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‘क्या होगा इस देश का ? एक पढ़ी-लिखी लड़की ससुराल वालों के साड़ी पहननें के लिए कहने को ही तलाक का कारण बना रही है । इसे क्रुरता बता रही है । बोलिए, क्या समाज में अराजकता का माहौल नहीं फैल रहा हैं? बोलिए, क्या होगा अब इस देश का?’
मैं भाईजी की बात समझ तो जाता हूँ लेकिन फिर भी नासमझी दिखाते हुए उसे मजाक में उड़ाना चाहता हूँ, इसलिए कहता हूँ, ‘होना क्या है जैसा आज है कल उससे बेहतर ही होगा । आप क्यों परेशान होते हैं । यदि कोई लड़की छह मीटर की साड़ी को पहनना ससुराल वालों की क्रुरता मानती है, तो उसे जींस टॉप, टॉप-स्कर्ट पहन कर घूमने दीजिए, आपका क्या जाता हैं ? क्या आपकों इन वस्त्रों में लड़की अच्छी नहीं लगती है?’
भाईजी भड़क जाते हैं, ‘आज साड़ी पहननें की बात पर तलाक की बात उठ सकती है तो कल बड़ो को आदर देने के लिए मजबूर करने की बात पर भी अदालत का दरवाजा खटखटाया जा सकता है, परसों बहू कहेगी कि मुझे ससुराल में रखना भी ससुराल वालों की क्रुरता है, लड़के को उसके मायके में रहना चाहिए ।’
‘तो इसमें बुराई क्या है? ना जानें कितनी सदियों से हम ये ‘क्रुरता’ लड़कियों के साथ करते आएं हैं । हम चाहतें हैं कि लड़कियां ससुराल में आएं और बड़ों का सम्मान करें, छोटो को प्यार दें व ससुराल के रिवाजों के अनुसार ढल जाए । भले ही वह अपने घर में कितने ही लाड़-प्यार से पली हों या झिड़कियां खाती रही हो, भलें ही वह अपने परिवार के साथ कैसा-भी व्यवहार करती हो । भले ही वह अपने मायकें में बड़ों का आदर करती थी या नहीं करती थी लेकिन ससुराल में आते ही उसे वो सब छोड़ना पड़ता है । ससुराल के रिवाजों को अपनानें पर मजबूर होना पड़ता है । अब जो कुत्ते की दूम बीस-पच्चीस वर्ष से जैसी थी उसे आप सीधा करना चाहेंगें तो क्या आप उसे सीधा कर पाएंगें ?’ मैं भी कुछ उत्तेजना में बोल जाता हूँ ।
‘यानि आप यह कह रहे हैं कि लड़किया कुत्तों की दूम की तरह होती है, कभी सीधी नहीं हो सकती अर्थात जो आदतें उन्हें पड़ चुकी है वो बदली नहीं जा सकती ।’ भाईजी हथियार डालते हुए लगते हैं । मेरा हौसला बढ़ चुका है । इसलिए मैं कहता हूँ – ‘जी हां, लड़कियां ही क्यों, कोई भी हो, बीस-पच्चीस की उम्र तक जो आदतें डाल ली जाती हैं उन्हें बदलना बहुत कठिन होता है । ऐसे सभी लोग कुत्ते की दूम की तरह ही होते हैं ।’
‘तब तो आप कहेंगें कि साड़ी पहननें को कहना क्रुरता हैं और मुंबई की अदालत को उस लेडी डॉक्टर की याचिका स्वीकार कर तलाक दे देना चाहिए था ।’ भाईजी हार माननें को तैयार नहीं हैं ।
‘जी हां, भाई जी, क्योंकि मेरा यह मानना है जो लड़की भारतीय संस्कृति, भारतीय परंपराओं का निर्वाह नहीं कर सकती । जो पाश्चात्य सभ्यता को ही अपनी संस्कृति मानती है । ऐसी लड़की के लिए पाश्चात्य सभ्यता की तरह की विवाह संस्था ही होनी चाहिए । उसे न तो परिवार चाहिए, न ही पति । उसे तो बस दोस्त चाहिए । जब चाहे उसे बदल लें । पति का परिवार, उसके घर के रीति-रिवाज उसके लिए सदैव गैरों का परिवार व गैरों के रीति-रिवाज ही रहेगें । उसका कोई परिवार ही नहीं होता । ऐसी लड़की से आप कैसे अपेक्षा करेंगें कि वह ससुराल के रिवाजों, परंपराओं को निबाहें । भले ही भारतीय संस्कृति व परंपराओं के अनुसार उसका अपना घर ससुराल ही हो ।’ मैं भी दबंग होकर जबाव देता हूँ ।
लेकिन भाईजी मुझे कानुनी मायाजाल में फँसाना चाहते हैं । अत: कहते है कि ‘लेकिन आपको पता है, मैं जिस लेडी डॉक्टर का यह किस्सा बता रहा हूँ फैमिली कोर्ट और फिर हाई कोर्ट दोनों ने ही उसे ससुराल वालों की क्रुरता न मानते हुए बस साड़ी पहनना उलझन भरा बताया है और उसकी तलाक की प्रार्थना को ठुकरा दिया है । यानि भारतीय परंपरा और संस्कृति की जीत हुई है ।’
मैं समझ जाता हूँ कि भाईजी आज हार नहीं मानेंगें । इसलिए कहता हूँ कि ‘भाईजी फिर तो वह लेडी डॉक्टर अब साड़ी पहननें लगी होगी । ससुराल वाले भी खुश होंगें कि बहु ने उनका नाम रोशन कर दिया है ।’ भाई जी कुछ देर मुझे घुरते हैं फिर धीरे से यह कहते हुए आगे बढ़ जाते हैं कि ‘मुझे क्या पता ? लेकिन देश तो गर्त में जा ही रहा है । जहां साड़ी पर बवाल, तलाक का सवाल बन गया है ।’
अब आप ही बताइयें कि न्यायालय ने तलाक की प्रार्थना ठुकरा कर सही किया या गलत? क्योंकि जो लड़की ससुराल से छुटकारा चाहती थी और उसके पास तलाक का कोई आधार नहीं था, तो वह साड़ी को तलाक का बहाना बनाती है । ऐसे में साफ है कि उसे तलाक दे देना चाहिए था । क्या पता अब साड़ी पहननें से वह बहुत लज्जित अनुभव कर रही हों ?
शायद सास-बहु के सीरियल बनानें वाली एकता कपूर को इससे सीरियल का कोई नया आइडिया मिल जाए ।
अरविन्द पारीक
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