगर ऐसा लगता है हम सब को लकवा मार गया है | हम सब आरक्षण की प्रतीक्षा में हाथ पे हाथ धरे बैठे हैं | विदेशियों को लिए हम या तो मॅंडी बने हुए हैं या फिर एक कमजोर लक्ष्य |
दलितों में भी अनेकों ऐसे होंगे जो आरक्षण की इस व्यवस्था से सहमत न होंगे | व्यवस्था के कारण कुछ स्वाभिमानी लोग अवश्य हीन भावना का शिकार होते होंगे? व्यवस्था ही के कारण आरक्षण का लाभ लेते होंगे वरना उनका आत्मसम्मान अवश्य झकझोरता होगा| और समाज? पाँचों उंगलियाँ कब एक समान हो सकती हैं| ईर्ष्या और द्वेष से भरे लोग अवश्य मौका मिलते ही आक्षेप अथवा अपमान किए बगैर नहीं मानते होंगे| जहाँ तक मैं समझता हूँ रोहित वेमूला को भी उसकी ख़ुद्दारी उसे मौत के आगोश में ले गई होगी| रोहित को नज़दीक से तो नहीं जानता पर उसके suicide note से ऐसा लगता है रोहित एक मेधावी और प्रतिभावान छात्र रहा होगा अवश्य ही कहीं न कहीं उसका आत्मसम्मान आहत हुआ होगा | लेकिन कारण की तह तक जाने की बजाय देश की राजनीतिक दुनियाँ सियासत करने में जुट गई है | पक्ष-विपक्ष एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप लगाने में व्यस्त हैं| रोग का निदान करना कोई नहीं चाहता | सियासतदानों का फ़ायदा तो इसी में है, कोई न कोई रोहित आत्महत्या करता रहे और उनका राजनीति का व्यापार फलता फूलता रहे|
जब तक केवल ज़रूरतमंद और वास्तविक दलितों की सहायता सरकार द्वारा दी जाती रही तब तक शेष समाज ने आवश्यक समझ कर स्वीकार कर लिया परंतु जब लोगों को लगा कि विकलांगों की दौड़ में बहुत से सकलांग लोग भी शामिल हैं जो आरक्षण की बैसाखियाँ पहन न केवल दौड़ में हिस्सा ले रहे हैं परंतु अधिकांश समाज से आगे निकल रहें हैं और सरकार और प्रशासन जान बूझ कर नज़रअंदाज़ कर रहे हैं तब कुछ लोगों में ईर्ष्या और द्वेष ने जन्म लिया जब सरकार द्वारा इस द्वेष की आहट नहीं सुनी गई तो ईर्ष्या और द्वेष आक्रोश में बदल गये| उन्होने समझ लिया आरक्षण के विरोध में बोलना अपराध सही अपने लिए भी आरक्षण की माँग करना तो अपराध नहीं और परिणामस्वरूप राजस्थान, गुजरात, हरियाणा, अनेकों जानें,अरबों रुपयों की निजि एवं सार्वजनिक संपत्ति की बलि, जाने कब तक? और यदि किसी बुद्दीजीवी ने इस विसंगति और प्रतिकूलता की ओर ध्यान दिलाना चाहा अथवा व्यवस्था पर पुनर्विचार का सुझाव भर ही दे तो देश के मीडिया को बेचने के लिए गर्मागर्म माल मिल गया और स्वयंभू दलितों के ठेकेदारों को वोट कैश करवाने का मौका| बेचारा सुझाव देने वाला माथे पर दलित विरोधी होने का कलंक ले बैठा |
कोई भी संवेदनशील व्यक्ति स्वयं को इन परिस्थितियों में रख कर देखे तो | जहाँ विसंगतियाँ होंगी वहाँ विरोध के स्वर उभरना स्वाभाविक है | बहुत निराशा होती है जब विपक्ष केवल विरोध के लिए विरोध करता है| क्या हमारे देश का विचार मंच (think tank) पूर्णतया रीता हो गया है? क्या देश का बुद्दीजीवी वर्ग बौद्दिक रूप से दीवालिया हो चुका है? तीन चौथाई सदी बीतने के बाद भी हमें लगभग तीन चौथाई देश वासियों को आरक्षण की बैसाखियाँ देने की आवश्यकता क्यों है ? क्या विपक्ष का केवल एक ही कर्म और धर्म शेष रह गया है कि निहित स्वार्थों के चलते किसी न किसी तरह से देश का समय और धन की बर्बादी की जाए? संसद में हुड़दंग करना और अपने प्रतिद्वंदियों को नीचा दिखला कर येन केन कुर्सी हथियाना ही देश के कर्णधारों का एक मात्र उदेश्य है क्या? क्या पक्ष विपक्ष दोनो पक्षों का कर्तव्य नहीं कि मिल बैठ कर देश की समस्याओं पर गंभीरता से विचार करें और सर्वसम्मति से कोई न कोई हल खोज कर ही दम लें? क्या देश में कोई ऐसा भी बचा है जो देश और समाज की खातिर पल भर को निजी स्वार्थों की बलि दे सके?
मैं मूलत: जाट तो नहीं हूँ लेकिन जीवन के 63 सावन और इतने ही पतझड़ भी जाटों के बीच बिताए हैं| एक बार फिर कहता हूँ हरियाणा में जो कुछ हुआ जाटों का मूल स्वाभाव बिल्कुल नहीं है| सोच कर निराशा होती है जिस तरह का सियासी खेल पिछले कुछ वर्षों से देश में खेला जा रहा है और अपना उल्लु सीधा करने की ग़र्ज़ से नेता जिस तरह से देश वासियों के बीच नफ़रत की दीवारें खड़ी करते जा रहे हैं लगता है शीघ्र ही देश को पतन की ओर धकेल देंगे| मेरा प्रशासन से बस इतना अनुरोध है केवल वोट बैंक समझ कर ही नहीं बल्कि वास्तविकता में जो समाज की दौड़ में पिछड़ गये हैं उनके उत्थान के लिए आरक्षण की व्यवस्था कीजिए और उनकी पैरवी भी कीजिए| देश के भावी कर्णधारों को यूँ नफ़रत की आग में जला डालने के षड्यंत्र न कीजिए|
भगवान दास मेहंदीरत्ता [गुड़गाँव]

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