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ओहदेदार (पूर्वार्ध भाग)

मेरा देश मेरी बात !
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ओहदेदार
(पूर्वार्ध भाग)
आज फिर से प्रकृति का क्रोध अपनी चरम सीमाँ पर था l आधी रात होने को आई थी, बादल रह रह कर दिल दहला देने वाली गर्जना कर रहे थे और बिजली अपने पूरे जोश से गाँव के घरों के उपर आ आ कर लौट जा रही थी मानों अपने किसी शिकार का पीछा कर रही हो और आज ही उसपर गिरना चाहती हो, लेकिन शिकार है कि उसके हाथ नहीं आ रहा हो l अभी कुछ सप्ताह पूर्व गाँव समेत मेवात के बहुत बड़े इलाक़े को तबाह करने के बाद भी प्रकृति का कोप शांत नहीं हो पाया था l तूफान और ओला वृष्टि ने लगभग पूरे गाँव के किसानो को कंगाल बना दिया था l अब तो दो जून की रोटी का जुगाड़ भी उधारी पर ही निर्भर था l
एक ही उम्मीद बाकी थी कि प्रशासन से कब मदद मिलती है l दो दिन पूर्व ही प्रदेश के मुख्य मंत्री ने उचित मुआवज़े का तो ऐलान किया था, साथ में ये भी घोषणा की गई थी कि मुआवज़े की रकम किसानों के बैंक खातों में जमा करवा दी जाएगी ताकि किसान अनावश्यक परेशानियों से भी बच सकें और भ्रष्टाचार पर भी थोड़ी रोक लग सके l अब गाँव वासियों को इंतजार था तो बस मुआवज़े का l हरिया और सुहास की, दो वक्त की रोटी के अतिरिक्त अन्य भी परेशानियाँ थी l पिछले कई महीनों से हरिया को बुखार और खाँसी ने घेर रखा था l आठ दस माँह से हरिया की खाँसी ठीक होने पर ही नहीं आ रही थी l गाँव के वैद्य, हकीम, ओझा सभी अपने अपने नुस्खे आज़मा चुके थे l गाँव में मोटरसाइकिल पर आने वाले घुमंतू डाक्टर भी कई बार समझा चुके थे कि हरिया को टी.बी. हो सकती है इसलिय शहर के अस्पताल में जा कर सही इलाज करवाना ज़रूरी है l परंतु कभी पैसा तो कभी खेती के काम, इलाज में बाधा बनते गये l सुहास ने सोच रखा था कि इस बार की फसल आते ही तुरंत हरिया को शहर ले जाएगी और अच्छे से अच्छा इलाज दिलवाएगी l ईश्वर की कृपा से इस बार फसल भी बहुत अच्छी हुई थी l सभी को विश्वास था कि ज़रूर हर कोई अपने थोड़े थोड़े कर्ज़ अवश्य उतार पाएगा परंतु किसे मालूम था एक ओलावृष्टि सभी की उम्मीदों पर पानी फेर जाएगी l आज हरिया की तबीयत बहुत ज़्यादा बिगड़ गई थी l कब मुआवज़े की रकम मिलेगी और कब हरिया का इलाज शुरू हो, ईश्वर ही जानते थे l जो थोड़ी बहुत जमा पूंजी थी वह किसना के दाखिले में खर्च हो गई थी l
किसना हरिया और सुहास का इकलौता बेटा था l इसी वर्ष उसने बाहरवीं की परीक्षा पास की थी l सुहास ही की जिद्द थी कि वह उसे कालेज पढ़ाएगी l वह उसे किसी सरकारी विभाग में ओहदेदार होते देखना चाहती थी l घर खर्च में चाहे कितनी भी कटौती क्यों न करनी पड़े, किसना की पढ़ाई से कोई समझौता नही करती थी l शहर की पढ़ाई और शहर में रहने का खर्च इसलिए सुहास की सारी जमा रकम समाप्त हो गई थी l
गाँव शायद गहरी नींद में सो रहा था परंतु हरिया और सुहास की आँखों से नींद कोसों दूर थी l आज शाम से ही हरिया की खाँसी रुकने का नाम नहीं ले रही थी l खाँसते खाँसते उसका बुरा हाल था l रात थी की बीतने पर ही नहीं आती थी l सुहास को बस पौ फटने का इंतजार था l सुबह होते ही वह किसी भी तरह से हरिया को शहर ले जाएगी और फिर सब ठीक हो जाएगा l
हरिया एक दलित परिवार से था l वे लोग हरियाणा के मेवात के एक छोटे से गाँव में रहते थे l बरसों पहले थोड़ी बंजर ज़मीन, भूदान आंदोलन के तहत उसके पूर्वजों को मिली थी l बहुत मेहनत मशकत के बाद उन्होने इस टुकड़े को खेती के काबिल बनाया था l ज़मीन के उसी टुकड़े के आसरे वे अपना गुजर बसर चला रहे थे l इस गाँव में एक ही वस्तु थी जो कि बहुतायत में थी, वो था अभाव, धन का अभाव, अन्न का अभाव, बिजली और जल का अभाव l हरिया और उसके माता पिता बहुत ही मेहनती और ईमानदार थे l परंतु अशिक्षित होने के कारण हिसाब किताब के कच्चे थे l परिवार हर समय कर्ज़ में डूबा रहता था l एक कर्ज़ चुकता नहीं था कि दूसरा मुँह बाए सामने खड़ा होता था l आधी से ज़्यादा कमाई पर राय साहब का अधिकार हो जाता था l पूरे गाँव में राय साहब का घर ही एक ठिकाना था जहाँ से कर्ज़ मिलने की उम्मीद होती थी l सभी जानते थे कि किस तरह राय साहब ने गाँव वासियों की गाढ़ी कमाई में सेंध लगा रखी थी l ब्याज का हिसाब करने के उनके अपने ही नियम थे, उनके पहाड़े में तेरह तीये उन्चालिस की बजाए उन्नहतर आता था l कर्ज़ एक बार ले लो, दादा पोते मिल कर भी चुकता नहीं कर पाते थे l लेकिन और कोई चारा ही नहीं था l
जब से सुहास ब्याह कर इस घर में आई थी, उसने घर के लेन देन का हिसाब अपने हाथ में ले लिया था l शुरू में तो सुहास के सास ससुर ने हरिया को बहुत खरी खोटी सुनाई l गाँववाले भी उसका मज़ाक उड़ाते थे l फिर धीरे धीरे सब ठीक होता गया l सुहास की सूझ बूझ से परिवार, कर्ज़ मुक्त हो गया l घर में चार पैसे बचने भी लगे | गुजर बसर ठीक होने लगा l सुहास के सास ससुर भी सुहास के साथ हो गये l परंतु राय साहब सुहास से बहुत खार खाने लगे l सुहास का नाम सुनते ही राय साहब की छाती पर साँप लोटने लगते l सुहास की देखा देखी कुछ अन्य गाँव वाले भी उधारी से बचने लगे थे l राय साहब को अपना धंधा चौपट होता दिखने लगा l
सुहास भी, यूँ तो, किसी अमीर माँ बाप की संतान नहीं थी l सुहास के दादा मेरठ छावनी में मेहतर का काम करते थे l काम पर सब लोग उन्हें मटरू कह कर बुलाते थे l प्रभुजन, मटरू का इकलौता बेटा था l आय बहुत ही कम थी, मटरू का गुजर बसर बड़ी मुश्किल से होता था l बिरादरी के अन्य लोगों के बच्चे सांझ तक कूड़े में से सौ डेढ़ सौ के कागज व प्लास्टिक आदि चुन लाते थे l उनमेँ से अधिकतर बच्चों के पिता सांयकाल आध पाव शराब चढ़ा कर सोते थे l उनके अनुसार वे लोग मज़े की जिंदगी जी रहे थे l परंतु सैनिकों के बीच रहते रहते मटरू शिक्षा के महत्व को समझ गया था l उसे एहसास हो गया था की वह अपने बेटे को खूब पढ़ाएगा l एक न एक दिन वह प्रभुजन को सैनिक बने देखना चाहता था l प्रभुजन पढ़ाई में बहुत तेज तो नहीं था, फिर भी कोशिश कर के वह दसवीं पास कर गया l कालेज पढ़ाने का सामर्थ मटरू में नहीं था l छावनी के सैनिकों ने समझाया कि प्रभुजन को दसवीं के बाद भी सेना में भरती करवाया जा सकता है l बाकी की पढ़ाई भी वह वहाँ पर पूरी कर सकता है और मेहनत कर के, और भी तरक्की पा सकता है l मटरू की खुशी का ठिकाना न रहा l जिस दिन छावनी में जवानों की भरती हो रही थी उसने प्रभुजन को भी सेना में भरती करवा दिया l एक साल की ट्रेनिंग के बाद पहली छुट्टी आते ही मटरू ने बेटे की शादी भी करवा दी l प्रभुजन के पहले दो तीन बच्चे या तो मृत पैदा हुए थे या पैदा होने के कुछ ही घंटो के बाद मर गये थे l शादी के पूरे बारह बरस बाद सुहास उनके घर में लक्ष्मी स्वरूपा आईं थीं l उसी वर्ष प्रभुजन को तरक्की भी मिली l सुहास का लालन पालन अच्छे ढंग से हो रहा था l प्रभुजन की नियुक्ति चाहे सीमा पर होती चाहे छावनियों में, सैनिक स्कूलों में सुहास की पढ़ाई की सभी सुविधाएँ मौजूद होतीं l सुहास भी विलक्षण प्रतिभा की धनी थी l बचपन में ही उसे गीता के श्लोक कंठस्थ हो गये थे और उसे अपने विद्यालय से अंतर विद्यालय प्रतियोगिताओं में भाग लेने के लिए ले जाया जाने लगा l उसे जहाँ भी ले जाया जाता, प्रथम पुरूस्कार तो उसका पक्का था l अपने पिता के साथ उसे कई दर्शनीय स्थलों को देखने का अवसर भी मिला l
सुहास की मां अचानक बीमार रहने लगी l बहुत दिनों तक इलाज चलता रहा परंतु ठीक नहीं हो पाई l काफ़ी जाँच के बाद डाक्टरों ने बताया कि उन्हें गर्भाश्य का कैंसर हो गया था l निरंतर इलाज के बाद भी उन्हें बचाया न जा सका l जब उसकी माता का देहांत हुआ, सुहास तब सातवीं कक्षा में पढ़ती थी l इसी वर्ष के अंत में सुहास के पिता रिटायर हो गये l धीरे धीरे सुहास ने घर का पूरा काम संभाल लिया l सुहास के पिता शहर जाकर किसी कंपनी में नौकरी भी कर सकते थे परंतु जवान होती बेटी की देख भाल करने वाला कोई न था l इसलिए उन्होने पेंशन पर ही गुज़ारा करने का मन बना लिया l सुहास ने बाकी की पढ़ाई गाँव के सरकारी स्कूल में पूरी की l यहाँ सैनिक स्कूलों जैसी बात नहीं थी l सैनिक स्कूलों में ही काफ़ी हद तक सुहास के व्यक्तित्व का बहुआयामी विकास हुआ था l जैसे तैसे सुहास ने बाहरवीं की पढ़ाई पूरी की l अब तक सुहास अठारह की होने को थी l इन दिनों पश्चिमी उत्तर प्रदेश में क़ानून व्यवस्था गड़बड़ाई हुई थी l आस पास के शहरों से छोटी छोटी बच्चियों के साथ दुष्कर्म करने की वारदातें होने की खबरें आ रहीं थी l एक तो दलित उपर से गरीब होना किसी अभिशाप से कम न था l प्रभुजन की एक ही चिंता थी कि जितनी जल्दी हो सके बेटी के हाथ पीले कर उसे अपने घर से रुखसत करे l परंतु बेटी का विवाह कोई खाला जी का बाड़ा तो था नहीं l बहुत से धन, माल की ज़रूरत थी l प्रभुजन की पत्नी की बीमारी में पैसा पानी की तरह बह गया था l उपर से रिटायरमेंट l वे किसी ऐसे घर की तलाश में थे जो सुहास को तीन कपड़ों में स्वीकार कर ले l आख़िर वो दिन भी आ ही गया, प्रभुजन के एक सहकर्मी ने उसकी बेटी का विवाह अपने गाँव के एक परिवार में बहुत ही कम खर्च पर तय करवा दिया l हरिया था तो अनपढ़ लेकिन उसका परिवार छोटा एवं शालीन था l सुहास भी पिता की आज्ञा को सिरोधार्य कर विदा हो गई l अठारह बरस हो गये हैं आज सुहास और हरिया के ब्याह को, गाँव वाले उनकी आदर्श जोड़ी की मिसालें देते हैं l
सुहास, सूरज की पहली किरण के साथ ही, शहर के लिए रवाना हो जाना चाहती थी l सुबह होते होते हरिया की खाँसी बहुत बढ़ गई l खाँसते खाँसते वह निढाल हो जाता l सुहास ने अंधेरे में ही पशुओं का चारा पानी कर दिया l उसके शहर जाने बाद करेगा भी कौन ? कुल तीन ही तो जीव थे घर में, हरिया, वह और किसना l हरिया के माता पिता तो कुछ वर्ष पहले संसार छोड़ गये थे l किसना भी पढ़ने के लिए होस्टल में रहता था l अब के हरिया को खाँसी का दौरा पड़ते ही सुहास ने जल्दी जल्दी बैलगाड़ी जोड़ दी l बैलगाड़ी के फर्श पर एक रज़ाई बिछा कर हरिया को जैसे तैसे बैलगाड़ी तक ले आई और उसे रज़ाई पर लिटा कर एक कंबल ओढ़ा दिया l अब सबसे बड़ी समस्या पैसे की थी l घर में तो एक पाई न थी l शहर में तो पानी भी मोल का लेना होगा l पूरे गाँव में एक ही आदमी था जो उधार दे सकता था, इसलिए वह बैलगाड़ी को घर के बाहर छोड़ राय साहब के घर की ओर दौड़ी l इसी हड़बड़ी में बैलगाड़ी से अड़ कर उसका कुर्ता भी फट गया l इस समय, कपड़े बदलने का वक्त बिल्कुल नहीं था l
राय साहब बैठक में बैठे ताज़ा चिलम के आने इंतजार कर रहे थे तभी गाँव के चौकीदार ने आकर सूचना दी कि गाँव में शहर से कुछ ओहदेदार आए हुए हैं और हर खेतिहर से कुछ न कुछ रकम वसूल रहे हैं l
“मालूम है,” राय साहब ने जैसे कोई रहस्य की बात बताते हुए चौकीदार से कहा, ”फसल खराब होने पर जो मुआवज़ा मिलता है, तहसील के कुछ अधिकारी, जिन्होने मुआवज़ा तय करना होता है और मंज़ूरी पर दस्तख़त करने होते हैं, हर बार की तरह इस बार भी अपना हिस्सा लिए बगैर थोड़े ही मानेंगें l”
“पर साहब जी अभी मुआवज़ा मिला ही कहाँ है, अभी खाली घोषणा ही तो हुई है?” चैकिदार ने हैरान होते हुए पूछा l
“निपट मूर्ख है तूँ तो, इस बार सरकार ने एक घोषणा और भी तो की है कि मुआवज़ा सीधा किसानों के बैंक खातों में जमा होगा l ये ओहदेदार सरकार के भी बाप हैं l एक बार बैंक में आने के बाद कोई भला क्यों इनको रोकड़ के दर्शन होने देगा l”
“सो तो है साहब जी”, कह कर चौकीदार सलाम बजाते हुए निकल गया l
“नच्छत्र ओ नच्छत्र, कहाँ मर गया?, एक घंटा हो गया, चिलम में दो अंगारे धर कर लाने को कहा था, कहीं बिहार की खदानों से कोयले लेने तो नहीं चला गया?, कम्बख़्त” राय साहब ने झल्लाते हुए कहा l
नच्छत्र पंजाब प्रदेश के पटियाला जिले के किसी गाँव का था l नौ दस वर्ष का रहा होगा जब अपने पिता की डाँट से बचने के लिए राजमार्ग पर खड़े जयपुर जाने वाले ट्रक में जा छुपा था l सुबह को जब उसकी नींद खुली तो उसने ट्रक को फिर एक ढाबे पर खड़ा पाया l वह झट से ट्रक से कूद तो गया परंतु नहीं जानता था कि अब उसे अपना घर कभी नहीं मिलेगा l घर ढूँढते ढूँढते रात होने को आई l भूख प्यास से व्याकुल नच्छत्र को गाँव के किसी आदमी ने राय साहब के सुपुर्द कर दिया l तभी से राय साहब को जीवन भर के लिए मुफ़्त का नौकर मिल गया और नच्छत्र को दो वक्त की रोटी l
हुक्के के बगैर तो जाने राय साहब को क्या हो जाता था l ज़रा सी देर हो जाती तो सारे घर को सिर पर उठा लेते l दिन भर हुक्का गुड़गुडाने के इलावा और कोई काम भी तो नहीं था उन्हें l खेतीबाड़ी की उन्हें कोई चिंता थी नहीं, सारी ज़मीन ठेके पर उठा रखी थी, ऩफा नुकसान मेहनत कश का, वे तो साल का ठेका अग्रिम ले लिया करते हैं l भगवान से प्रार्थना करते रहते, कि सूखा, बाढ़ या ओले कोई न कोई प्राकृतिक आपदा फसलों का नाश करती रहे ताकि उनका उधारी का धंधा फलता फूलता रहे l
राय साहब के दादा दूसरे विश्व युद्द के दौरान अँग्रेज़ों द्वारा बनाई गई भारतीय फौज में शामिल हुए थे, इधर नेताजी सुभाष चंद्र बोस द्वारा बनाई गई आज़ाद हिंद फौज, जापानियों के साथ मिल कर दूसरे विश्व युद्द में अँग्रेज़ों के खिलाफ लड़ रही थी, दुर्भाग्य से आज़ाद हिंद फौज की भारी शिकस्त हुई और अँग्रेज़ों ने खुश होकर अपने वफ़ादारों में जम कर तमगे और जागीरें बाँटी l तभी इनके दादा जी को भी मेवात में कुछ जागीर अँग्रेज़ों से मिली थी l राय साहब ने जागीर के साथ साथ अँग्रेज़ों की कुटिलता और फूट डालो और राज करो की नीति भी विरासत में पाई थी l कहते हैं “पैसा पैसे को खींचता है” इसी आधार पर राय साहब का खोटा सिक्का भी सवाए दाम बना रहा था l राय साहब का अपना नाम तो था राय सिंह, उनके दादा उसे प्यार से राय साहब कहा करते थे l तभी से गाँव के लोग भी उन्हें राय साहब के नाम से ही जानते थे l
राय साहब का चिल्लाना सुन नच्छत्र तेज तेज कदमों से अंदर आया, चिलम को हुक्के पर जमाते हुए बोला “साहब जी बाहर वो आई है,”
“वो कौन?”
“वो दूध पूत वाली|”
“कौन, सुहास?”
“जी साहब जी”
“सुहास और यहाँ? आख़िर ऊँट को आना ही पड़ा पहाड़ के नीचे !”
“लगता है इस बार के ओलों ने इसका भी घमंड तोड़ ही दिया है l कल तक तो हरिया समेत उसके माँ बाप चौबीसों घंटे इसी चौखट पर पड़े नाक रगड़ते रहते थे l खेत जाने से पहले और खेत से आने के बाद हरिया पहले हवेली के मवेशियों की देख भाल करता था और बाद में अपने l जब से ये ब्याह के आई है हवेली का तो रुख़ ही नहीं किया इसने, न ही हरिया को करने दिया l हो भी क्यों न, भई पढ़ी लिखी बहु जो आ गई है इन गँवारो के l मुझे तो पहले से ही मालूम था इसका चमड़े का सिक्का ज़्यादा दिन नहीं चलने वाला l”
“कहती क्या है, पूछ तो ज़रा उससे ?”
“रुक, बाहर ही रहने दे,”
“चलता हूँ मैं भी, देखूं तो कैसे तेवर हैं इसके आज l”
हुक्के के गहरे गहरे कश लेते हुए, अकड़ी हुई गर्दन, चाल ऐसी मानो अभी अभी किसी बहुत बड़ी प्रतियोगिता का विजेता घोषित किया गया हो l घमंड से चूर, ड्योढ़ी में बिच्छी एक कुर्सी पर, आकर, बैठ गया l सुहास ड्योढ़ी के दरवाजे के पास आ कर दोनो हाथ बाँध खड़ी हो गई l
राय साहब अपनी नज़रों से सुहास के शरीर को टटोलने लगे, दो तीन बार पूरे शरीर का मुआयना करने के बाद राय साहब की नज़र सुहास की दाहिनी बगल के नीचे आकर ठहर गई l बगल के थोड़ा नीचे से उसका कुर्ता फटा हुआ था l शरीर का कुछ भाग कुर्ते से बाहर को झाँक रहा था l सुहास को एहसास हुआ तब बाएँ हाथ से फटे हुए हिस्से को पकड़ कर राय साहब की नज़रों से बचाव करने का प्रयास लगी l ऐसा करते देख राय साहब ने नच्छत्र की ओर इशारा किया “पूछ इससे यहाँ क्यों आई है l”
कुछ बोलने से पहले सुहास की आँखों व गले में पानी उतर आया, बहुत ही धीमी आवाज़ में कह पाईl
“मालिक, किसना के बापू की तबीयत बहुत बिगड़ गई है, उन्हें इलाज के लिए शहर ले जाना होगा l थोड़ा पैसे से मदद हो जाती तो….मुआवज़ा मिलते ही लौटा दूँगी l”
“हूँ… तो पैसे चाहिएँ तुम्हें ? पर तूँ तो कहती थी दूध पूत वाले किसी की चौखट पे नहीं जाते, कहाँ गये तेरे दूध पूत अब ?”
“ग़लती हो गई मालिक” इससे अधिक वह कुछ नहीं कह पाई l
यह बात तो राय साहब भी जानते थे अगर ओलों ने फसल की तबाही न की होती तो वह उनकी चौखट पर कभी न आती l
“भई एक आदमी के जीने मरने का स्वाल है, पैसे तो देने ही पड़ेंगें, पर मुआवज़ा मिलते ही एक हज़ार के बदले पंद्रह सौ रुपये वापिस देने होंगें l मंजूर हो तो मँगवाऊं रकम ?”
सुहास से कुछ बोलते नहीं बना, सिर झुका कर पाँव के अंगूठे से ज़मीन कुरेदने लगी l
राय साहब पैसा कमाने का कोई भी मौका हाथ से जाने नहीं देते थे l
“कितने चाहिएँ ?”
“आप जो ठीक समझो मालिक,” सुहास को घर वापिस जाने की बहुत जल्दी थी l न जाने हरिया का क्या हाल होगा ?
“ये ले, अभी तो हज़ार रुपये रख, और ज़रूरत होगी तो बाद में ले जाना l” कुर्ते की जेब से हज़ार का नोट निकाल कर राय साहब ने एक बहुत बड़े उपकारी के से अंदाज़ में कहा l
सुहास ने जुड़े हुए हाथों से हज़ार का नोट थाम लिया और बिना एक भी क्षण गँवाए घर की ओर दौड़ पड़ी l
जैसे ही बैलगाड़ी के पास पहुँची शहर से आए ओहदेदार पहले से उसका इंतजार कर रहे थे l दो लोग सरकारी जीप में बैठे थे दो लोग सुहास के पास आकर दबांगई अंदाज में बोलेl
“जल्दी से एक हज़ार रुपये दो वरना मुआवज़े की रकम नहीं मिलेगी इस बार l”
“हम लोग पहले भी हो कर गये हैं, तुम्हारे पास से l”
“इधर बीमार पति को अकेला छोड़, जाने कहाँ कहाँ घूमती फिरती हो l”
“और हाँ जल्दी कर, पहले ही तेरी वजह से बहुत देर हो गई है|”
इससे पहले वह कुछ बोलती उनमें से एक ने उसके हाथों में हज़ार का नोट देख लिया और हाथ बढ़ा कर सुहास के हाथों से छीन लिया और वे तुरंत जीप में बैठ चलते बने l वह ठगी सी उनको जाते हुए देखती रही l तभी हरिया को खाँसी का दौरा पड़ा, दौरा इतना भयानक था की सुहास अंदर तक काँप गई l अचानक हरिया ने मुँह से बहुत सा खून उगल दिया l सुहास के देखते ही देखते हरिया ने प्राण त्याग दिए और वह कुछ भी न कर पाई l सभी घटनाएँ इतनी तेज़ी से घटीं कि वह ये सदमा सहन नहीं कर पाई l उसकी चेतना ही चली गई हो जैसे l पति की मृत्यु की उसे कोई सुध नहीं रही l मुर्दे को बैलगाड़ी में ही छोड़ गाँव को पार करती हुई गाँव के बाहर तालाब के किनारे जा बैठी l पूरे गाँव में ये खबर आग की तरह फैल गई l गाँव की कुछ औरतें बहुत देर तक सुहास को घर वापिस लाने की कोशिश करती रहीं l “सुहास तुम विधवा हो गई हो ,” बता बता कर उसे रुलाने की भी भरसक कोशिश की गई परंतु सब बेकार l उसमें बला की ताक़त आ गई थी l लाख कोशिशों के बाद भी वह टस से मस न हुई l आख़िर थक हार कर एक महिला ने उसकी चूड़ियाँ तोड़ दीं l अब तक किसना भी शहर से आ गया था l कुछ गाँव वालों ने मिल कर शव का दाह संस्कार किया |

कहानी का शेष भाग कहानी ओहदेदार (उतरार्ध) में पढ़ सकते हैं|

यह कहानी पूर्णतया काल्पनिक है| पात्रों अथवा घटनाओं का किसी से मेल खा जाना महज एक इत्तफाक होगा l सर्वाधिकार लेखक के पास सुरक्षित हैं| ©
लेखक { भगवान दास मेहन्दीरत्ता, गुड़गाँव} Email : b.dass1@gmail.कॉम

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