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मानव को मिट जाने दो

मेरा देश मेरी बात !
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मानव को मिट जाने दो

अम्बर ने उपर से देखा
मानवता दम तोड़ रही थी|

संवेदनाओं को एडियाँ रगड़ते
धरती गुमसुम देख रही थी|

सिसक रही थीं अबला की चीखें
मुर्दा समाज तब मौन पड़ा था|

मौन पूछ रहा, कुछ तो बोलो,
हम सब के मलिक|

मानवता क्या सचमुच धरा पर
अंतिम साँसें गिन रही है?

क्या अब से कोई भी जननी
नहीं जॅनेगी, जननी को?

मानव शिशु का प्रथम रुदन
क्या कोई नहीं सुन पाएगा?

मानव पुत्र क्या धीरे धीरे
निज जननी की देहों को
पेड़ों पर लटकाते जाएँगे?

या कि उनकी किल्कारियाँ
कोखों में ही दब जाएँगी?

क्या अबसे लकड़ी के घोड़े
टिक टिक टिक टिक नहीं दौड़ेंगें?

न कोई काग़ज़ की गुड़िया
अब अपना ब्याह रचाएगी?

मानव, लालच का चश्मा ओढ़े
निरंतर अपनी क़ब्रें खोद रहा है|

क्या नहीं थमेगा पागलपन उसका?
जो अपनी हस्ती को
तिल तिल मिटते देख रहा है|

मत रोको इसको मिटने से
न दुआ करो चिर जीवन की

एहसास मर गया, मरा संवेदन
मानवता ही मर गई हो जिसकी

उस मानव को मर जाने दो |
उस मानव को मिट जाने दो|

भगवान दास मेहंदीरत्ता
गुड़गाँव

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