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थोड़ी सी जो पी ली…

Anubhav
Anubhav
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पीने-पिलाने की बात जब चले तो यह बताना जरूरी नहीं कि क्या पिया। क्योंकि पीने वालों के लिए तो शराब ही सबकुछ है। इसके लिए वे इंतजार करते हैं मौकों का। शादी हो या फिर कोई समारोह। जब तक हलक से नीचे नहीं उतरे तब तक आयोजन उनकी नजर में अधूरा ही रहता है। पीने वालों के अपने फार्मूले हैं, अपने तर्क हैं। रोज पीता हूं, लेकिन होश में रहता हूं। यह कहना होता है अक्सर पीने वालों का। वहीं, जो नहीं पीता वह पीने वालों को यही उपदेश देता है कि मत पिया करो। सेहत के लिए ठीक नहीं। तब पीने वाले उदाहरण देते हैं कि फलां को देखो, पीता नहीं था, लेकिन जल्द मर गया। उसे ही बीमारी लगी। वहीं, उपदेश देने वाले शराब से बर्बाद लोगों की सूची अपने जेहन में रखते हैं। शराब पीने वालों को वे ऐसे लोगों के उदाहरण देते हैं।
वैसे देखा जाए तो कोई भी नशा हो, जरूरत से ज्यादा नुकसानदायक होता है। हर काम की एक सीमा होती है। फिर भी मेरे शराबी भाइयों को ये समझ नहीं आता है। कल से छोड़ेंगे कहकर पैग-पर-पैग चढ़ाते जाते हैं। वह कल कभी नहीं आता।
वैसे शराबियों की कहानी भी अजीबोगरीब होती है। मरणासन्न अवस्था में पड़े एक व्यक्ति को डॉक्टर ने कहा कि आपका लीवर डेमेज हो चुका है। भीतर कुछ बचा नहीं है। हड्डियों में पानी भर गया। शराब छोड़ दो तो शायद कुछ ज्यादा दिन तक जी लोगे। इस पर व्यक्ति बोला, प्राण छूट जाएंगे, लेकिन मेरी शराब नहीं छूट सकती। हुआ भी यही, वह व्यक्ति ज्यादा दिन नहीं जिया। उसके बात बीबी व बच्चों की बेकदरी नहीं हुई, बल्कि वे ज्यादा सुखी नजर आने लगे।
अक्सर शराबी व्यक्ति गलती करने के बाद यही कहकर माफी मांगने लगता है कि नशे की हालत में उससे ऐसा हुआ। अब वह गलती नहीं करेगा। मेरे भाई, नशे में आप दूसरे का दरबाजा क्यों नहीं खटखटाते। अपने बच्चों, पत्नी या फिर अन्य को पहचानने में गलती क्यों नहीं करते हो। एक दिन मैं बस से दिल्ली से देहरादून को सफर कर रहा था। बस चलने के आधे घंटे के बाद कंडक्टर में सवारियों की गिनती की। फिर अपना हिसाब मिलाया। इसके बाद वह बोला कि बिना टिकट कौन है। सभी सवारी चुप। कंडक्टर को बस रुकवानी पड़ी। हरएक सवारी से टिकट दिखाने को कहा। जांच चल रही थी कि एक व्यक्ति बोलने लगा कि बस चलाते रहो, टिकट चलती बस में ही चेक कर लेना। कंडक्टर ने उस व्यक्ति से पूछा कि आपके पास टिकट है। वह व्यक्ति अटक-अटक कर बोल रहा था। वह बोला मेरे पास सिकट (टिकट) है। कंडक्टर ने कहा दिखाओ। इस पर वह बोला मेरे पर्स में है। वह जेब टटोलने लगा। कंडक्टर को पता चल गया कि यही नशेड़ी बगैर टिकट है। उसने टिकट खरीदने को कहा तो वह बहस करता रहा कि मेरे पास सिकट है, पर दिखा नहीं रहा था। कभी कमीज की जेब टलोल रहा था तो कभी पेंट की जेब। कभी पर्स खोलता, लेकिन टिकट कहीं नहीं था। हो सकता है कि उसने टिकट खरीदा हो और गिर गया हो, लेकिन उसके शराब के नशे में होने के कारण कंडक्टर उसका क्यों विश्वास करता। नतीजन, बस से उसे उतार दिया। उतरते ही वह भद्दी गालियां बरसाने लगा। उसकी आवाज तब तक सुनाई देती रही, जब तक बस आगे नहीं निकल गई।
शराबी को तो सिर्फ अपनी बोतल से ही प्यार होता है। वह बीबी, बच्चों की कसम खा सकता है। हर जरूरी काम छोड़ सकता है, लेकिन पीने के समय में पीना नहीं छोड़ता। वर्ष 1975 में देहरादून में शराब के गिने चुने ठेके थे। राजपुर रोड से सटे मोहल्लों में रहने वाले शराबी अक्सर पांच-छह किलोमीटर दूर का सफर कर राजपुर स्थित शराब के ठेके में शराब पीने जाते। पीने के बाद वापस लौटते समय ऐसे कई एक बोतल घर के कोटे के रूप में खरीदकर चल देते। एक रात करीब आठ बजे राजपुर रोड के तेज ढलान में सेंट्रल ब्रेल प्रेस के निकट एक सिटी बस पलट गई। इस दुर्घटना में बस की छत जमीन पर और चारों पहिये आसमान की तरफ हो गए। गनीमत यह रही कि गिनी-चुनी दस-बारह सवारियों में से किसी की जान नहीं गई। अलबत्ता कुछ को हल्की खरोंच जरूर आई। बस पलटने की आवाज पर आसपास के लोग मदद को मौके की तरफ दौड़े। बस में फंसी सवारियों को बाहर निकालने लगे। तभी एक व्यक्ति ने मदद करने वाले हाथों को झटक दिया। फिर उसने खुद को टटोला। फिर यह देखकर खुश हुआ कि उसकी बोतल सही सलामत थी। जब उससे एक ने पूछा कि चोट तो नहीं लगी, तो उसका कहना था कि हां बोतल बच गई। नहीं तो कल दोबारा लेने जाना पड़ता। सभी सवारी खुश थी कि उनकी जान बची, वहीं शराबी बोतल न टूटने पर खुश था।
कई बार तो शराब का आदि ऐसे संकट में फंसता है कि उससे निकलना भी मुश्किल हो जाता है। घंटाघर के निकट देहरादून में कभी सिटी बस अड्डा होता था। अक्सर रात को यहां भी शराबी नजर आते थे। कुछ का तो यह ठिकाना ही था। एक बस के पीछे एक शराबी अचेत पड़ा था। लोगों ने इसकी सूचना पुलिस को दी। पुलिस ने टटोला तो नब्ज नहीं चल रही थी। दून अस्पताल लेकर पुलिस पहुंची, तो डॉक्टर ने उसे मृत घोषित कर दिया। इस पर पुलिस ने शव को अस्पताल की मार्चरी में डलवा दिया। मार्चरी भी ऐसी कि उसका दरबाजा टूटा हुआ था। मृतक की पहचान हो चुकी थी। अगले दिन पंचनामा भरा जाना था। ऐसे में शव को कपड़े में लपेटकर सील नहीं किया गया। नियति को कुछ और मंजूर था। जिसे मृत मान रहे थे, सुबह उसके शरीर पर हरकत होने लगी। वह चुपचाप उठा और मोर्चरी से निकलकर चल दिया। अगले दिन हड़कंप मच गया कि मुर्दा गायब हो गया। काफी खोजबीन हुई। पुलिस मृतक के घर की तरफ चल दी। वहां जब सिपाही पहुंचे तो देखा कि जिसे मृत समझकर मार्चरी में डाल दिया था, वह घर के आंगन में बैठा चाय पी रहा है।
कुछ साल से देहरादून में विक्रम टैंपो ही लोगों की लोकल आवाजाही का सुलभ साधन हैं। देहरादून में राजपुर रोड में राजपुर की तरफ जाते समय काफी चढ़ाई पड़ती है। वापसी में गाड़ी न्यूट्रल में ही सड़क पर ऐसे फिसलती है, जैसे पूरी स्पीड में दौड़ रही है। एक शाम एस्लेहाल से विक्रम में राजपुर रोड की सवारी लेकर चालक चला। एक व्यक्ति जो चालक के बगल में बैठा था ठीक से अपना सिर तक नहीं संभाल पा रहा था। पूरे नशे में होने के बावजूद वह बार-बार बोलकर चालक को परेशान भी कर रहा था। चालक बार-बार उससे यही कहता चाचा चुप होने का क्या लोगे। आरटीओ की सीधी चढ़ाई में चालक ने विक्रम की गति धीमी की, तभी पीछे बैठा एक युवक उतरा और बगैर पैसे दिए, भागने लगा। ये ड्राइवर भी चौकन्ने होते हैं। यदि वे हर सवारी पर नजर नहीं रखें तो सभी बगैर पैसे दिए रफूचक्कर हो जाए। चालक ने टैंपो रोका और फुर्ती से सवारी को पकड़ने को दौड़ पड़ा। खड़ी चढ़ाई में टैंपो को रोका गया था। चालक के भागने पर टैंपो पीछे को लुढ़कने लगा। अन्य सवारियां चिल्लाने लगी। तभी लगा कि टैंपो अब पीछे को नहीं जा रहा है। सभी सवारियों ने देखा कि जो शराबी चालक के पास बैठा बड़बड़ कर रहा था, वह टैंपो के पीछे खड़ा है। उसके दोनों हाथ टैंपो पर लगे थे और वह पीछे टैंपो को लुढ़कने से रोकने को आगे को धक्का दे रहा है। इसी बीच टैंपो चालक भी पैसे वसूलकर आ गया। उसने यह नजारा देखा तो अपनी गलती का उसे अहसास हुआ कि ठीक से उसने ब्रेक नहीं लगाए। साथ ही किसी हादसे को टालने वाले शराबी के आगे वह नतमस्तक हो गया।
भानु बंगवाल

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